"कृष्णाष्टमी": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (श्रेणी:संस्कृति कोश; Adding category Category:हिन्दू धर्म (Redirect Category:हिन्दू धर्म resolved) (को हटा दिया गया हैं।)) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
||
पंक्ति १: | पंक्ति १: | ||
{{भारतकोश पर बने लेख}} | |||
{{लेख सूचना | {{लेख सूचना | ||
|पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 | |पुस्तक नाम=हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
०८:४८, १ अगस्त २०१५ के समय का अवतरण
चित्र:Tranfer-icon.png | यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें |
कृष्णाष्टमी
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 112 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | बलदेव उपाध्याय |
कृष्णाष्टमी हिंदुओं का एक पवित्र पर्व जो भाद्रपद के कृष्णपक्ष की अष्टमी को भगवान श्रीकृष्ण के जन्म के उत्सवस्वरूप मनाया जाता है। श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्णाष्टमी बुधवार को रोहिणी नक्षत्र में अर्धरात्रि के समय वृष के चंद्रमा में हुआ था।
जन्माष्टमी के कालनिर्णय के विषय में पर्याप्त मतभेद दृष्टिगोचर होता है अत: उपासक अपने मनोनुकूल अभीष्ट योग का ग्रहण करते हैं। शुद्धा और बिद्धा, इसके दो भेद धर्मशास्त्र में बतलाए गए हैं। सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय पर्यंत यदि अष्टमी तिथि रहती है, तो वह शुद्धा मानी जाती है। सप्तमी या नवमी से संयुक्त होने पर वह अष्टमी बिद्धा कही जाती है। शुद्धा या बिद्धा भी समा, न्यूना या अधिका के भेद से तीन प्रकार की है। इन भेदों में तत्काल व्यापिनी (अर्धरात्रि में रहनेवाली) तिथि अधिक मान्य होती है। कृष्ण का जन्म अष्टमी की अर्धरात्रि में हुआ था; इसीलिये लोग उस काल के ऊपर अधिक आग्रह रखते हैं। वह यदि दो दिन हो या दोनों ही दिन न हो, तो सप्तमीबिद्धा को सर्वथा छोड़कर नवमीबिद्धा का ही ग्रहण मान्य होता है। कतिपय वैष्णव रोहिणी नक्षत्र होने पर ही जन्माष्टमी का ्व्रात रखते हैं।
अष्टमी को उपवास रखकर पूजन करने का विधान है तथा नवमी को पारण से ्व्रात की समाप्ति होती है। उपासक मध्य्ह्रा में काले तिल मिले जल से स्नान कर देवकी जी के लिये सूतिकागृह नियत कर उसे प्रसूति की उपयोगी सामग्री से सुसज्जित करते हैं। इस गृह के शोभन भाग में मंच के ऊपर कलश स्थापित कर सोने, चाँदी आदि धातु अथवा मिट्टी के बने श्रीकृष्ण को स्तनपान कराती देवकी की मूर्ति स्थापित की जाती है। मूर्ति में लक्ष्मी देवकी का चरण स्पर्श करती होती हैं। अनंतर षोडश उपचारों से देवकी, वसुदेव, बलदेव, श्रीकृष्ण, नंद, यशोदा और लक्ष्मी का विधिवत् पूजन होता है। पूजन के अंत में देवकी को इस मंत्र से अर्ध्य प्रदान किया जाता है।
प्रणमे देवजननीं त्वया जातस्तु वामन:।
वसुदेवात् तथा कृष्णो नमस्तुभ्यं नमोनम: ;
सपुत्रार्ध्य प्रदत्तं मे गृहाणेयं नमोऽस्तुते।।
भक्त श्रीकृष्ण के नालछेदन आदि आवश्यक कृत्यों का संपादन कर चंद्रमा को अर्ध्य दे तथा शेष रात्रि को भगवत का पाठ करते हैं। दूसरे दिन पूर्ब्ह्रा में स्नान कर, अभीष्ट तिथि या नक्षत्र के योग सामप्त होने पर पारण होता है। जन्माष्टमी मोहरात्रि के नाम से भी प्रख्यात है और उस रात को जागरण करने का विधान है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ