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११:५६, ३ सितम्बर २०११ के समय का अवतरण

लेख सूचना
कुशीनगर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 76
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक चंद्रभान पांडे

कुशीनगर उत्तरी भारत का एक प्राचीन नगर तथा मल्ल गण की राजधानी। यह उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में स्थित है और कसया नाम से प्रचलित है। दीघनिकाय में इस नगर को कुशीनारा कहा गया है। [१]कुशीनगर अथवा कुशीनारा के पूर्व का नाम कुशावती था। कुशीनारा के निकट एक सरिता हिरञ्ञ्वाती (हिरण्यवती) का बहना बताया गया है। इसी के किनारे मल्लों का शाल वन था। यह नदी आज की छोटी गंडक है जो बड़ी गंडक से लगभग आठ मील पश्चिम बहती है और सरयू में आकर मिलती है। बुद्ध को कुशीनगर से राजगृह जाते हुए ककुत्था नदी को पार करना पड़ा था। आजकल इसे बरही नदी कहते हैं और यह कसया (कुशीनगर) से आठ मील की दूरी पर बहती है।

बुद्ध के कथनानुसार यह पूर्वपश्चिम में १२ योजन लंबा तथा उत्तरदक्षिण में ७ योजन चौड़ा था। किंतु राजगृह, वैशाली अथवा श्रावस्ती नगरों की भाँति यह बहुत बड़ा नगर नहीं था। यह बुद्ध के शिष्य आनंद के इस वाक्य से पता चलता है-अच्छा हो कि भगवान की मृत्यु इस क्षुद्र नगर के जंगलों के बीच न हो। भगवान बुद्ध जब अंतिम बार रुग्ण हुए तब शीघ्रतापूर्वक कुशीनगर से पावा गए किंतु जब उन्हें लगा कि उनका अंतिम क्षण निकट आ गया है तब उन्होंने आनंद को कुशीनारा भेजा। कुशीनारा के संथागार में मल्ल अपनी किसी सामाजिक समस्या पर विचार करने के लिये एकत्र हुए थे। संदेश सुनकर वे शालवन की ओर दौड़ पड़े जहाँ बुद्ध जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहे थे। मृत्यु के पश्चात्‌ वहीं तथागत की अंत्येष्टि क्रिया चक्रवर्ती राजा की भाँति की गई। बुद्ध के अवशेष के अपने भाग पर कुशीनगर के मल्लों ने एक स्तूप खड़ा किया।

कसया गाँव के इस स्तूप से ताम्रपत्र प्राप्त हुआ है, जिसमें उसे परिनिर्वाण चैत्याम्रपट्ट कहा गया है। अत: इसके तथागत के महापरिनिर्वाण स्थान होने में कोई संदेह नहीं है।

कुशीनगर की उन्नति मौर्य युग में विशेष रूप से हुई। किंतु उत्तर मौर्यकाल में इस नगर की महत्ता कम हो गई। गुप्तयुग में इस नगर ने फिर अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त किया। चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के काल में यहाँ अनेक विहारों और मंदिरों का निर्माण हुआ। गुप्त शासकों ने यहाँ जीर्णोद्वार कार्य भी कराए। खुदाई से प्राप्त लेखों से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त (प्रथम) (४१३-४१५ ई.) के समय हरिबल नामक बौद्ध भिक्षु ने भगवान्‌ बुद्ध की महापरिनिर्वाणावस्था की एक विशाल मूर्ति की स्थापना की थी और उसने महापरिनिर्वाण स्तूप का जीर्णोद्वार कर उसे ऊँचा भी किया था और स्तूप के गर्भ में एक ताँबे के घड़े में भगवान की अस्थिधातु तथा कुछ मुद्राएँ रखकर एक अभिलिखित ताम्रपत्र से ढककर स्थापित किया था। गुप्तों के बाद इस नगर की दुर्दशा हो गई। प्रसिद्ध चीनी यात्री हुएन्त्सांग ने इसकी दुर्दशा का वर्णन किया है। वह लिखता है: इस राज्य की राजधानी बिल्कुल ध्वस्त हो गई है। इसके नगर तथा ग्राम प्राय: निर्जन और उजाड़ है, पुरानी ईटोंं की दीवारों का घेरा लगभग १० ली रह गया है। इन दीवारों की केवल नीवें ही रह गई हैं। नगर के उत्तरीपूर्वी कोने पर सम्राट् अशोक द्वारा बनवाया एक स्तूप है। यहाँ पर ईटोंं का विहार है जिसके भीतर भगवान्‌ के परिनिर्वाण की एक मूर्ति बनी है। सोते हुए पुरुष के समान उत्तर दिशा में सिर करके भगवान्‌ लेटे हुए है। विहार के पास एक अन्य स्तूप भी सम्राट् अशोक का बनवाया हुआ है। यद्यपि यह खंडहर हो रहा है, तो भी २०० फुट ऊँचा है। इसके आगे एक स्तंभ है जिसपर तथागत के निर्वाण का इतिहास है। ११वीं-१२वीं शताब्दी में कलचुरी तथा पाल नरेशों ने इस नगर की उन्नति के लिए पुन: प्रयास किया था, यह माथाबाबा की खुदाई में प्राप्त काले रंग के पत्थर की मूर्ति पर उत्कीर्ण लेख से ध्वनित होता है।



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दीघनिकाय २।१६५