"भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 39": अवतरणों में अंतर
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१०:५७, २२ सितम्बर २०१५ के समय का अवतरण
क्योंकि पूर्णता के लक्ष्य और उसकी ओर जाने वाले मार्ग, दोनों के लिए ही ‘ज्ञान’ शब्द का प्रयोग हुआ है, इसलिए कुछ लोग यह सोचने लगे हैं कि उस लक्ष्य तक पहुँचने की अन्य पद्धतियों की अपेक्षा बौद्धिक मार्ग अधिक उत्कृष्ट है।विशुद्ध और लोकातीत ज्ञान वैज्ञानिक ज्ञान से भिन्न वस्तु है, हालांकि वह इससे एकदम पृथक् नहीं है। प्रत्येक विज्ञान अपने-अपने ढंग से एक विशिष्ट वस्तु-व्यवस्था में उस उच्चतर अपरिवर्तनीय सत्य के प्रतिबिम्ब को व्यक्त करता है, जिसका प्रत्येक वास्तविक वस्तु आवश्यक रूप से अंग है। वैज्ञानिक या विभेदात्मक ज्ञान हमें उच्चतर ज्ञान के लिए तैयार करता है। विज्ञान के आंशिक सत्य आत्मा के सम्पूर्ण सत्य से भिन्न हैं। वैज्ञानिक ज्ञान इसलिए उपयोगी है, क्योंकि यह मन को कष्ट देने वाले अन्धकार को दूर करता है और यह अपने संसार की अपूर्णता को भली भाँति दिखा देता है और मन को एक ऐसी वस्तु के लिए तैयार करता है, जो स्वयं इससे ऊपर है।
सत्य को जानने के लिए हमे आत्मा के रूपान्तरण की, आध्यात्मिक दृष्टि के विकास की आवश्यकता होती है। अपनी साधारण आँखों से अर्जुन सत्य को नहीं देख पाया, इसलिए उसे दिव्य दृष्टि प्रदान की गई। अस्तित्व के उच्च्तर स्तरों पर आरोहण, उच्चतर आत्मा को प्राप्त करने के लिए अपना विलोप जिज्ञासा द्वारा अथवा ज्ञान को निष्काम लालसा द्वारा किया जा सकता है। यह जिज्ञासा मनुष्य को उसकी संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठा देती है और अस्तित्व के सार्वभौम सिद्धान्तों के चिन्तन में उसे आत्मविस्मृत बना देती है। अधिकार या यश के लिए ज्ञान प्राप्त करने की साधना हमें उतनी दूर नहीं ले जाती। यह साधना सत्य को प्राप्त करने के लिए की जानी चाहिए। गीता में जिस आधिविद्यक विश्वास को स्वीकृत किया गया है, वह सांख्यदर्शन ही है, जिसमें कुछ आधारभूत हेर-फेर दिए गए हैं।
परमात्मा में गम्भीर निष्ठा और मुक्ति में विश्वास के लिए तीन वस्तुओं को मानने की आवश्यकता होती है; एक तो आत्मा, जिसको मुक्त किया जाना है; दूसरे वह बेड़ी, जो उस आत्मा को बांधे हुए है और जिससे उसे मुक्त किया जाना है; और तीसरे परमात्मा, वह सत्ता जो हमें इस बन्धन से मुक्त करती है। सांख्यदर्शन में पुरूष (आत्मा) और प्रकृति (अनात्म) के बीच द्वैत को स्पष्ट किया गया है। गीता में इन दोनों को परमात्मा के अधीन बताया गया है। आत्माएं अनेक हैं और वे सदा पृथक् रहती हैं। आत्मचेतन जीवन के सब परिवर्तनों के पीछे विद्यमान स्थायी सत्ता है। यह आत्म समान्य अर्थो में प्रयुक्त आत्मा नहीं है, अपितु वह विशुद्ध निष्क्रिय, स्वतः प्रकाशित मूल तत्व है, जो न तो संसार से निकला है, न संसार पर निर्भर है और न जिसका निर्धारण ही संसार द्वारा किया जाता है। यह अद्वितीय और अखण्ड है। मनुष्य आत्मा नहीं है, अपितु आत्म उसमें है और मनुष्य आत्मा बन सकता है। अनात्म या प्रकृति का एक और परम मूल तत्व है,जिसकी कल्पना इस रूप में की गई है कि वह पहले अविभक्त भौतिक तत्व के रूप में था, जिसमें उसके सब घटक तत्व सामयावस्था में थे।
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