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११:५३, १ जून २०१८ के समय का अवतरण
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अरुण
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 236 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्री कैलासचंद्र शर्मा |
अरुण नाम के कई व्यक्तियों का उल्लेख भारतीय वाङमय में मिलते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के समय ब्रह्म के मांस से उत्पन्न ऋषि का नाम अरुण था। पंचम मनु के पुत्रों में से एक की यही संज्ञा थी। दनु और कश्यप के एक पुत्र का भी अरुण नाम मिलता है। हर्यश्व को दृषद्वती से जात पुत्र का भी यही नाम था जिसके अन्य नामांतर निबंधन तथा त्रिबंधन थे। नरकासुर के पुत्र अरुण ने अपने छह भाइयों के साथ कृष्ण पर आक्रमण किया और सबांधव मारा गया। शर्मसावर्णि मन्वंतर के सप्तर्षियों में से भी एक का नाम अरुण था।
पूर्वाकाश की प्रात:कालीन लालिमा अथवा बालसूर्य को भी अरुण कहा जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार सूर्य के रथ का सारथि अरुण विनता और कश्यप का पुत्र था। इसके जन्म की कथा पर्याप्त रोचक है। उल्लेख है कि विनता और उसकी सौत कद्रू एक साथ आपन्नसत्वा हुई। परंतु कद्रू को पहले ही प्रसव हो गया और उसके पुत्र चलने फिरने लगे। यह देख विनता ने अपने दो अंडों में से एक को फोड़ डाला जिससे कमर तक शरीरवाला पुत्र निकला। यही अरुण था जिसे, पैर न होने के कारण, अनरू तथा विपाद भी कहा गया। यह जानने पर कि सौतियाडाह के कारण मेरी यह दशा हुई है, अरुण ने अपनी माँ को शाप दिया कि पाँच सौ वर्ष तक सौत की दासी बनकर रहो। परंतु बाद में उसने उ:शाप बताया कि दूसरे अंडे को यदि परिपक्व होने दिया गया तो उससे उत्पन्न पुत्र तुम्हें दासता से मुक्त करेगा। दूसरे अंडे से जन्मे गरुड़ ने अरुण को ले जाकर पूर्व दिशा में रखा। अपने योगबल से अरुण ने संतप्त सूर्य के तेज को निगल लिया। तभी देवताओं के अनुरोध पर उसने सूर्य का सारथ्य स्वीकार किया। संपाति, जटायु तथा श्येन इसके पुत्र थे। निर्णयसिंधु तथा संस्कारकौस्तुभ में अरुणकृत स्मृति का उल्लेख है। विपाद होने के कारण सूर्य की मूर्तियों के साथ अरुण सदा कटिभाग तक ही उत्कीर्ण होता है। सूर्यमंदिरों अथवा विष्णुमंदिरों की चौखट पर घोड़ों की रास पकड़े रथ का संचालन करती हुई अरुणमूर्ति मध्यकालीन कला में बहुधा कोरी गई है।
विप्रचित्ति वंश के एक दानव का नाम भी अरुण था। इसने सहस्रों वर्ष तक गायत्री जाप करके ब्रह्म से युद्ध में मृत्यु न होने का वर पाया। इंद्रादि से युद्ध के समय आकाशवाणी द्वारा इसके मरने का उपाय का पता चला कि गायत्री का त्याग करने पर ही दानव की मृत्यु संभव है। पश्चात् देवताओं द्वारा नियुक्त बृहस्पति ने इससे गायत्री जाप छुड़वाया। इससे क्रुद्ध गायत्री ने लाखों भौंरे उत्पन्न किए जिन्होंने सेना सहित अरुण को मार डाला।
टीका टिप्पणी और संदर्भ