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इंद्राणी
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 500 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भोलानाथ शर्मा उपाध्याय |
इंद्राणी देवराज इंद्र की पत्नी जिसके दूसरे नाम शची और पौलोमी भी हैं। ऋग्वेद की देवियों में वह प्रधान हैं, इंद्र को शक्ति प्रदान करने वाली, स्वयं अनेक ऋचाओं की ऋषि। शालीन पत्नी की वह मर्यादा और आदर्श है और गृह की सीमाओं में उसकी अधिष्ठात्री। उस क्षेत्र में वह विजयिनी और सर्वस्वामिनी है और अपनी शक्ति की घोषणा वह ऋग्वेद कें मंत्र (10, 159, 2) में इस प्रकार करती है--अहं केतुरहं मूर्धा अहमुग्राविवाचिनी--मैं ही विजयिनी ध्वजा हूँ, मैं ही ऊँचाई की चोटी हूँ, मैं ही अनुल्लंघनीय शासन करनेवाली हूँ। ऋग्वेद के एक अत्यंत सुंदर और शक्तिम सूक्त (10, 159) में वह कहती है कि 'मैं असपत्नी हूँ, सपत्नियों का नाश करनेवाली हूँ, उनकी नश्यमान शालीनता के लिऐ ग्रहणस्वरूप हूँ-उन सपत्नियों के लिए जिन्होंने मुझे कभी ग्रसना चाहा था'; उसी सूक्त में वह कहती है कि मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं और मेरी कन्या महती है-मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो में दुहिता विराट्।
टीका टिप्पणी और संदर्भ