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गीता-प्रबंध
21.प्रकृति का नियतिवाद

मानव - जीव के स्तरों की भी यही बात है । जिसे हम अपनी साधारण मनोवृत्ति के अनुसार स्वाधीन इच्छा कहते हैं, और एक हदतक यह कहना ठीक भी हो सकता है, वह उस योगी की दृष्टि में ,जो ऊपर उठ चुका है और जिसके लिये हमारी रात तो दिन है और हमारा दिन रात, यह स्वाधीन इच्छा नहीं है बल्कि प्रकृति के गुणों की अधीनता है। वह भी उन्हीं तथ्यों को देखता है जिन्हें हम देखते हैं, किंतु वह ( समग्र सत्य को जाननेवाले ) की उच्चतर दृष्टि से देखता है और हम देखते है अकृत्स्नवित् की दृष्टि से, जो बहुत ही मर्यादित होती है, जो अज्ञान ही है। हम जिस स्वाधीनता पर गर्व करते हैं वह उसके लिये बंधन है। निम्न प्रकृति के जाल में पड़े हुए हम अज्ञानवश मान बैठते हैं कि हम स्वाधीन है, इस अज्ञान का खंडन करने के लिये गीता ने बतलाया है कि अहमात्मक जीव इस स्तर पर पूरी तरह त्रिगुण के वश में होता है। ‘‘ जब कि सब काम सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा कराये जा रहे हैं, अहंकार - विमूढ़ आत्मा समझता है कि इन्हें करनेवाला तो ‘मैं’ हूं। परंतु जो गुणों और कर्मो के भेदों के सच्चे नियमों को जानता है वह देखता है कि प्रकृति के गुण परस्पर क्रिया - प्रतिक्रिया कर रहे हैं।
और इसलिये वह आसक्त् होकर इनमें नहीं फंसतां जो इन गुणों के द्वारा विमूढ़ हो जाता है, जो अकृत्स्नवित् है उसकी मनोभावना को कृत्स्नवित् विचलित न करे। तू अपने सब कर्म मुझे समर्पित कर, निरीह, निर्मम और विगतज्वर होकर , युद्ध कर।”[१] यहां चेतना के दो भिन्न स्तरों और कर्म के दो विभिन्न दृष्टिबिंदुओं में स्पष्ट भेद किया गया है। एक स्तर वह है जहां जीव अपनी अहमात्मक प्रकृति के जाल मे जकड़ा है और प्रकृति से प्रेरित होकर कर्म करता है पर समझता है कि मैं अपनी स्वाधीन इच्छा से कर रहा हूं। दूसरा स्तर वह है जिसमें जीव अहंकार के साथ तादात्म्य से मुक्त , प्रकृति से ऊपर उठा हुआ और उसके कर्मो का द्रष्टा, अनुमंता और नियंता है।हम जीव को प्रकृति के अधीन कहते हैं, पर गीता, इसके विपरीत , पुरूष और प्रकृति के लक्षणों का विश्लेषण करते हुए बतलाती है कि प्रकृति कार्यकरी शक्ति है और पुरूष सदा ही ईश्वर है। यहां गीता ने बतलाया है कि यह पुरूष अहंकार से विमूढ़ हो जाता है, परंतु वेदांतियों का सदात्मा ब्रह्म, नित्यमुक्त , शुद्ध, बुद्ध है। तब यह जीव क्या है जो प्रकृति से विमूढ़ होता है, उसके अधीन रहता है? इसका उत्तर यह है कि यहां हम वस्तुओं के संबंध में अपनी निम्नतर या मानसिक दृष्टि की व्यावहारिक भाषा में बात कर रहे हैं, प्रतीयमान आत्मा या पुरूष की बात क अधीन होता है, और यह अपरिहार्य है, क्योंकि वह प्रकृति का ही अंग है, उसके कलपुर्जो की एक क्रिया है;परंतु जब मनश्वेता का आत्मबोध अहंकार के साथ तादात्म्य कर लेता है तो वह निम्नतर आत्मा के, एक अहमात्मक स्व के आभास की सृष्टि करता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 3.30

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