"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 10": अवतरणों में अंतर
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ब्रहदारण्यक उपनिषद् का कथन हैः ”जहां प्रत्येक वस्तु वस्तुतः स्वयं आत्मा ही बन गई है, वहां कौन किसका विचार करे और किसके द्वारा विचार करे? सार्वभौम ज्ञाता का ज्ञान हम किस वस्तु के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं?”<ref>2, 4, 12-14 </ref> इस प्रकार तर्कमूलक विचार की ज्ञाता और ज्ञेय के बीच की द्वैत की भावना से ऊपर उठा जाता है। वह शाश्वत (ब्रह्म) इतना असीम रूप से वास्तविक है कि हम उसे एक का नाम देने की भी हिम्मत नहीं कर सकते, क्योंकि एक होना भी एक ऐसी धारणा है, जो लैकिक अनुभव (व्यवहार) से ली गई है। उस परमात्मा के सम्बन्ध में हम केवल इतना कह सकते हैं कि वह अद्वैत है।<ref>‘कुलार्णव-तन्त्र’ से तुलना कीजिएः | |||
<poem>अद्वैतं केचिदिच्छन्ति द्वैतमिच्छन्ति चापरे। | <poem>अद्वैतं केचिदिच्छन्ति द्वैतमिच्छन्ति चापरे। | ||
मम तत्त्वं विजानन्तो द्वैताद्वैतविवर्जितम्।। कुछ संस्करणों में ‘विजानन्तो’ के स्थान पर ‘न जानन्ति’ पाठ है।</poem></ref> और उसका ज्ञान तब प्राप्त होता है, जब कि सब द्वैत उस सर्वोच्च एकता में विलीन हो जाते हैं। उपनिषदों में उसका नकारात्मक वर्णन दिया गया है कि ब्रह्म यह नहीं है, यह नहीं है(नेति नेति)। “वह स्नायुरहित है; वह किसी शस्त्र से विद्ध नहीं है और उसे पाप छूता नहीं है।”<ref>ईशोपनिषद् 8। भगवान्,तद् एकम्, निर्गुण और निर्विशेष है;“वह न तो विद्यमान है और न अविद्यमान।” ऋग्वेद, 10, 129। माध्यमिक बौद्ध परम वास्तविकता को ख़ाली या शून्य कहते हैं, जिससे कहीं उसे कोई अन्य नाम देकर वे उसे भ्रमवश सीमित न कर बैठें। उनकी दृष्टि में यह वह वस्तु हैं, जिसका ज्ञान तब होगा, जबकि सब विरोधी वस्तुएं सर्वोच्च एकता में विलीन हो जाएंगी। सेण्ट जॉन ऑफ डेमस्कस से तुलना कीजिएः “यह कह पाना असम्भव है कि परमात्मा अपने-आप में क्या है और उसके विषय में इस ढंग से वर्णन कर पाना अधिक सही है कि अन्य सब वस्तुओं का वर्जन कर दिया जाए। वस्तुतः वह अपने-आप होने के अलावा और कुछ भी नहीं है।”</ref>“उसकी कोई छाया या कालिमा नहीं है। उसके अन्दर या बाहर जैसी वस्तु कुछ नहीं है।”<ref>बृहदारण्यक उपनिषद् 3, 8, 8। महाभारत में भगवान् जो कि आचार्य है, नारद को बताता है कि उसका वास्तविक रूप “देखा नहीं जा सकता, सूंघा नहीं जा सकता, छुआ नहीं जा सकता; </ref> भगवद्गीता में अनेक स्थानों पर उपनिषदों के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया | मम तत्त्वं विजानन्तो द्वैताद्वैतविवर्जितम्।। कुछ संस्करणों में ‘विजानन्तो’ के स्थान पर ‘न जानन्ति’ पाठ है।</poem></ref> और उसका ज्ञान तब प्राप्त होता है, जब कि सब द्वैत उस सर्वोच्च एकता में विलीन हो जाते हैं। उपनिषदों में उसका नकारात्मक वर्णन दिया गया है कि ब्रह्म यह नहीं है, यह नहीं है(नेति नेति)। “वह स्नायुरहित है; वह किसी शस्त्र से विद्ध नहीं है और उसे पाप छूता नहीं है।”<ref>ईशोपनिषद् 8। भगवान्,तद् एकम्, निर्गुण और निर्विशेष है;“वह न तो विद्यमान है और न अविद्यमान।” ऋग्वेद, 10, 129। माध्यमिक बौद्ध परम वास्तविकता को ख़ाली या शून्य कहते हैं, जिससे कहीं उसे कोई अन्य नाम देकर वे उसे भ्रमवश सीमित न कर बैठें। उनकी दृष्टि में यह वह वस्तु हैं, जिसका ज्ञान तब होगा, जबकि सब विरोधी वस्तुएं सर्वोच्च एकता में विलीन हो जाएंगी।<br /> | ||
सेण्ट जॉन ऑफ डेमस्कस से तुलना कीजिएः “यह कह पाना असम्भव है कि परमात्मा अपने-आप में क्या है और उसके विषय में इस ढंग से वर्णन कर पाना अधिक सही है कि अन्य सब वस्तुओं का वर्जन कर दिया जाए। वस्तुतः वह अपने-आप होने के अलावा और कुछ भी नहीं है।”</ref>“उसकी कोई छाया या कालिमा नहीं है। उसके अन्दर या बाहर जैसी वस्तु कुछ नहीं है।”<ref>बृहदारण्यक उपनिषद् 3, 8, 8। महाभारत में भगवान् जो कि आचार्य है, नारद को बताता है कि उसका वास्तविक रूप “देखा नहीं जा सकता, सूंघा नहीं जा सकता, छुआ नहीं जा सकता; </ref> भगवद्गीता में अनेक स्थानों पर उपनिषदों के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया गया है। भगवान् को ‘अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य’ बताया गया है।<ref>2, 25</ref>वह न सत् है और न असत्।<ref>13, 12; 13, 15-17।</ref>भगवान् के लिए परस्पर-विरोधी विशेषण यह सूचित करने के लिए प्रयुक्त किए गए हैं कि उस पर अनुभवगम्य धारणाएं लागू नहीं की जा सकती।<br /> | |||
“वह गति नहीं करता और फिर भी वह गति करता है। वह बहुत दूर है, पर फिर भी पास है।”<ref>ईशोपनिषद् 5। साथ ही देखिए मुण्डकोपनिषद् 2, 1, 6-8; कठोपनिषद् 2, 14; बृहदारण्यक उपनिषद् 2, 37; श्वेताश्वतर उपनिषद् 3, 17</ref>इन विशेषणों से भगवान् का दुहरा स्वरूप सामने आता है। एक तो उसका सत् (अस्तित्वमय) स्वरूप और एक नाम-रूपमय स्वरूप। वह ‘परा’ अर्थात् लोकातीत है और ‘अपरा’ अर्थात् अन्तर्व्यापी है; संसार के अन्दर और बाहर दोनों जगह विद्यमान है।<ref>बहिरन्तश्च भूतानाम्। 13, 15</ref> परब्रह्म की अवैयक्तिकता उसका सम्पूर्ण महत्त्व नहीं है। उपनिषदों में दिव्य गतिविधि और प्रकृति में आग लेने की पुष्टि की गई है और हमारे सम्मुख एक ऐसे परमात्मा का रूप प्रस्तुत किया गया है, जो केवल असीम और केवल ससीम से कहीं अधिक है। | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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१०:५३, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
ब्रहदारण्यक उपनिषद् का कथन हैः ”जहां प्रत्येक वस्तु वस्तुतः स्वयं आत्मा ही बन गई है, वहां कौन किसका विचार करे और किसके द्वारा विचार करे? सार्वभौम ज्ञाता का ज्ञान हम किस वस्तु के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं?”[१] इस प्रकार तर्कमूलक विचार की ज्ञाता और ज्ञेय के बीच की द्वैत की भावना से ऊपर उठा जाता है। वह शाश्वत (ब्रह्म) इतना असीम रूप से वास्तविक है कि हम उसे एक का नाम देने की भी हिम्मत नहीं कर सकते, क्योंकि एक होना भी एक ऐसी धारणा है, जो लैकिक अनुभव (व्यवहार) से ली गई है। उस परमात्मा के सम्बन्ध में हम केवल इतना कह सकते हैं कि वह अद्वैत है।[२] और उसका ज्ञान तब प्राप्त होता है, जब कि सब द्वैत उस सर्वोच्च एकता में विलीन हो जाते हैं। उपनिषदों में उसका नकारात्मक वर्णन दिया गया है कि ब्रह्म यह नहीं है, यह नहीं है(नेति नेति)। “वह स्नायुरहित है; वह किसी शस्त्र से विद्ध नहीं है और उसे पाप छूता नहीं है।”[३]“उसकी कोई छाया या कालिमा नहीं है। उसके अन्दर या बाहर जैसी वस्तु कुछ नहीं है।”[४] भगवद्गीता में अनेक स्थानों पर उपनिषदों के इस दृष्टिकोण का समर्थन किया गया है। भगवान् को ‘अव्यक्त, अचिन्त्य और अविकार्य’ बताया गया है।[५]वह न सत् है और न असत्।[६]भगवान् के लिए परस्पर-विरोधी विशेषण यह सूचित करने के लिए प्रयुक्त किए गए हैं कि उस पर अनुभवगम्य धारणाएं लागू नहीं की जा सकती।
“वह गति नहीं करता और फिर भी वह गति करता है। वह बहुत दूर है, पर फिर भी पास है।”[७]इन विशेषणों से भगवान् का दुहरा स्वरूप सामने आता है। एक तो उसका सत् (अस्तित्वमय) स्वरूप और एक नाम-रूपमय स्वरूप। वह ‘परा’ अर्थात् लोकातीत है और ‘अपरा’ अर्थात् अन्तर्व्यापी है; संसार के अन्दर और बाहर दोनों जगह विद्यमान है।[८] परब्रह्म की अवैयक्तिकता उसका सम्पूर्ण महत्त्व नहीं है। उपनिषदों में दिव्य गतिविधि और प्रकृति में आग लेने की पुष्टि की गई है और हमारे सम्मुख एक ऐसे परमात्मा का रूप प्रस्तुत किया गया है, जो केवल असीम और केवल ससीम से कहीं अधिक है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2, 4, 12-14
- ↑ ‘कुलार्णव-तन्त्र’ से तुलना कीजिएः
अद्वैतं केचिदिच्छन्ति द्वैतमिच्छन्ति चापरे।
मम तत्त्वं विजानन्तो द्वैताद्वैतविवर्जितम्।। कुछ संस्करणों में ‘विजानन्तो’ के स्थान पर ‘न जानन्ति’ पाठ है। - ↑ ईशोपनिषद् 8। भगवान्,तद् एकम्, निर्गुण और निर्विशेष है;“वह न तो विद्यमान है और न अविद्यमान।” ऋग्वेद, 10, 129। माध्यमिक बौद्ध परम वास्तविकता को ख़ाली या शून्य कहते हैं, जिससे कहीं उसे कोई अन्य नाम देकर वे उसे भ्रमवश सीमित न कर बैठें। उनकी दृष्टि में यह वह वस्तु हैं, जिसका ज्ञान तब होगा, जबकि सब विरोधी वस्तुएं सर्वोच्च एकता में विलीन हो जाएंगी।
सेण्ट जॉन ऑफ डेमस्कस से तुलना कीजिएः “यह कह पाना असम्भव है कि परमात्मा अपने-आप में क्या है और उसके विषय में इस ढंग से वर्णन कर पाना अधिक सही है कि अन्य सब वस्तुओं का वर्जन कर दिया जाए। वस्तुतः वह अपने-आप होने के अलावा और कुछ भी नहीं है।” - ↑ बृहदारण्यक उपनिषद् 3, 8, 8। महाभारत में भगवान् जो कि आचार्य है, नारद को बताता है कि उसका वास्तविक रूप “देखा नहीं जा सकता, सूंघा नहीं जा सकता, छुआ नहीं जा सकता;
- ↑ 2, 25
- ↑ 13, 12; 13, 15-17।
- ↑ ईशोपनिषद् 5। साथ ही देखिए मुण्डकोपनिषद् 2, 1, 6-8; कठोपनिषद् 2, 14; बृहदारण्यक उपनिषद् 2, 37; श्वेताश्वतर उपनिषद् 3, 17
- ↑ बहिरन्तश्च भूतानाम्। 13, 15