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०६:२०, ४ मई २०१२ का अवतरण
मधुमक्खी पालन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 8 |
पृष्ठ संख्या | 135-136 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1967 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | आनंदस्वरूप श्रीवास्तव |
संसार के प्रत्येक देश में मधुमक्खी के अलग अलग नाम भारत में भी लोग इसको भिन्न भिन्न नामों से जानते हैं, जैसे मधुमक्खी, शहद की मक्खी आदि।
मधुमक्खी पालन
गोपालन एवं मुर्गी पालन की तरह मधुमक्खी पालन भी एक धंधा हो गया है। पश्चिम में इस धंधे ने व्यवसाय का रूप ले लिया है। वहाँ अनेक बड़े बड़े मधुमक्षिकालय स्थापित हो चुके हैं। वहाँ के लोग लाखों रुपया प्रति वर्ष इस धंधे से कमा रहे है और करोड़ों रुपए का लाभ निषेचन क्रिया द्वारा अपने देश को, कृषि उत्पादन की वृद्धि के रूप में, दे रहे र्है।
भारत में सैकड़ों वर्ष पहले जिस प्रकार से मधुमक्खियाँ पाली जाती थीं, ठीक उसी तरह से हम उन्हें आज भी पालते आ रहे हैं। पुराने ढंग से मिट्टी के घड़ों में, लकड़ी के संदूकों में, पेड़ के तनों के खोखलों में, या दीवार की दरारों में, हम आज भी मधुमक्खियों को पालते हैं। मधु से भरे छत्तों से शहद प्राप्त करने के लिये छत्तों को काटकर या तो निचोड़ दिया जाता है, या आग पर रखकर उबाल दिया जाता है। फिर इस शहद को कपड़े से छान लेते हैं। इस विधि से मैला एवं अशुद्ध शहद ही मिल सकता है, जो कम कीमत में बिकता है। इस प्रकार प्राचीन ढंग से मधुमक्खियों को पालने में कई दोष हैं।
भारत में वैज्ञानिक ढंग से मधुमक्खी पालन
आज संसार के कई देशों में मधुमक्खियों को आधुनिक ढंग से लकड़ी के बने हुए संदूकों में, जिसे आधुनिक मधुमक्षिकागृह कहते हैं, पाला जाता है। इस प्रकार से मधुमक्खियों को पालने से अंडें एवं बच्चेवाले छत्तों को हानि नहीं पहुँचती। शहद अलग छत्तों में भरा जाता है और इस शहद को बिना छत्तों को काटे मशीन द्वारा निकाल लिया जाता है। इन खाली छत्तों को वापस मधुमक्षिकागृह में रख दिया जाता है, ताकि मधुमक्खियाँ इनपर बैठकर फिर से मधु इकट्ठा करना शुरू कर दें।
वैज्ञानिक ढंग से मधुमक्खी पालन का प्रारंभ भारत में कई वर्ष पहले हो चुका है। आज दक्षिण भारत में यह धंधा काफी फैल चुका है। सैकड़ों मधुमक्षिकागृह वहाँ पर मधु उत्पादन के लिये बसाए जा चुके हैं। अब भारत के कई राज्यों की सरकारें मधुमक्खी पालन के धंधे की उपयोगिता को समझने लगी हैं और इसको फैलाने का प्रयत्न कर रही हैं। इस धंधे के लिये अभी सारा क्षेत्र भारत में खाली पड़ा है।
आधुनिक मधुमक्षिकागृह
जैसा ऊपर लिखा जा चुका है, यह एक लकड़ी का बना संदूक होता है। इसके दो खंड होते हैं। नीचे के खंड को शिशु खंड कहते हैं। इसमें रखे छत्ते में अंडे, बच्चे तथा स्वयं मक्खियों के लिये शुद्ध शहद एवं पराग संचित रहता है। शिशु कक्ष के ऊपर मधु कक्ष होता है, जिसमें मधुमक्खियाँ केवल शहद ही जमा करती हैं। मधुकक्ष से शहद के भरे छत्तों को निकालकर यंत्र द्वारा शहद निकाल लिया जाता है।
मधुमक्खी पालन प्रारंभ करना
मधुमक्खी पालन प्रारंभ करने से पहले यह अच्छा होगा कि इसके संबंध में उपलब्ध पुस्तकों या पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन कर लिया जाए।
मधुमक्खियों की किस्में
- भारत में चार प्रकार की मधुमक्खियाँ पाई जाती हैं। इनमें से सबसे बड़ी को भँवर या डिंगारा कहते हैं। यह ऊँचे पेड़ों या इमारतों पर खुले में केवल एक ही छत्ता लगाती हैं। मधु जमा करने में दूसरी किस्में इसकी बराबरी नहीं कर सकतीं। अंग्रेजी में इसे एपिस डॉरसेटा एफ. (Apis dorsata F.) कहते हैं। इसका डंक अधिक लंबा एवं अत्यंत विषैला होता है। यह प्राय: गरम स्थानों में रहती है। इसके पालने के प्रयत्न किए जा रहे हैं, लेकिन अभी तक सफलता नहीं मिल सकती है।
- दूसरी प्रकार की मधुमक्खी को अंग्रेजी में एपिस फ्लोरिया एफ. (Apis florea F.) कहते हैं। केवल इसी जाति को लोग पालते हैं। चीन और जापान की मधुमक्खियाँ भी इसी के अन्तर्गत आ जाती हैं। यह मधुमक्खी आम तौर पर बंद अँधेरी जगहों में ही कई समांतर छत्ते लगाती है, जैसे पेड़ के खोखलों में, दीवार और छत के अंदर तथा चट्टानों की दरारों में। यह प्राकृतिक हालत में पाई जाती है। पुराने ढंग से लोग इसे मिट्टी के घड़ों, लकड़ी के संदूकों, तनों के खोखलों एवं दीवार की दरारों में पालते हैं।
- तीसरी प्रकार की मधुमक्खी को अंग्रेजी में एपिस फ्लोरिया एफ. (Apis florea F.) कहते हैं। आम तौर पर इस मधुमक्खी को पोतींगा कहते हैं। इसका भी एक ही छोटा सा छत्ता होता है। यह झाड़ी या मकान की छतों पर रखी लकड़ियों आदि में अपना छत्ता लगाती है। इसके छत्ते से एक बार से अधिक से अधिक दो, तीन पाउंड तक शहद निकल आता है। इसका डंक छोटा एवं कम विषैला होता है।
- चौथी प्रकार की मधुमक्खी को अंग्रेजी में मैलीपोना या डैमर (Mellipona or Dammer) कहते हैं। यह मधुमक्खी अमरीका में अधिक पाई जाती है। अँधेरी जगहों में, जैसे पेड़ के खोखलों और दीवार की दरारों आदि में, यह अपना छत्ता बनाती है। इसके छत्तों से मधु बहुत ही कम मात्रा में प्राप्त होता है। इसका मधु आँख में लगाने के लिये अच्छा माना जाता है।
मधुमक्षिकागृह के निवासी एवं उनके कार्य
मधुमक्षिकागृह के भीतर रहनेवाली मधुमक्खियाँ कार्य तथा प्रकार के अनुसार तीन तरह की होती हैं : (१) रानी, (२) श्रमिक और (३) नर मक्खी। रानी ही एकमात्र सारे गृह में अंडे देनेवाली होती है। इसका काम दिन और रात अंडे देना ही होता है। श्रमिक और रानी का जन्म एक ही प्रकार के अंडे से होता है। जब भी श्रमिक मधुमक्खियाँ किसी लार्वें को रानी बनाना चाहती हैं, तो वे उसे एक विशेष प्रकार का भोजन खिलाना शुरू कर देती हैं। इस भोजन को अंग्रेजी में रॉयल जेली (royal jelly) कहते हैं। वह लार्वा, जिसे अपने पूरे जीवनकाल तक यह भोजन खिलाया जाता है, रानी बन जाता है। अन्य लार्वे, जिन्हें यह भोजन पूरा नहीं मिल पाता है, श्रमिक बन जाते हैं। श्रमिक बननेवाले लार्वों को केवल दो तीन दिन तक ही रॉयल जैली दिया जाता है, फिर इनका पोषण एक साधारण भोजन द्वारा ही किया जाता है। रानी जो अंडे देती है। वे दो प्रकार के होते हैं : (क) श्रमिक और (ख) नर। वे अंडे, जिनसे नर निकलते हैं, रानी गर्भाधारन कराए बिना ही दे सकती है। लेकिन श्रमिक उत्पन्न करनेवाले अंडे वह केवल गर्भाधान होने के बाद दे सकती है। रानी को डंक तो होता है, लेकिन इसका उपयोग वह तभी करती है जब किसी दूसरी रानी से उसकी लड़ाई होती है।
श्रमिक मधुमक्खियाँ मधुमक्षिकागृह में सबसे अधिक संख्या में होती हैं। इनके पेट पर कई समांतर धारियाँ होती हैं। डंक मारनेवाली यही मधुमक्खी होती है। इन मधुमक्खियों की अधिकता पर ही शहद जमा करने की मात्रा भी निर्भर करती है। मधुमक्षिकगृह के अंदर और बाहर का भी सभी कार्य श्रमिक मधुमक्खियाँ ही करती हैं। श्रमिक मधुमक्खी का डंक आरीनुमा होता है। जब वह डंक मारती है, तो डंक मनुष्य के शरीर में गड़ा ही रह जाता है। कुछ समय बाद वह श्रमिक मधुमक्खी मर जाती है। मधुमक्खी के डंक लगने से शरीर में सूजन हो जाती है और दर्द भी होता है, पर इसका जहर हानिकारक नहीं होता। गठिया, जोड़ों के दर्द आदि के लिये इसे उपयोगी समझा जाता है। श्रमिक मधुमक्खी की आयु यों तो चार, पाँच मास तक की होती है, लेकिन जब उन्हें काम अधिक करना पड़ता है, तब वे कठिनाई से पाँच, छह सप्ताह तक जीवित रह पाती हैं।
नर मधुमक्खी का काम रानी का गर्भाधान करना होता है। इसे और कोई भी काम नहीं करना पड़ता। मधुमक्षिकागृह के अंदर ही वह छत्तों में जमा किया मधु खाता रहता है। दोपहर के समय यदि मौसम अच्छा हो, तो बाहर घूमने के लिये उड़कर चला जाता है। यह श्रमिक मधुमक्खी से कुछ बड़ा और रानी से छोटा होता है, इसके शरीर पर अधिक बाल होते हैं। सिर एवं सिर पेट काले, गोल एवं चपटे आकार के बने होते हैं। जब फूल काफी खिले होते हैं तब मधुमक्षिकागृह में नर की संख्या बढ़ जाती है। जब फूल कम होते हैं और मधु भी छत्तों में अधिक नहीं होता, उस समय नर मधुमक्षिकागृह में बहुत ही कम या बिलकुल ही नहीं दिखाई पड़ते हैं।की जिन कोठरियों में नर मधुमक्खियाँ पैदा होती हैं, वे श्रमिक मधुमक्खियों की कोठरियों से कुछ बड़ी होती हैं और उन्हें छत्ते के निचले भाग में ही बनाया जाता है। श्रमिक मधुमक्खियाँ रानी के गर्भाधान काल में नर मधुमक्खियों को पैदा होने देती हैं, उसके बाद वे स्वयं ही उन्हें मारकर समाप्त कर देती हैं।
मोम
शहद के बाद दूसरा मूल्यवान तथा उपयोगी पदार्थ, जो मधुमक्खियों से मिलता है, वह मोम है। इसी से वे अपने छत्ते बनाती हैं। मोम बनाने के लिये मधुमक्खियाँ पहले शहद खाती हैं। फिर उससे गरमी पैदा कर अपनी ग्रंथियों द्वारा छोटे छोटे मोम के टुकड़े बाहर निकालती हैं।
मधुमक्खियों के शत्रु
प्रत्येक प्राणी की तरह मधुमक्खियों के भी अनेक शत्रु होते हैं। मधुमक्खियों के पालनेवाले को उनका ज्ञान होना अति आवश्यक है, ताकि वह उनसे मधुमक्खियों की रक्षा कर सकें। इनके मुख्य शत्रु निम्नलिखित हैं :
- मोमी पतिंगा या मोमी कीड़ा
- अंगलार या बर्रे
- चींटी और चींटा
- चुथरौश्
- भलू
- ड्रेगन फ्लाई
- मकड़ी
- बंदर
- गिरगिटान
टीका टिप्पणी और संदर्भ