"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 153": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">15.अवतार की संभावना और हेतु</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">16.भगवान् की अवतरण - प्रणाली</div>
   
   
अवतार के ये हेतु सर्वमान्य हैं और उसके कर्म को देखकर ही जनसमुदाय उन्हें विशिष्ट पुरूष जानता और पूजने को तैयार होता है। केवल आध्यात्मिक मनुष्य ही यह देख पाते हैं कि अवतार एक चिह्न है, मानसिक और शारिरिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होकर उसे अपने साथ एकता में विकसित करने और उस पर अधिकार करने के लिये अपने - आपको अभिव्यक्त करने वाले सनातन आंतरिक भगवान् का प्रतीक है। बाह्म मानवरूप में ईसा, बुद्ध या कृष्ण का जो दिव्य प्राकटय होता है और मनुष्य के अदंर भगवान् के चिरंतन अवतार का जो प्राकटय होता है, दोनों के मूल में एक ही गूढ़ सत्य है। जो कुछ अवतारों के द्वारा इस पृथ्वी के बाह्म मानव- जीवन में किया गया है वह समस्त मानव - प्राणियों के अंदर दोहराया जा सकता है। अवतार लेने का यही उद्देश्य होता है, पर इसकी प्रणाली क्या है? अवतार के संबंध में एक यौक्तिक या संकीर्ण विचार है जिसे केवल इतना ही दिखायी देता है कि अवतार किन्हीं नैतिक, बौद्धिक और क्रियात्मक दिव्यतर गुणों की असाधारण अभिव्यक्तिमात्र होते हैं, जो साधारण मानवजाति का अतिक्रमण कर जाते हैं।
इस विचार मे अवश्य ही कुछ सत्य हैं अवतार विभूति भी हैं। ये श्रीकृष्ण जो अपनी अंतः सत्ता में मानव - शरीरधारी ईश्वर है, वे ही अपनी बाह्म मानवसत्ता में अपने युग के नेता , वृष्णिकुल के महापुरूष हैं। यह प्रकृति के दृष्टिकोण से है , आत्मा की दृष्टि से नहीं ।भगवान अपने - आपको प्रकृति के अनंत गुणों में प्रकट करते हैं और इस प्राकटय की तीव्रता उन गुणों की शक्ति और सिद्धि से जानी जाती है। इसलिये भगवान् की विभूति, नैव्र्यक्तिक भाव से उनके गुणों की अभिव्द्धयक्ति शक्ति है , वह उनका बहिःप्रवाह है चाहे ज्ञान के रूप में हो अथवा शक्ति प्रेम , बल या अन्य किसी रूप में; और वैयक्तिक भाव से यह वह मनोमय रूप् और सजीव सत्ता है जिसमें वह शक्ति सिद्ध होती और अपने महत् कर्म करती है ।” इस आंतरिक और बाह्म सिद्धि को प्राप्त करने में कोई प्रधानता , भागवत गुण की कोई महत्तर शक्ति , कोई कारगर ताकत ही विभुति का लक्षण है। मानव विभूति भावत सिद्धि प्राप्त करने के लिये मानवजाति के संघर्ष का अग्रणी नेता होती है - कारलाइल के अनुसार मनुष्यों के अंदर एक भागवत शक्ति। “ वृष्णियों में वासुदेव (श्री कृष्ण ) हूं, पाण्डवों में ध्नंजय (अर्जुन ) हूं, मुनियों में व्यास और कवियो में उशना कवि हूं” अर्थात प्रत्येक कोटि या कक्षा में सर्वोत्तम , प्रत्येक समूह में सबसे महान् जिन - जिन गुणों और कर्मो के द्वारा उस समूह की विश्ष्टि आत्मशक्ति प्रकट होती है उन गुणों और कर्मो का प्रकाश जिसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से प्रकट होता है वह ईश्वर की विभूति है। जीव की शक्तियों का यह उत्कर्ष भागवत प्राकटय के क्रम में अत्यंत आवश्यक है। कोई भी महान पुरूष जो हमारी औसत कक्षा के ऊपर उठ जाता है वह अपने कर्म से साधारण मानवजाति को ऊपर उठा देता है; वह हमारी भागवत संम्भावनाओं का एक सजीव आश्वासन , परमेश्वर की एक प्रतिश्रुटि और भागवत प्रकाश की एक प्रभा तथा भागवत शक्ति का एक उच्छवास होता है। मनुष्यों में महामनुस्वी और वीर पुरूषों को देवता की तरह पूजने की जो स्वभाविक
इस विचार मे अवश्य ही कुछ सत्य हैं अवतार विभूति भी हैं। ये श्रीकृष्ण जो अपनी अंतः सत्ता में मानव - शरीरधारी ईश्वर है, वे ही अपनी बाह्म मानवसत्ता में अपने युग के नेता , वृष्णिकुल के महापुरूष हैं। यह प्रकृति के दृष्टिकोण से है , आत्मा की दृष्टि से नहीं ।भगवान अपने - आपको प्रकृति के अनंत गुणों में प्रकट करते हैं और इस प्राकटय की तीव्रता उन गुणों की शक्ति और सिद्धि से जानी जाती है। इसलिये भगवान् की विभूति, नैव्र्यक्तिक भाव से उनके गुणों की अभिव्द्धयक्ति शक्ति है , वह उनका बहिःप्रवाह है चाहे ज्ञान के रूप में हो अथवा शक्ति प्रेम , बल या अन्य किसी रूप में; और वैयक्तिक भाव से यह वह मनोमय रूप् और सजीव सत्ता है जिसमें वह शक्ति सिद्ध होती और अपने महत् कर्म करती है ।” इस आंतरिक और बाह्म सिद्धि को प्राप्त करने में कोई प्रधानता , भागवत गुण की कोई महत्तर शक्ति , कोई कारगर ताकत ही विभुति का लक्षण है। मानव विभूति भावत सिद्धि प्राप्त करने के लिये मानवजाति के संघर्ष का अग्रणी नेता होती है - कारलाइल के अनुसार मनुष्यों के अंदर एक भागवत शक्ति। “ वृष्णियों में वासुदेव (श्री कृष्ण ) हूं, पाण्डवों में ध्नंजय (अर्जुन ) हूं, मुनियों में व्यास और कवियो में उशना कवि हूं” अर्थात प्रत्येक कोटि या कक्षा में सर्वोत्तम , प्रत्येक समूह में सबसे महान् जिन - जिन गुणों और कर्मो के द्वारा उस समूह की विश्ष्टि आत्मशक्ति प्रकट होती है उन गुणों और कर्मो का प्रकाश जिसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से प्रकट होता है वह ईश्वर की विभूति है। जीव की शक्तियों का यह उत्कर्ष भागवत प्राकटय के क्रम में अत्यंत आवश्यक है। कोई भी महान पुरूष जो हमारी औसत कक्षा के ऊपर उठ जाता है वह अपने कर्म से साधारण मानवजाति को ऊपर उठा देता है; वह हमारी भागवत संम्भावनाओं का एक सजीव आश्वासन , परमेश्वर की एक प्रतिश्रुटि और भागवत प्रकाश की एक प्रभा तथा भागवत शक्ति का एक उच्छवास होता है। मनुष्यों में महामनुस्वी और वीर पुरूषों को देवता की तरह पूजने की जो स्वभाविक


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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०८:१३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण

गीता-प्रबंध
16.भगवान् की अवतरण - प्रणाली

अवतार के ये हेतु सर्वमान्य हैं और उसके कर्म को देखकर ही जनसमुदाय उन्हें विशिष्ट पुरूष जानता और पूजने को तैयार होता है। केवल आध्यात्मिक मनुष्य ही यह देख पाते हैं कि अवतार एक चिह्न है, मानसिक और शारिरिक क्षेत्र में अभिव्यक्त होकर उसे अपने साथ एकता में विकसित करने और उस पर अधिकार करने के लिये अपने - आपको अभिव्यक्त करने वाले सनातन आंतरिक भगवान् का प्रतीक है। बाह्म मानवरूप में ईसा, बुद्ध या कृष्ण का जो दिव्य प्राकटय होता है और मनुष्य के अदंर भगवान् के चिरंतन अवतार का जो प्राकटय होता है, दोनों के मूल में एक ही गूढ़ सत्य है। जो कुछ अवतारों के द्वारा इस पृथ्वी के बाह्म मानव- जीवन में किया गया है वह समस्त मानव - प्राणियों के अंदर दोहराया जा सकता है। अवतार लेने का यही उद्देश्य होता है, पर इसकी प्रणाली क्या है? अवतार के संबंध में एक यौक्तिक या संकीर्ण विचार है जिसे केवल इतना ही दिखायी देता है कि अवतार किन्हीं नैतिक, बौद्धिक और क्रियात्मक दिव्यतर गुणों की असाधारण अभिव्यक्तिमात्र होते हैं, जो साधारण मानवजाति का अतिक्रमण कर जाते हैं। इस विचार मे अवश्य ही कुछ सत्य हैं अवतार विभूति भी हैं। ये श्रीकृष्ण जो अपनी अंतः सत्ता में मानव - शरीरधारी ईश्वर है, वे ही अपनी बाह्म मानवसत्ता में अपने युग के नेता , वृष्णिकुल के महापुरूष हैं। यह प्रकृति के दृष्टिकोण से है , आत्मा की दृष्टि से नहीं ।भगवान अपने - आपको प्रकृति के अनंत गुणों में प्रकट करते हैं और इस प्राकटय की तीव्रता उन गुणों की शक्ति और सिद्धि से जानी जाती है। इसलिये भगवान् की विभूति, नैव्र्यक्तिक भाव से उनके गुणों की अभिव्द्धयक्ति शक्ति है , वह उनका बहिःप्रवाह है चाहे ज्ञान के रूप में हो अथवा शक्ति प्रेम , बल या अन्य किसी रूप में; और वैयक्तिक भाव से यह वह मनोमय रूप् और सजीव सत्ता है जिसमें वह शक्ति सिद्ध होती और अपने महत् कर्म करती है ।” इस आंतरिक और बाह्म सिद्धि को प्राप्त करने में कोई प्रधानता , भागवत गुण की कोई महत्तर शक्ति , कोई कारगर ताकत ही विभुति का लक्षण है। मानव विभूति भावत सिद्धि प्राप्त करने के लिये मानवजाति के संघर्ष का अग्रणी नेता होती है - कारलाइल के अनुसार मनुष्यों के अंदर एक भागवत शक्ति। “ वृष्णियों में वासुदेव (श्री कृष्ण ) हूं, पाण्डवों में ध्नंजय (अर्जुन ) हूं, मुनियों में व्यास और कवियो में उशना कवि हूं” अर्थात प्रत्येक कोटि या कक्षा में सर्वोत्तम , प्रत्येक समूह में सबसे महान् जिन - जिन गुणों और कर्मो के द्वारा उस समूह की विश्ष्टि आत्मशक्ति प्रकट होती है उन गुणों और कर्मो का प्रकाश जिसके द्वारा सर्वोत्तम रूप से प्रकट होता है वह ईश्वर की विभूति है। जीव की शक्तियों का यह उत्कर्ष भागवत प्राकटय के क्रम में अत्यंत आवश्यक है। कोई भी महान पुरूष जो हमारी औसत कक्षा के ऊपर उठ जाता है वह अपने कर्म से साधारण मानवजाति को ऊपर उठा देता है; वह हमारी भागवत संम्भावनाओं का एक सजीव आश्वासन , परमेश्वर की एक प्रतिश्रुटि और भागवत प्रकाश की एक प्रभा तथा भागवत शक्ति का एक उच्छवास होता है। मनुष्यों में महामनुस्वी और वीर पुरूषों को देवता की तरह पूजने की जो स्वभाविक


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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