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लेख सूचना
आनुपातिक प्रतिनिधान
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 380
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्री अबंतिलाल लुबा

आनुपातिक प्रतिनिधान शब्द का अभिप्राय उस निर्वाचन प्रणाली से है जिसका उद्देश्य लोकसभा में जनता के विचारों की एकताओं तथा विभिन्नताओं को गणितरूपी यथार्थता से प्रतिबिंबित करना है। 19वीं शताब्दी के संसदीय अनुभव ने परंपरागत प्रतिनिधित्व की प्रणाली के कुछ स्वाभाविक दोषों पर प्रकाश डाला। सरल बहुतमत तथा अपेक्षाकृत मताधिकीय पद्धति (सिंपुल मेजारिटी ऐंड रिलेटिव मेजारिटी सिस्टम) के अंतर्गत प्रत्येक निर्वाचनक्षेत्र में एक या अनेक सदस्य बहुमत के आधार पर चुने जाते हैं। अर्थात्‌ इस प्रणाली में इस बात को कोई महत्व नहीं दिया जाता कि निर्वाचित सदस्यों के प्राप्त मतों तथा कुल मतों में क्या अनुपात है।

बहुधा ऐसा देखा गया है कि अल्पसंख्यक जातियाँ प्रतिनिधान पाने में असफल रह जाती हैं तथा बहुसंख्यक अधिकाधिक प्रतिनिधित्व पा जाती हैं। कभी-कभी अल्पसंख्यक मतदाता बहुसंख्यक प्रतिनिधियो को भेजने में सफल हो जाते हैं। प्रथम महायुद्ध के उपरांत इंग्लैंड में हाउस ऑव कामंस के निर्वाचन के इतिहास से हमें इसके कई दृष्टांत मिलते हैं; उदाहरणार्थ, सन्‌ 1918 के चुनाव में संयुक्त दलवालों (कोलीशनिस्ट) ने अपने विरोधियों से चौगुने स्थान प्राप्त किए जब कि उन्हें केवल 48 प्रतिशत मत मिले थे। इसी प्रकार 1935 में सरकारी दल ने लगभग एक करोड़ मतों से 428 स्थान प्राप्त किए जब कि विरोधी दल 90.9 लाख मत पाकर भी 184 स्थान प्राप्त कर सका। इसी तरह 1945 के चुनाव में मजूर दल को 1.2 करोड़ मतों द्वारा 392 स्थान मिले, जब कि अनुदार दल (कंज़रवेटिब्ज़) को 80.5 लाख मतों द्वारा केवल 189। इसके अतिरिक्त यदि हम उन व्यक्तियों की संख्या गिनें (क) जो केवल एक ही उम्मीदवार के खड़े होने के कारण अपने मताधिकार का उपयोग नहीं कर सके; (ख) जिनका प्रतिनिधि निर्वाचन में हार गया और उनके दिए हुए मत व्यर्थ गए; (ग) जिन्होंने अपने मत का उपयोग इसलिए नहीं किया कि कोई ऐसा उम्मीदवार नहीं मिला जिसकी नीति का वे समर्थन करते; (घ) जिन्होंने अपना मत किसी उम्मीदवार को केवल इसलिए दिया कि उसमें कम दोष थे, तो यह प्रतीत होगा कि वर्तमान निर्वाचनप्रणाली वास्तव में जनता को प्रतिनिधि देने में अधिकतर असफल रहती है। इन्हीं दोषों का निवारण करने के लिए आनुपातिक प्रतिनिधान की विभिन्न विधियाँं प्रस्तुत की गई हैं।

आनुपातिक प्रतिनिधान का सामान्य विचार 19वीं शताब्दी के मध्य में उत्पन्न हुआ, जब कि उपयोगितावाद के प्रभाव के अंतर्गत सुधारकों ने याँत्रिक उपायों द्वारा लोकसंस्थाओं को अधिक सफल बनाने का प्रयास किया। आनुपातिक प्रतिनिधान का विचार पहले पहल 1753 में फ्रांसीसी राष्ट्र-विधान-सभा में प्रस्तुत किया गया। परंतु उस समय इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। 1820 में फ्रांसीसी गणितज्ञ गरगौन (Gorgonne) ने राजनीतिक गणित पर एक लेख 'निर्वाचन तथा प्रतिनिधान के शीर्षक से ऐनल्स ऑव मैथेमेटिक्स में छापा। उसी वर्ष इंग्लैंड निवासी टामस राइट हिल नामक एक अध्यापक ने एकल संक्रमणीय प्रणाली संगिल ट्रांसफ़रेबिल वोट) से मिलती जुलती एक योजना प्रस्तुत की और उसका एक गैरसरकारी संस्था के चुनाव में प्रयोग भी हुआ। 1839 में इस विधि का सार्वजनिक प्रयोग दक्षिणी आस्ट्रेलिया के नगर एडिलेड में हुआ था। स्विट्ज़रलैंड में 1842 में जिनीवा की राज्यसभा के सम्मुख विक्तोर कानसिदेराँ ने सूचीप्रणाली (लिस्ट सिस्टम) का प्रस्ताव रखा।

1844 में संयुक्त राज्य, अमरीका में टामस गिलपिन ने 'लघुसंख्यक जातियों का प्रतिनिधान' (आन द रिप्रेज़ेंटेशन ऑव माइनारिटीज़ टु ऐक्ट विद द मेजारिटी इन इलेक्टेड असेंबलीज़) नाम की एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने भी आनुपातिक प्रतिनिधान की सूचीप्रणाली का वर्णन किया। 12 वर्ष के उपरांत डेनमार्क में वहाँ के अर्थमंत्री कार्ल आंड्रे द्वारा आयोजित निर्वाचनप्रणाली के आधार पर मतपत्र का प्रयोग करते हुए एकल संक्रमणीय पद्धति के आधार पर प्रथम सार्वजनिक निर्वाचन हुआ। परंतु सामान्यत: यह प्रणाली टामस हेयर के नाम से जोड़ी जाती है। टामस हेयर इंग्लैंड निवासी थे जिन्होंने अपनी दो पुस्तकों अर्थात्‌ मशीनरी ऑव गवर्नमेंट (1856) तथा ट्रीटाइज़ आन दि इलेक्शन ऑव रिप्रज़ेंटेटिवज़ (1859) में विस्तारपूर्वक इस प्रणाली का उल्लेख किया। और जब जान स्टुअर्ट मिल ने अपनी पुस्तक रिप्रेज़ेंटेटिव गवर्नमेंट में इस प्रस्तुत प्रणाली की 'राज्यशास्त्र तथा राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण सुधार' कहकर प्रशंसा की तब विश्व के राजनीतिज्ञों का ध्यान इसी ओर आकृष्ट हुआ। टामस हेयर के मौलिक आयोजन में समय-समय पर विभिन्न परिवर्तन होते रहे हैं।

आनुपातिक प्रतिनिधित्व विभिन्न रूपों में अपनाया गया है, तथापि इन सबमें एक समानता अवश्य है, जो इस प्रणाली का एक अनिवार्य अंग भी है कि इस प्रणाली का प्रयोग बहुसदस्य निर्वाचनक्षेत्रों (मिल्टी-मेंबरकांस्टीटुएँसी) के बिना नहीं हो सकता।

आनुपातिक प्रतिनिधान प्रणाली के दो मुख्य रूप हैं, अर्थात्‌ सूचीप्रणाली तथा एकल संक्रमणीय मतप्रणाली। सूचीप्रणाली कुछ हेर फेर के साथ यूरोप के अधिकतर देशों में प्रचलित है। सामान्यत: इस प्रणाली के अंतर्गत विभिन्न राजनीतिक दलों की सूचियों को उनके प्राप्त किए गए मतों के अनुसार सदस्य दिए जाते हैं। इस प्रणाली की व्याख्या सबसे उत्तम रूप से जर्मनी के 1930 के वाइमार विधान के अंतर्गत जर्मन ससंद् के निम्न सदन रीश्टाग की निर्वाचन पद्धति से की जा सकती है जिसे बाडेन आयोजना के नाम से संबोधित किया जाता है। इस आयोजना के अनुसार रीश्टाग की कुल संख्या नियत नहीं थी वरन्‌ निर्वाचन में डाले गए मतों की कुल संख्या के अनुसार घटती-बढ़ती रहती थी। प्रत्येक 60,000 मतों पर, जिसे कोटा कहते थे, एक प्रतिनिधि चुना जाता था। जर्मनी को 35 चुनावक्षेत्रों में बाँट दिया गया था और इनको मिलाकर 17 चुनाव भागों में। प्रत्येक राजनीतिक दल को तीन प्रकार की सूचियाँ प्रस्तुत करने का अधिकार था : स्थानीय सूची, प्रदेशीय सूची तथा राष्ट्रीय सूची। प्रत्येक मतदाता अपना मत प्रतिनिधि को न देकर किसी न किसी राजनीतिक दल को देता था। प्रत्येक निर्वाचन-क्षेत्र में मतगणना के उपरांत प्रत्येक राजनीतिक दल को स्थानीय सूची के ऊपर प्रथम उम्मीदवार से उतने प्रतिनिधि दे दिए जाते थे जितने कुल प्राप्त मतों के अनुसार कोटा के आधार पर मिलें; तदुपरांत प्रत्येक प्रदेश में स्थानीय क्षेत्रों के शेष मतों को जोड़कर फिर प्रत्येक दल को प्रदेशीय सूची से विशेष सदस्य दे दिए जाते है और इसी प्रकार सारे प्रदेशीय क्षेत्रों में शेष मतों को फिर जोड़कर राष्ट्रसूची से कोटा के अनुसार विशेष सदस्य और इसपर भी यदि शेष मत रह जाएँ तो 30,000 मतों से अधिक पर एक विशेष सदस्य उस दल को और मिल जाता था। इस प्रकार बाडेनप्रणाली ने आनुपातिक प्रतिनिधान के इस सिद्धांत को कि 'कोई भी मत व्यर्थ न जाना चाहिए' का तार्किक निष्कर्ष तक पालन किया। इस प्रणाली की सबसे बड़ी कमी यह है कि मतदाताओं को प्रतिनिधियों के चुनाव में व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं होती।

एकल संक्रमणीय मत या हेयर प्रणाली के अनुसार प्रतिनिधियों का निर्वाचन सामान्य सूची द्वारा होता है, निर्वाचन के समय प्रत्येक मतदाता, उम्मीदवारों के नाम के आगे अपनी रुचि के अनुसार 1, 2, 3, 4 इत्यादि संख्या लिख देता है। गणना से प्रथम चरण कोटा का निष्कर्ष करना है। कोटा को प्राप्त करने के लिए डाले गए मतों की कुल संख्या को निर्वाचनक्षेत्र के नियत सदस्यों की संख्या में एक जोड़कर, भाग करके, तदुपरांत परिणामफल में एक जोड़ दिया जाता है, अर्थात्‌ :

कोटा = मतों की कुल संख्या
नियत प्रतिनिधि संख्या+1

सबसे पहले उन उम्मीदवारों को निर्वाचित घोषित किया जाता है जो कोटा प्राप्त कर लेते हैं। यदि इससे समस्त स्थानों की पूर्ति नहीं होती तब पूर्वनिर्वाचित सदस्यों के कोटा से अधिक मतों को उनके मतदाताओं में उनकी रुचि के अनुसार बाँट दिया जाता है। यदि इसपर भी स्थानों की पूर्ति नहीं होती, तब कम से कम मत पाए हुए उम्मीदवार के मतों को जब तक बाँटते रहते हैं जब तक कुल स्थानों की पूर्ति नहीं हो जाती। अनुभव से प्रतीत होता है कि एकल संक्रमणीय प्रणाली मतदाताओं को निर्वाचन में स्वतंत्रता तथा प्रत्येक समूह को संख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व प्रदान करती है। इसकी यह भी विशेषता है कि राजनीतिक दल निर्वाचन में अनुचित लाभ नहीं उठा सकते, परंतु आलोचकों का कहना है कि यह निर्वाचन सामान्य मतदाताओं की बुद्धि से परे है।

अपने गुणों के कारण आनुपातिक प्रतिनिधित्व का बड़ी शीघ्रता से प्रचार हुआ है। प्रथम महायुद्ध के पहले भी यूरोप के बहुत से देशों में सूचीप्रणाली का लोकसभा के निर्वाचन में अधिकतर प्रयोग होने लगा था। डेनमार्क में तो 1855 में ही संसद् के उच्च भवन के निर्वाचन के लिए इसका प्रयोग आरंभ हो गया था। तदुपरांत 1891 में स्विट्ज़रलैंड ने प्रादेशिक संसदों के लिए इसे अपनाया और 1895 में बेलजियम ने स्थानीय चुनावों के लिए तथा 1899 में संसद् के लिए। स्वीडेन ने 1907 में, डेनमार्क ने 1915 में, हालैंड ने 1917 में, स्विट्ज़रलैंड ने 1918 में और नार्वे ने 1919 में इस प्रणाली को पूर्ण रूप से सब चुनावों के लिए लागू कर दिया। प्रथम महायुद्ध के उपरांत यूरोप के समस्त नए विधानों में किसी न किसी रूप में आनुपातिक प्रतिनिधान को स्थान दिया गया।

अंग्रेजी भाषी देशों में अधिकतर एकल संक्रमणीय प्रणाली का प्रयोग हुआ है। ब्रिटेन में यह प्रणाली 1918 से पार्लमेंट के विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधियों के निर्वाचन में इस्तेमाल होती रही है और इंग्लैंड के गिर्जे की राष्ट्रसभा के लिए, स्काटलैंड में 1919 से शिक्षा संबंधी संस्थाओं के लिए, उत्तरी आयरलैंड में 1920 से पार्लिमेंट के दोनों सदनों के सदस्यों के चुनाव के लिए। आयरलैंड के विधान के अनुसार सारे चुनाव इसी प्रणाली द्वारा होते हैं। दक्षिणी अफ्रीका में इसका प्रयोग सिनेट तथा कुछ स्थानीय चुनावों में होता है। कैनेडा में भी स्थानीय चुनाव इसी आधार पर होते हैं। संयुक्त राज्य, अमरीका में अभी तक इस प्रणाली का प्रयोग स्थानीय चुनावों के अतिरिक्त अन्य चुनावों में नहीं हो पाया है।

द्वितीय महायुद्ध ने इस आंदोलन को और आगे बढ़ाया; उदाहरणार्थ, फ्रांस के चतुर्थ गणतंत्रीय विधान ने सामन्य सूची को अपनी निर्वाचनविधि में स्थान दिया। तदुपरांत सीलोन, बर्मा और इंडोनिशिया के नए विधानों ने एकल संक्रमणीय मतप्रणाली को अपनाया है। भारतवर्ष में लोक-प्रतिनिधान-अधिनियमों तथा नियमों (पीपुल्स रिप्रेज़ेंटेटिव ऐक्ट्स ऐंड रेगुलेशन) के अंतर्गत लगभग सारे चुनाव एकल संक्रमणीय मतप्रणाली द्वारा ही होते हैं। आनुपातिक प्रतिनिधान प्रणाली के पक्ष और विपक्ष में बहुत से तर्क वितर्क दिए जा सकते हैं। इसमें तो संदेह नहीं कि सैद्वांतिक तथा व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रणाली यदि यथार्थ रूप में लागू की जाए तो अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त कर सकती है। निस्संदेह यह समाज के सभी प्रमुख समूहों (ग्रूप्स) के प्रतिनिधित्व की रक्षा करती है। ऐसे देशों में जहाँ जातीय तथा सामाजिक अल्पसंख्यक समूह हैं, इस प्रणाली का विशेष महत्व है।

आलोचकों का यह कथन कि यह प्रणाली उलझी हुई है, कुछ तर्कयुक्त नहीं प्रतीत होता। प्रथम तो यह प्रणाली स्वयं ही एक प्रकार की राजनीतिक शिक्षा का साधन है, और जहाँ तक उलझन तथा विषमता का प्रश्न है, उसको निपुण तथा सुयोग्य अधिकारी की नियुक्ति से दूर किया जा सकता है। आनुपातिक प्रतिनिधान की एक आलोचना यह भी है कि यह राजनीतिक दलों की संख्या में वृद्धि को प्रोत्साहन देती है, परिणामस्वरूप संसद् में किसी एक दल का बहुसंख्यक होना कठिन हो जाता है, जिससे अधिकांश मंत्रिमंडल संयुक्तदलीय तथा फलस्वरूप अस्थायी होते हैं। परंतु बेलजियम तथा स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों के राजनीतिक अनुभवों से यह तर्क निराधार प्रतीत होता है, क्योंकि किसी देश की राजनीतिक दलपद्धति इतनी उस देश की निर्वाचनपद्धति पर निर्भर नहीं करती जितनी उस देश की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, जातीय, भाषा संबंधी तथा राजनीतिक परिस्थितियों पर।[१]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-कामन्स, जे.आर. : प्रोपोर्शनल रिप्रेज़ेंटेशन; फिनर, एच. : द केस अर्गेस्ट पी.आर.; होग, सी. जीऐंड तथा जी.एच. हैलेट : प्रोपोर्शनल रिप्रेज़ेंटेशन; हारविल, जी.पी.आर. : रिप्रेज़ेटेशन, इट्स डेंजर्स ऐंड डिफ़ेक्ट्स; हमफ्रीज़, जे.एच. : प्रोपोर्शनल रिप्रेज़ेंटेशन।