"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 133" के अवतरणों में अंतर

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मुक्त मनुष्य के लिये भगवान् ने जो अपना दृष्टांत रखा वह गंभीर अर्थपूर्ण है ; क्योकि इस दृष्टांत से दिव्य कर्मो के बंधन में गीता का आधार संपूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। मुक्त पुरूष वही है जिसने अपने - आपको भगवत प्रकृति में उठा लिया है और उसी भागवत प्रकृति के अनुसार सब कर्म करता है । पर यह भागवत प्रकृति है क्या? वह पूरी तरह अपने - आपमें केवल अचल, अक्रता, नैव्र्यक्तिक , अक्षर, ब्रह्म की ही प्रकृति नहीं है ; क्योंकि यह भाव मुक्त पुरूष को निष्क्रिय निश्चलता की और ले जायेगा। यह केवल विविध , व्यष्टिगत, प्रकृतिबद्ध क्षर पुरूष की प्रकृति भी नहीं है , क्योंकि ऐसा ही जो तो मुक्त पुरूष फिर से अपने व्यष्टितव के तथा अपरा प्रकृति और उसके गुणों के अधीन हो जायेगा। यह भागवत प्रकृति उन पुरूषोत्तम की प्रकृति है जो अक्षर भाव और क्षर भव दोनों को एक साथ धारण करते और अपनी परम दिव्यता के द्वारा एक भागवत सांमजस्य में इनका समन्वय करते हैं ।  
 
मुक्त मनुष्य के लिये भगवान् ने जो अपना दृष्टांत रखा वह गंभीर अर्थपूर्ण है ; क्योकि इस दृष्टांत से दिव्य कर्मो के बंधन में गीता का आधार संपूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। मुक्त पुरूष वही है जिसने अपने - आपको भगवत प्रकृति में उठा लिया है और उसी भागवत प्रकृति के अनुसार सब कर्म करता है । पर यह भागवत प्रकृति है क्या? वह पूरी तरह अपने - आपमें केवल अचल, अक्रता, नैव्र्यक्तिक , अक्षर, ब्रह्म की ही प्रकृति नहीं है ; क्योंकि यह भाव मुक्त पुरूष को निष्क्रिय निश्चलता की और ले जायेगा। यह केवल विविध , व्यष्टिगत, प्रकृतिबद्ध क्षर पुरूष की प्रकृति भी नहीं है , क्योंकि ऐसा ही जो तो मुक्त पुरूष फिर से अपने व्यष्टितव के तथा अपरा प्रकृति और उसके गुणों के अधीन हो जायेगा। यह भागवत प्रकृति उन पुरूषोत्तम की प्रकृति है जो अक्षर भाव और क्षर भव दोनों को एक साथ धारण करते और अपनी परम दिव्यता के द्वारा एक भागवत सांमजस्य में इनका समन्वय करते हैं ।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०८:१२, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

अधिकाश मनुष्य आन में रहते हैं, ईश्वर - दृष्टा ज्ञान में रहता है; पर उसे अपनी श्रेष्ठता के वश संसार के कर्मो का त्याग करके मनुष्यों के सामने ऐसा खतरनाक उदाहरण न रखना चाहिये जिससे उनमें बुद्धिभेद हो; कर्म के सूत को पूरा कात लेने से पहले उसे बीच में ही न काटना चाहिये। जिन मार्गो को मैंने बनाया है उनकी चढ़ती - उतरती अवस्थाओं और श्रेणियों में उलझने उन्हें अयथार्थ न बनाना चाहिये। इस सारे मानव कर्म - क्षेत्र की व्यवस्था मेनें इसलिये की है कि मनुष्य अपरा प्रकृति से परा प्रकृति में पहुंच जाये और अपने बाह्म भागवत रूप से सचेतन भागवत स्परूप को प्राप्त हो। ईश्वेता मानव - कर्मो के सारे क्षेत्र में विचरण करता रहेगा। उसकी सारी व्यकितगत और सामाजिक क्रिया, उसकी बुद्धि , हृदय और शरीर के सारे कर्म अस भी उसकी के होंगें, पर अपने पृथक व्यक्तित्व के लिये नहीं बल्कि संसार में स्थित उन ईश्वर के लिये जो सब प्राणियों में विराज रहे हैं, और इसलिये कि वे सब प्राणी, स्वयं उसकी तरह ही, कर्ममार्ग पर चलकर उन्नत हों और अपने अंदर भगवान् को खोज लें।
हो सकता है कि बाह्मतः उसके और अन्य मनुष्यों के कर्मो में कोई मौलिक अंतर न हो; युद्ध शासन, शिक्षादान , और ज्ञानचर्चा, मनुष्य के साथ मनुष्य के जितने विभिन्न प्रकार के आदान - प्रदान हो सकते हैं। वे सभी उसके हिस्से पड़ सकते हैं। पर जिस भाव से वह इन कर्मो को करेगा वह अंश भिन्न होगा और उसीका यह प्रभाव होगा कि लोग उसकी ऊंची स्थिति की और खिंचे चले आयेंगे , यह मानव समूह के आरोहण में एक बड़े उत्तोलक यंत्र का काम देगा। मुक्त मनुष्य के लिये भगवान् ने जो अपना दृष्टांत रखा वह गंभीर अर्थपूर्ण है ; क्योकि इस दृष्टांत से दिव्य कर्मो के बंधन में गीता का आधार संपूर्ण रूप से प्रकट हो जाता है। मुक्त पुरूष वही है जिसने अपने - आपको भगवत प्रकृति में उठा लिया है और उसी भागवत प्रकृति के अनुसार सब कर्म करता है । पर यह भागवत प्रकृति है क्या? वह पूरी तरह अपने - आपमें केवल अचल, अक्रता, नैव्र्यक्तिक , अक्षर, ब्रह्म की ही प्रकृति नहीं है ; क्योंकि यह भाव मुक्त पुरूष को निष्क्रिय निश्चलता की और ले जायेगा। यह केवल विविध , व्यष्टिगत, प्रकृतिबद्ध क्षर पुरूष की प्रकृति भी नहीं है , क्योंकि ऐसा ही जो तो मुक्त पुरूष फिर से अपने व्यष्टितव के तथा अपरा प्रकृति और उसके गुणों के अधीन हो जायेगा। यह भागवत प्रकृति उन पुरूषोत्तम की प्रकृति है जो अक्षर भाव और क्षर भव दोनों को एक साथ धारण करते और अपनी परम दिव्यता के द्वारा एक भागवत सांमजस्य में इनका समन्वय करते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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