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येनानुष्ठितमात्रेण शीघ्रं देवी प्रसीदति ।। <ref>शब्दकल्पद्रुम, पृ. १४६</ref></poem> | येनानुष्ठितमात्रेण शीघ्रं देवी प्रसीदति ।। <ref>शब्दकल्पद्रुम, पृ. १४६</ref></poem> | ||
कुमारी के चुनाव में वर्णावस्था का शैथिल्य भी इस पूजन के ऊपर भारतेतर प्रभाव का सूचक माना जा सकता है। | कुमारी के चुनाव में वर्णावस्था का शैथिल्य भी इस पूजन के ऊपर भारतेतर प्रभाव का सूचक माना जा सकता है। | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
१३:३८, १७ फ़रवरी २०१४ के समय का अवतरण
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कुमारीपूजन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 69-70 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बलदेव उपाध्याय |
कुमारीपूजन शक्तिसाधना का एक अनिवार्य अंग है। इस अनुष्ठान में कुमारियों का षोडशोपचार पूजन शक्ति के रूप में किया जाता है। कुमारी के स्वरुप के विषय में शाक्त तांत्रिक स्मृतिकारों से भिन्न मत रखते हैं। स्मृति के अनुसार अष्टवर्षीया बालिका को गौरी दशवर्षीया को कन्यका तथा द्वादशवर्षीया को कुमारी कहते हैं।
तांत्रिका के मत में कुमारी का मुख्य लक्षण अजात पुष्पत्व (रजस्वला न होना) है और इसलिए अजातपुष्पा बालिका षोडश वर्ष के वयतक कुमारी ही मानी जाती है। वयोभेद से कुमारी का नामभेद होता है एक वर्षीया कुमारी को स्ध्याां कहते हैं द्विवर्षया को सरस्वती, त्रिवर्षीया को त्रिधामूर्ति, चतुर्वर्षीया को कालिका पंचवर्षीय को सुभागा और इसी प्रकार वय में एक एक वर्ष की वृद्धि होने पर क्रमश: उसे उमा, मालिनी, कुब्जिका, कानसंकर्षा अपराजिता, रूद्राणी भैरवी महालक्ष्मी, पीठनायिका, क्षेत्रज्ञा तथा षोडशवर्षी को बन्नदा कहते हैं। तंत्र का प्रमाणिक वचन है : एवं क्रमेण संपूज्या यावत पुष्पं न जायते।
कुमारीपूजन में जातिभेद का विचार नहीं किया जाता। किसी भी जाति की कुमारी पूजन के लिए ग्रजण की जा सकती है :
तस्मात् पूजयेद्बाला सर्वजातिसमुभ्दवाम् ।
जातिभेदो न कर्त्तव्य: कुमारीपूजने शिवे ।।[१]
कुमारीपूजन से पहले षडंगन्यास करने का विधान है जैसा तांत्रिक पूजन में नियमत: किया जाता है। प्रथमत: परिकर देवता का पूजन नितांत आवश्यक होता है। अभीष्ट परिकर देवता के नामये हैं-सूर्य, चंद्रमा, दश दिक्पाल वीरभद्रा, कौलिनी, अष्टादशभुजा, काली तथा चंड, दुर्गा। इस पूजा के अनंतर कुमारी का विधिवत् पूजन सोलहों उपचारों से करना चाहिए । साधक का कर्तव्य है कि वह कुमारी में सामान्य मानवी की कल्पना न कर उसे देवी की प्रतिमूर्ति माने और कुमारी में देवी की पूर्ण आंतरिक भावना रखे। अंत में उसे कुलद्रव्य अर्थात मध्य शराब तथा पंचतत्व का समर्पण साधक को भक्तिगद्गद् हृदय से करना पड़ता हैं और इस मंत्र से कुमारी को अंतिम नमस्कार भेंट किया जाता
नमामि कुलकामिनीं परमभाग्यसंदाय
कुमाररतिचातुरीं सरलसिद्विमानंदनीम् ।
प्रवालगुटिकास्रजं रजतरागवस्त्रन्विता
हिरण्यसमभूषणां भुवनवाक्कुमारीं भजें ।।
पूजा के लिए पवित्र तिथियाँ हैं अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा संक्रांति । पूजा की सामग्री में वस्त्र अलंकरण, भेज्य, भोक्ष्य, पंचतत्व तथा कुलद्रव्य की गणना है। अन्नदाकल्प का कथन है कि कुमारी में देवीबुद्धि से पूजन करने पर ही साधक का परम मंगल होता है, अन्यथा नहीं।
इस पूजन का प्रचार महाचीन (तिब्बत) से आरंभ हुआ। अन्नदाकल्प का यह वचन प्रमाण रूप में उद्धृत किया जा सकता है
अथान्यत् साधनं वक्ष्ये महाचीनक्रमोद्भवम्
येनानुष्ठितमात्रेण शीघ्रं देवी प्रसीदति ।। [२]
कुमारी के चुनाव में वर्णावस्था का शैथिल्य भी इस पूजन के ऊपर भारतेतर प्रभाव का सूचक माना जा सकता है।