"उपासना": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
('{{लेख सूचना |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |पृष्ठ स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
No edit summary
 
(इसी सदस्य द्वारा किए गए बीच के २ अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति १: पंक्ति १:
{{भारतकोश पर बने लेख}}
{{लेख सूचना
{{लेख सूचना
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पंक्ति १५: पंक्ति १६:
|टिप्पणी=
|टिप्पणी=
|शीर्षक 1=लेख सम्पादक
|शीर्षक 1=लेख सम्पादक
|पाठ 1=गोलोकविहारी धल
|पाठ 1=बलदेव उपाध्याय
|शीर्षक 2=मोतीचंद्र
|शीर्षक 2=मोतीचंद्र
|पाठ 2=
|पाठ 2=
पंक्ति २२: पंक्ति २३:
|अद्यतन सूचना=
|अद्यतन सूचना=
}}  
}}  
'''उपासना''' परमात्मा की प्राप्ति का साधनविशेष। 'उपासना' का शब्दार्थ है अपने इष्टदेवता की समीप (उप) स्थिति या बैठना (आसन)। आचार्य शंकर की व्याख्या के अनुसार 'उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं' (गीता 12।3 पर शांकर भाष्य)। उपासना के लिए व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों आधार मान्य हैं, परंतु अव्यक्त की उपासना में अधिकतर क्लेश होता है और इसीलिए गीता (12।5) व्यक्तोपासना को सुलभ, सद्य: फलदायक तथा सुबोध मानती है। जीव वस्तुत: शिव ही है, परंतु अज्ञान के कारण वह इस प्रपंच के पचड़े में पड़कर भटकता फिरता है। अत: ज्ञान के द्वारा अज्ञान की ग्रंथि का उन्मोलन कर स्वशक्ति की अभिव्यक्ति करना ही उपासना का लक्ष्य है जिससे जीव की दु:ख प्रपंच से सद्य: मुक्ति संपन्न होती है (अज्ञान ग्रंथिभिदा स्वशक्त्याभिव्यक्तता मोक्ष:-परमार्थसार, कारिका 60)साधारणतया दो मार्ग उपदिष्ट हैं-ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग। ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर जब परमतत्व का साक्षात्कार संपन्न होता है, तब उस उपासना को ज्ञानमार्गीय संज्ञा दी जाती है। भक्तिमार्ग में भक्ति ही भगवान्‌ के साक्षात्कार का मुख्य साधन स्वीकृत की जाती है। भक्ति ईश्वर में सर्वश्रेष्ठ अनुरक्ति (सा परानुरक्तिरीश्वरे-शांडिल्यसूत्र) है। सर्वसाधारण के लिए ज्ञानमार्गी कठिन, दुर्गम तथा दुर्बोध होता है (क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्‌ कवयो वदन्ति-कठ. 1।3।14)भागवत (10।14।4) ने ज्ञानमार्गीय अपासना को भूसा कूटने के समान विशेष क्लेशदायक बतलाया है। अधिकारी भेद से दोनों ही मार्ग उपादेय तथा स्वतंत्र रूप से फल देनेवाले हैं।
'''उपासना''' परमात्मा की प्राप्ति का साधनविशेष। 'उपासना' का शब्दार्थ है अपने इष्टदेवता की समीप (उप) स्थिति या बैठना (आसन)। आचार्य शंकर की व्याख्या के अनुसार 'उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं'<ref> (गीता 12।3 पर शांकर भाष्य)</ref>। उपासना के लिए व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों आधार मान्य हैं, परंतु अव्यक्त की उपासना में अधिकतर क्लेश होता है और इसीलिए गीता<ref>(12।5)</ref> व्यक्तोपासना को सुलभ, सद्य: फलदायक तथा सुबोध मानती है। जीव वस्तुत: शिव ही है, परंतु अज्ञान के कारण वह इस प्रपंच के पचड़े में पड़कर भटकता फिरता है। अत: ज्ञान के द्वारा अज्ञान की ग्रंथि का उन्मोलन कर स्वशक्ति की अभिव्यक्ति करना ही उपासना का लक्ष्य है जिससे जीव की दु:ख प्रपंच से सद्य: मुक्ति संपन्न होती है।<ref>(अज्ञान ग्रंथिभिदा स्वशक्त्याभिव्यक्तता मोक्ष:-परमार्थसार, कारिका 60)</ref> साधारणतया दो मार्ग उपदिष्ट हैं-ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग। ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर जब परमतत्व का साक्षात्कार संपन्न होता है, तब उस उपासना को ज्ञानमार्गीय संज्ञा दी जाती है। भक्तिमार्ग में भक्ति ही भगवान्‌ के साक्षात्कार का मुख्य साधन स्वीकृत की जाती है। भक्ति ईश्वर में सर्वश्रेष्ठ अनुरक्ति (सा परानुरक्तिरीश्वरे-शांडिल्यसूत्र) है। सर्वसाधारण के लिए ज्ञानमार्गी कठिन, दुर्गम तथा दुर्बोध होता है।<ref>(क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्‌ कवयो वदन्ति-कठ. 1।3।14)</ref> भागवत<ref>(10।14।4)</ref> ने ज्ञानमार्गीय अपासना को भूसा कूटने के समान विशेष क्लेशदायक बतलाया है। अधिकारी भेद से दोनों ही मार्ग उपादेय तथा स्वतंत्र रूप से फल देनेवाले हैं।


उपासना में गुरु की बड़ी आवश्यकता है। गुरु के उपदेश के अभाव में साधक अकर्णधार नौका के समान अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने में कथमपि समर्थ नहीं हाता। गुरु 'दीक्षा' के द्वारा शिष्य में अपनी शक्ति का संचार करता है। दीक्षा का वस्तविक अर्थ है उस ज्ञान का दान जिससे जीवन का पशुत्वबंधन कट जाता है और वह पाशों से मुक्त होकर शिवत्व प्राप्त कर लेता है। अभिनवगुप्त के अनुसार दीक्षा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है :
उपासना में गुरु की बड़ी आवश्यकता है। गुरु के उपदेश के अभाव में साधक अकर्णधार नौका के समान अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने में कथमपि समर्थ नहीं हाता। गुरु 'दीक्षा' के द्वारा शिष्य में अपनी शक्ति का संचार करता है। दीक्षा का वस्तविक अर्थ है उस ज्ञान का दान जिससे जीवन का पशुत्वबंधन कट जाता है और वह पाशों से मुक्त होकर शिवत्व प्राप्त कर लेता है। अभिनवगुप्त के अनुसार दीक्षा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है :
पंक्ति २८: पंक्ति २९:
दीयते ज्ञानसद्भाव: क्षीयते पशुबंधना।
दीयते ज्ञानसद्भाव: क्षीयते पशुबंधना।


दान-क्षपणासंयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता।।
दान-क्षपणासंयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता।।<ref>(तंत्रालोक, प्रथम खंड, पृ. 83)</ref>
 
(तंत्रालोक, प्रथम खंड, पृ. 83)


श्रीवैष्णवों की उपासना पाँच प्रकार की मानी गई है-अभिगमन (भगवान के प्रति अभिमुख होना), उपादान (पूजार्थ सामग्री), इज्या (पूजा), स्वाध्याय (आगम ग्रंथों का मनन) तथा योग (अष्टांग योग का अनुष्ठान)।  
श्रीवैष्णवों की उपासना पाँच प्रकार की मानी गई है-अभिगमन (भगवान के प्रति अभिमुख होना), उपादान (पूजार्थ सामग्री), इज्या (पूजा), स्वाध्याय (आगम ग्रंथों का मनन) तथा योग (अष्टांग योग का अनुष्ठान)।  

०५:३६, ८ जुलाई २०१८ के समय का अवतरण

चित्र:Tranfer-icon.png यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें
लेख सूचना
उपासना
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 125
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बलदेव उपाध्याय

उपासना परमात्मा की प्राप्ति का साधनविशेष। 'उपासना' का शब्दार्थ है अपने इष्टदेवता की समीप (उप) स्थिति या बैठना (आसन)। आचार्य शंकर की व्याख्या के अनुसार 'उपास्य वस्तु को शास्त्रोक्त विधि से बुद्धि का विषय बनाकर, उसके समीप पहुँचकर, तैलधारा के सदृश समानवृत्तियों के प्रवाह से दीर्घकाल तक उसमें स्थिर रहने को उपासना कहते हैं'[१]। उपासना के लिए व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों आधार मान्य हैं, परंतु अव्यक्त की उपासना में अधिकतर क्लेश होता है और इसीलिए गीता[२] व्यक्तोपासना को सुलभ, सद्य: फलदायक तथा सुबोध मानती है। जीव वस्तुत: शिव ही है, परंतु अज्ञान के कारण वह इस प्रपंच के पचड़े में पड़कर भटकता फिरता है। अत: ज्ञान के द्वारा अज्ञान की ग्रंथि का उन्मोलन कर स्वशक्ति की अभिव्यक्ति करना ही उपासना का लक्ष्य है जिससे जीव की दु:ख प्रपंच से सद्य: मुक्ति संपन्न होती है।[३] साधारणतया दो मार्ग उपदिष्ट हैं-ज्ञानमार्ग तथा भक्तिमार्ग। ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश कर जब परमतत्व का साक्षात्कार संपन्न होता है, तब उस उपासना को ज्ञानमार्गीय संज्ञा दी जाती है। भक्तिमार्ग में भक्ति ही भगवान्‌ के साक्षात्कार का मुख्य साधन स्वीकृत की जाती है। भक्ति ईश्वर में सर्वश्रेष्ठ अनुरक्ति (सा परानुरक्तिरीश्वरे-शांडिल्यसूत्र) है। सर्वसाधारण के लिए ज्ञानमार्गी कठिन, दुर्गम तथा दुर्बोध होता है।[४] भागवत[५] ने ज्ञानमार्गीय अपासना को भूसा कूटने के समान विशेष क्लेशदायक बतलाया है। अधिकारी भेद से दोनों ही मार्ग उपादेय तथा स्वतंत्र रूप से फल देनेवाले हैं।

उपासना में गुरु की बड़ी आवश्यकता है। गुरु के उपदेश के अभाव में साधक अकर्णधार नौका के समान अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचने में कथमपि समर्थ नहीं हाता। गुरु 'दीक्षा' के द्वारा शिष्य में अपनी शक्ति का संचार करता है। दीक्षा का वस्तविक अर्थ है उस ज्ञान का दान जिससे जीवन का पशुत्वबंधन कट जाता है और वह पाशों से मुक्त होकर शिवत्व प्राप्त कर लेता है। अभिनवगुप्त के अनुसार दीक्षा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है :

दीयते ज्ञानसद्भाव: क्षीयते पशुबंधना।

दान-क्षपणासंयुक्ता दीक्षा तेनेह कीर्तिता।।[६]

श्रीवैष्णवों की उपासना पाँच प्रकार की मानी गई है-अभिगमन (भगवान के प्रति अभिमुख होना), उपादान (पूजार्थ सामग्री), इज्या (पूजा), स्वाध्याय (आगम ग्रंथों का मनन) तथा योग (अष्टांग योग का अनुष्ठान)।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (गीता 12।3 पर शांकर भाष्य)
  2. (12।5)
  3. (अज्ञान ग्रंथिभिदा स्वशक्त्याभिव्यक्तता मोक्ष:-परमार्थसार, कारिका 60)
  4. (क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्ग पथस्तत्‌ कवयो वदन्ति-कठ. 1।3।14)
  5. (10।14।4)
  6. (तंत्रालोक, प्रथम खंड, पृ. 83)