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लेख सूचना
कुषाण
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 81-82
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक रेटेशन, नीलकंठ शास्त्री, लोह्माइजेन डेल्यू, स्टेन कोनो, मजुमदार और पुसालकर
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
स्रोत रेटेशन : केंब्रिज हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग १; नीलकंठ शास्त्री : एक कांप्रिहेंसिव हिस्ट्री ऑव इंडिया, भाग २; लोह्माइजेन डेल्यू : दि इंडोसीथियन पीरियड ऑव इंडियन हिस्ट्री; स्टेन कोनो : कारपस इंस्क्रिप्शन इंडीकेरम, भाग २ ; मजुमदार और पुसालकर : दि एज ऑव इंपीरियल यूनिटी।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बैजनाथ पुरी

कुषाण एक विदेशी राजवंश, जिसने अफगानिस्तान से वाराणसी तक (कुछ लोगों के मतानुसार गया तथा पटना तक) की भारत भूमि पर राज किया। ई. पू. दूसरी शताब्दी में यूची नामक एक जाति तुन हुवांग और कि लिअन के मध्य, हवांग हो नदी के पश्चिम में कांसू और निगसिया में रहती थी। हिउंग-नू (हूण) नामक लड़ाकू जाति से पराजित होने पर वे लोग पश्चिम की ओर बढ़े और शक जातियों के साथ संघर्ष करते हुए ह्यिमन-शान पहुँचे। लगभग १३० ई. पू. कीवूसून नामक एक दूसरी लड़ाकू जाति ने यूचियों को हराकर उन्हें और पश्चिम की ओर जाने को बाध्य किया। चीनी सम्राट् की ओर से ता-हिया (बाख्त्री) आए हुए राजदूत चांग-किएन ने ई.पू.१२६ में यूचियों को वृक्ष नदी के उत्तर की घाटी में पाया था। ता-हिया पर अधिकार कर ये वहीं बस गए। समझा जाता है कि युचियों का एक कबीला क्वाइ-शुआंग (अथवा कुषाण) था जिसकी राजधानी पो-मो थी, किंतु कलिग्रेन और कोनो का मत है कि कुषाण यूची नहीं वरन शक थे। उनके मतानुसार कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के सिक्कों पर जो लेख अंकित है उनकी भाषा शक है और लुडविग बेकोफर ने भी सिक्कों पर अंकित कुषाण सम्राटों की वेशभूषा तथा शस्त्रों से उन्हें शकों के निकट रखा है। मेनशेन हेलफेन के मतानुसार कुषाण यूची लोगों के सामंत थे।

क्वाइ-शुआंग (कुषाण) के सरदार क्यू-तिस्यू-किओ ने यूचियों के अन्य चार कबीलों को मार भगाया और स्वयं सम्राट, बन बैठा। उसने आड सि पर आक्रमण कर काओ-फु पर अधिकार किया, फिर पुंता तथा किपिन को जीता। ८० वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हुई और उसके बाद उसका पुत्र येन-काओचेन सम्राट हुआ। उसने तियन-यू (भारत) को जीता और वहाँ राज्य करने के लिए अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया। इस समय के कुषाण बहुत बलवान्‌ हो गए।

भारतीय सिक्कों तथा लेखों से ज्ञात होता है कि कुषाणों के दो अथवा तीन वंशों ने भारत में राज किया। प्रथम वंश के सम्राटों में कुजुल कथफिस तथा उसके पुत्र विमकथफिस थे जिनकी पहचान चीनी क्षेत्र के क्यू-तिस्यू- किओ तथा येन-काओ-चेन से क्रमश: की जाती है। दूसरे कुषाण वंश के राजा कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव थे। इनके अतिरिक्त कनिष्क और वासुदेव नामक परवर्ती राजाओं के सिक्के मिले हैं जिनसे ज्ञात होता हे कि इस नाम के एक से अधिक राजा हुए। पंजतार से प्राप्त एक लेख में महाराज घुषण और तक्षशिला से प्राप्त एक दूसरे लेख में महाराजस राजातिराजस देवपुत्र खुषाणस का उल्लेख है। इन दोनों में सम्राट् का नाम नहीं मिलता। इनकी तिथि के विषय में विद्वानों में विभिन्न मत हैं, पर प्राय: इनपर अंकित तिथि को विक्रम अथवा अयस्‌ द्वारा चलाए ५८ ई. पू. वाला संवत्‌ मानकर इनकी तिथि क्रमश: ४४ और ७८ ई. मानी जाती है। इन दोनों लेखों का संबंध प्रथम कुषाण वंश के कुजुल कथफिस से जान पड़ता है। खलात्से (लेह) से प्राप्त एक लेख में उविम-कथफिस का उल्लेख है। यदि यह मत मान लिया जाए तो इस लेख में अंकित संवत्‌ १८७ के अनुसार विम-कथफिस की तिथि (१८७-५७ ५८) १३९-३० ई. होगी। इसलिए तक्षशिला के संवत्‌ १३६ के लेख के कुषाण सम्राट् को कुजुल कथफिस अनुमान करना होगा, अन्यथा वित-कथफिस का शासनकाल लगभग ६० वर्ष रखना होगा। किंतु चीनी कथन के अनुसार उसका पिता ८० वर्ष की आयु तक जीवित रहा। इसको ध्यान में रखते हुए यह मानना संभव नहीं है। कुछ विद्वान कुजुल तथा विम-कथफिस को शासनकाल ४४-७८ ई. के बीच रखते हैं और ७८ ई. में कनिष्क का अभिषेक तथा उसके द्वारा चलाए हुए शक संवत का आरंभ मानते हैं, किंतु यह विषय विवादास्पद है।

तक्षशिला से प्राप्त सं. १९१ के लेख में जिहोणिक का उल्लेख है जिसकी समानता जियोनिसस से, जिसके सिक्के भी मिले हैं, की गई है। इसके लेख के आधार पर (१९१-५७) १३४ ई. में तक्षशिला में जिहोणिक अथवा जियोनिसस राज्य कर रहा था। यदि कनिष्क को शक-संवत्‌-निर्माता मानें तो मानना पड़ेगा कि उसके पुत्र हुविष्क का राज्य, वरधाक के सं. ५४ के लेख के अनुसार (७८+५४) १३२ ई. में अफगानिस्तान तक फैला था और उसने संवत्‌ ६० तक राज किया। इस प्रकार एक ही समय में दो राजाओं का एक ही क्षेत्र पर अधिकार असंभव है। अत: न तो यही कहा जा सकता है कि ४४-७८ ई. के मध्यकाल में प्रथम कुषाण वंश के दोनों राजाओं ने राज किया और न इस बात से ही सहमत हुआ जा सकता है। कि इनके और कनिष्क के बीच में कोई अंतर न था और कनिष्क ने ७८ ई. से राज्य करना आरंभ किया और अपना संवत्‌ चलाया। संभवत: कनिष्क का कथफिस वंश से कोई संबंध न था, यद्यपि दोनों कुषाण थे।

कनिष्क के वंश में उसके बाद वाशिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव ने क्रमश: २४-२८, २८-६०, ८७-९९ वर्ष तक राज किया। आरा (अफगानिस्तान) से प्राप्त लेख में महाराज राजाधिराज देवपुत्र कैंसर कनिष्क का उल्लेख है जो वजिष्क का पुत्र था और सं. ४१ में राज कर रहा था। स्टेन कोनो के मतानुसार कनिष्क के बाद साम्राजय के दो भाग हो गए। उत्तरपश्चिम में वाशिष्क अथवा वाजिष्क और उसके पुत्र कनिष्क (आरा लेख) ने राज किया और मध्यपूर्वीय भाग हुविष्क को मिला। कनिष्क के बाद दोनों पर हुविष्क का अधिकार हो गया। राखालदास बनर्जी तथा कुछ अन्य विद्वान आरा के लेख के कनिष्क को सम्राट कनिष्क प्रथम कहते रहे हैं। इधर अफगानिस्तान से कनिष्क के सं. ३१ का यूनानी भाषा में एक लेख मिला है जिसने कुषाण शासक और उनकी तिथि की समस्या को उलझा दिया है। अत: कनिष्क के वंश ने कब से कब तक शासन किया निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। उनका समय प्रथम से तृतीय शती के बीच अनुमान ही किया जा सकता है।

कनिष्क के वंश के बाद एक अन्य कुषाण वंश के राजाओं ने राज किया जिन्हें कनिष्ठ कुषाण कहा गया है। इनके सिक्कों में केवल कनिष्क और वसु अथवा वासुदेव का उल्लेख है। मथुरा में मिले एक लेख में कुषाणपुत्र का उल्लेख है और इसकी लिखावट के बहुत से अक्षर गुप्तकालीन आरंभिक लेखों से मिलते-जुलते हैं। सम्राट, समुद्रगुप्त की इलाहाबाद प्रशस्ति में भी देवपुत्रषाहि षाहानुषाहि राजाओं का उल्लेख है जिनसे कुषाणों का संकेत मिलता है। कुषाणों के वंशज गुप्त साम्राज्य की स्थापना तक कहीं-कहीं अपना अस्तित्व बनाए हुए थे।


टीका टिप्पणी और संदर्भ