"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 129": अवतरणों में अंतर

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जनता को एक साथ रोकने के लिये भी मुझे कर्म करना चाहिये , श्रेष्ठ पुरूष जो कुछ करते हैं उसी का इतर लोग अनुसरण् करते है; उन्हींके निर्माण किये हुए प्रमाण को मानकर सर्वसाधारण लोग चलते हैं । हे पार्थ, इस त्रिलोक में मेरे लिये कुछ भी ऐसा काम नहीं है जिसे करना मेरे लिये जरूरी हो, कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो और जिसे प्राप्त करना बाकी हो, फिर भी मैं कर्म करता ही हूं ‘एव’ पद का फलितार्थ यह है कि मैं कर्म करता ही रहता हूं और उन संन्यासियों की तरह कर्म को छोड़ नहीं देता जो यह समझते हैं कि कर्मो का त्याग तो हमें करना ही पडे़गा । “यदि मैं कर्म - मार्ग में तंद्रारहित होकर लगा न रहूं तो लोग - वे हर तरह से मेरे ही पीछे चलते हैं - मेरे कर्म न करने पर ध्वंस को प्राप्त हो जायेंगे और मैं संकर का कारण और इन प्राणियों का हंता बनूगां । जो जानते नहीं , वे कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं पर जो जानता है उसे लोक संग्रह का हेतु रखकर अनासक्त होकर कर्म करना चाहिये। कर्म में आसक्त रहने वाले अज्ञानियों का वह बुद्धिभेद न करे, बल्कि स्वयं ज्ञानयुक्त और योगस्थ होकर कर्म करके उन्हें सब कर्मो में लगावे।“1
जनता को एक साथ रोकने के लिये भी मुझे कर्म करना चाहिये , श्रेष्ठ पुरूष जो कुछ करते हैं उसी का इतर लोग अनुसरण् करते है; उन्हींके निर्माण किये हुए प्रमाण को मानकर सर्वसाधारण लोग चलते हैं । हे पार्थ, इस त्रिलोक में मेरे लिये कुछ भी ऐसा काम नहीं है जिसे करना मेरे लिये जरूरी हो, कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो और जिसे प्राप्त करना बाकी हो, फिर भी मैं कर्म करता ही हूं ‘एव’ पद का फलितार्थ यह है कि मैं कर्म करता ही रहता हूं और उन संन्यासियों की तरह कर्म को छोड़ नहीं देता जो यह समझते हैं कि कर्मो का त्याग तो हमें करना ही पडे़गा । “यदि मैं कर्म - मार्ग में तंद्रारहित होकर लगा न रहूं तो लोग - वे हर तरह से मेरे ही पीछे चलते हैं - मेरे कर्म न करने पर ध्वंस को प्राप्त हो जायेंगे और मैं संकर का कारण और इन प्राणियों का हंता बनूगां । जो जानते नहीं , वे कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं पर जो जानता है उसे लोक संग्रह का हेतु रखकर अनासक्त होकर कर्म करना चाहिये। कर्म में आसक्त रहने वाले अज्ञानियों का वह बुद्धिभेद न करे, बल्कि स्वयं ज्ञानयुक्त और योगस्थ होकर कर्म करके उन्हें सब कर्मो में लगावे।“1


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०८:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

शांत ब्रह्म को अपना लक्ष्य बनाओ तो संसार और उसके समस्त कर्मो का त्याग करना ही होगा; और उन ईश्वर , भगवान् , पुरूषोत्तम को अपना लक्ष्य बनाओ, जो कर्म के परे होने पर भी कर्म के आंतरिक अध्यात्मिक कारण और ध्येय तथा मूल संकल्प है, तो संसार अपने सारे कर्मो के साथ जीत लिया जाता और पुरूष अपने जगत् से परे दिव्य स्वरूप में स्थित होकर उसपर अधिकार रखता है। संसार तब कारगार नहीं रहता, बल्कि ‘समृद्ध राज्य‘ बन जाता है जिसे हमने दैत्यराट् अहंकार की सीमा का नाश कर, कामनारूपी जेलर के बंधन को काटकर और अपनी वैयक्तिक संपति और भोग के कैदखाने को तोड़कर, आध्यात्मिक जीवन के लिये जीता है। तब बंधनों से मुक्त विश्वात्मभूत अंतरात्मा ही स्वराट् - सम्राट हो जाती है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि यज्ञ - कर्म मुक्ति और अपूर्ण संसिद्धि के साधन हैं “उस महान् प्राचीन योग के करने वाले जनक और अन्य बडे़ - बडे़ कर्मयोगी बिना किसी अहंता - ममता के सम और निष्काम कर्म को यज्ञ रूप से करके संसिद्धि को प्राप्त हुए”, उसी प्रकार और उसी निष्कामता के साथ, मुक्ति और संसिद्धि प्राप्त होने के पश्चात भी हम विशाल भागवत भाव से तथा आध्यात्मिक प्रभुत्व से युक्त शांत प्रकृति से कर्म कर सकते हैं।
जनता को एक साथ रोकने के लिये भी मुझे कर्म करना चाहिये , श्रेष्ठ पुरूष जो कुछ करते हैं उसी का इतर लोग अनुसरण् करते है; उन्हींके निर्माण किये हुए प्रमाण को मानकर सर्वसाधारण लोग चलते हैं । हे पार्थ, इस त्रिलोक में मेरे लिये कुछ भी ऐसा काम नहीं है जिसे करना मेरे लिये जरूरी हो, कोई चीज ऐसी नहीं है जो मुझे प्राप्त न हो और जिसे प्राप्त करना बाकी हो, फिर भी मैं कर्म करता ही हूं ‘एव’ पद का फलितार्थ यह है कि मैं कर्म करता ही रहता हूं और उन संन्यासियों की तरह कर्म को छोड़ नहीं देता जो यह समझते हैं कि कर्मो का त्याग तो हमें करना ही पडे़गा । “यदि मैं कर्म - मार्ग में तंद्रारहित होकर लगा न रहूं तो लोग - वे हर तरह से मेरे ही पीछे चलते हैं - मेरे कर्म न करने पर ध्वंस को प्राप्त हो जायेंगे और मैं संकर का कारण और इन प्राणियों का हंता बनूगां । जो जानते नहीं , वे कर्म में आसक्त होकर कर्म करते हैं पर जो जानता है उसे लोक संग्रह का हेतु रखकर अनासक्त होकर कर्म करना चाहिये। कर्म में आसक्त रहने वाले अज्ञानियों का वह बुद्धिभेद न करे, बल्कि स्वयं ज्ञानयुक्त और योगस्थ होकर कर्म करके उन्हें सब कर्मो में लगावे।“1


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