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पाणिनि ने अपनी अष्टध्यायी में जिस भिक्षुसूत्र का उल्लेख किया है उसके रचयिता भी यही वेदव्यास हैं जिन्हें बादरायण व्यास भी हम कहते हैं और इसीलिये यह बादरायण सूत्र भी कहलाता है। पाणिनि के काल के संबंध में अनेक मत होते हुए भी गोल्डस्टरक, वासुदेवशरण अग्रवाल आदि विद्वानों के अनुसार यह लगभग ६००० वर्ष ईसा से पूर्व रहे होंगे, ऐसा कहा जा सकता है। | पाणिनि ने अपनी अष्टध्यायी में जिस भिक्षुसूत्र का उल्लेख किया है उसके रचयिता भी यही वेदव्यास हैं जिन्हें बादरायण व्यास भी हम कहते हैं और इसीलिये यह बादरायण सूत्र भी कहलाता है। पाणिनि के काल के संबंध में अनेक मत होते हुए भी गोल्डस्टरक, वासुदेवशरण अग्रवाल आदि विद्वानों के अनुसार यह लगभग ६००० वर्ष ईसा से पूर्व रहे होंगे, ऐसा कहा जा सकता है। | ||
सत्य्व्रात समाश्रमी का कहना है कि जैमिनि निरुक्तकार यास्क के पूर्ववर्ती हैं। यास्क पाणिनि के पूर्ववर्ती हैं। सामाश्रमी ने यास्क को ईसा से पूर्व 1९वीं सदी में माना है। ब्रह्मसूत्र में वेदव्यास ने जैमिनि का 11 बार उल्लेख किया है<ref>1।३।३८ : | सत्य्व्रात समाश्रमी का कहना है कि जैमिनि निरुक्तकार यास्क के पूर्ववर्ती हैं। यास्क पाणिनि के पूर्ववर्ती हैं। सामाश्रमी ने यास्क को ईसा से पूर्व 1९वीं सदी में माना है। ब्रह्मसूत्र में वेदव्यास ने जैमिनि का 11 बार उल्लेख किया है<ref>1।३।३८ : 1।2।३1 : 1।३।३1 : 1।४।1८ : ३।2।४० : ३।४।2, 1८,४०, ४।३।12 : ४।४।५,11</ref> आश्वलायन गृह्मसूत्र में भी जैमिनि का 'आचार्य' नाम से उल्लेख किया गया है।<ref>३।1८ (३) 1।1।५ : ५।2।1९ : ६।1।८ : 1०।८।४४ : 11।1।६४</ref> महाभारत का 'अश्वमेधपर्व' तो जैमिनि के ही नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जैमिनि ने अपने पूर्वमीमांसासूत्र में पाँच बार बादरायण के मत का, उनका नाम लेकर, उल्लेख किया है। | ||
इस प्रकार वेदव्यास के साथ जैमिनि का घनिष्ठ संबंध रखना प्रमाणित होता है। अतएव ये दोनों एक ही काल में रहे होंगे, ऐसा सिद्धांत मानने में दोष नहीं मालूम होता। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार जैमिनि ईसा से आठ शतक पूर्व ही रहे होंगे, किंतु भारतीय विद्वानों के अनुसार ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व जैमिनि का समय कहने में कोई विशेष आपत्ति नहीं मालूम होती। | इस प्रकार वेदव्यास के साथ जैमिनि का घनिष्ठ संबंध रखना प्रमाणित होता है। अतएव ये दोनों एक ही काल में रहे होंगे, ऐसा सिद्धांत मानने में दोष नहीं मालूम होता। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार जैमिनि ईसा से आठ शतक पूर्व ही रहे होंगे, किंतु भारतीय विद्वानों के अनुसार ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व जैमिनि का समय कहने में कोई विशेष आपत्ति नहीं मालूम होती। | ||
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==जैमिनीय ब्राह्मण== | ==जैमिनीय ब्राह्मण== | ||
ब्राह्मण ग्रंथ वेद का ही अंग है। यह पंचविंश-ब्राह्मण से पूर्व का ग्रंथ है। यह संपूर्ण अप्राप्य है। कुछ अंशमात्र प्रकाशित हुए हैं। इसके दो स्वरूप हमारे देखने में आते हैं--'जैमिनीय आर्षेय ब्राह्मण' जिसे बर्नेल ने 1८७८ में तथा 'जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण' जिसे | ब्राह्मण ग्रंथ वेद का ही अंग है। यह पंचविंश-ब्राह्मण से पूर्व का ग्रंथ है। यह संपूर्ण अप्राप्य है। कुछ अंशमात्र प्रकाशित हुए हैं। इसके दो स्वरूप हमारे देखने में आते हैं--'जैमिनीय आर्षेय ब्राह्मण' जिसे बर्नेल ने 1८७८ में तथा 'जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण' जिसे 1९21 में एचo एंटल ने प्रकाशित करवाया। आर्षेय ब्राह्मण का डच भाषा में भी अनुवाद हुआ है जिसे कैंलेंड ने छपवाया है। इस ब्राह्मणग्रंथ के नवम अध्याय को 'केनोपनिषद्' कहते हैं। इसका दूसरा नाम 'ब्राह्मणोपनिषद्' भी है। | ||
==जैमिनीय श्रौतसूत्र== | ==जैमिनीय श्रौतसूत्र== | ||
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==जैमिनीयभृह्यसूत्र== | ==जैमिनीयभृह्यसूत्र== | ||
यह भी सामवेद का ग्रंथ है। कैंलेंड ने | यह भी सामवेद का ग्रंथ है। कैंलेंड ने 1९22 में पंजाब संस्कृत सिरीज, लाहौर से इसका सानुवाद संस्करण प्रकाशित किया था। | ||
==जैमिनीय अश्वमेधपर्व (महाभारत)== | ==जैमिनीय अश्वमेधपर्व (महाभारत)== | ||
महाभारत में लिखा है कि वेदव्यास ने जैमिनि को महाभारत पढ़ाया। इन्होंने अन्य गुरुभाइयों की तरह अपनी एक अलग 'संहिता' बनाई (महाभारत, आदिपर्व, ७६३।८९-९०) जिसे व्यास ने मान्यता दी। यह पर्व ६८ अध्यायों में पूर्ण है। इस पर्व में जैमिनि ने जनमेजय से युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ का तथा अन्य धार्मिक बातों का सविस्तार वर्णन किया है। किया जाता है कि वेदव्यास के मुख से महाभारत की कथाओं को सुनकर उनके सुमंत, जैमिनि, पैल तथा शुक इन चार शिष्यों ने अपनी महाभारत संहिता की रचना की। इनमें से जैमिनि का एकमात्र 'अश्वमेघ पर्व' बच गया है और सभी लुप्त हो गए। | महाभारत में लिखा है कि वेदव्यास ने जैमिनि को महाभारत पढ़ाया। इन्होंने अन्य गुरुभाइयों की तरह अपनी एक अलग 'संहिता' बनाई (महाभारत, आदिपर्व, ७६३।८९-९०) जिसे व्यास ने मान्यता दी। यह पर्व ६८ अध्यायों में पूर्ण है। इस पर्व में जैमिनि ने जनमेजय से युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ का तथा अन्य धार्मिक बातों का सविस्तार वर्णन किया है। किया जाता है कि वेदव्यास के मुख से महाभारत की कथाओं को सुनकर उनके सुमंत, जैमिनि, पैल तथा शुक इन चार शिष्यों ने अपनी महाभारत संहिता की रचना की। इनमें से जैमिनि का एकमात्र 'अश्वमेघ पर्व' बच गया है और सभी लुप्त हो गए। | ||
==जैमिनीय पूर्वमीमांसासूत्र== | ==जैमिनीय पूर्वमीमांसासूत्र== | ||
पूर्व मीमांसा का यह सूत्रग्रंथ है। इसे | पूर्व मीमांसा का यह सूत्रग्रंथ है। इसे 12 अध्यायों में सूत्रकार ने समाप्त किया है। इसमें कर्म-मीमांसा के 12 विषयों पर विचार है जिनके नाम हैं--धर्म, कर्मभेद, शेषत्व, प्रयोज्य-प्रयोजक-भाव, क्रम, अधिकार, सामान्यातिदेश, विशेषातिदेश, अह, बाध-अभ्युच्चय, तंत्र तथा आवाप। इसलिये इस ग्रंथ को लोग 'द्वादश लक्षणी' भी कहते हैं। | ||
इस सूत्रग्रंथ में सूत्रों में पुनरुक्तियाँ बहुत हैं, जैसे 'लिंगदर्शनाच्च' सूत्र ३० बार तथा 'तथा चान्यार्थदर्शनम्' | इस सूत्रग्रंथ में सूत्रों में पुनरुक्तियाँ बहुत हैं, जैसे 'लिंगदर्शनाच्च' सूत्र ३० बार तथा 'तथा चान्यार्थदर्शनम्' 2४ बार आए हैं। इसी प्रकार अन्य सूत्रों की भी पुनरुक्तियाँ हैं : इस ग्रंथ में निम्नलिखित आचार्यों के नाम हैं--बादरायण (५ बार), बादरि (५ बार), ऐतिशायन (३ बार); कार्ष्णाजिनि (2 बार), लावुकायन (1 बार), कामुकायन (2 बार), आत्रेय (३ बार), आलेखन (2 बार)। इसके अतिरिक्त जैमिनि ने स्वय पाँच बार अपना नाम भी मीमांसासूत्र में लिया है। इससे ये समझना कि दो जैमिनि हुए हैं, ठीक नहीं है। इस प्रकार अन्य ग्रंथों में भी उल्लेख मिलते हैं। यह प्राय: प्राचीन ग्रंथकारों की लेखशैली थी। | ||
कुछ विद्वानों का कहना है कि पूर्व ओर उत्तरमीमांसा तथा संकर्षणकांड; ये सभी एक ही साथ लिखे गए। पूर्वमीमांसा | कुछ विद्वानों का कहना है कि पूर्व ओर उत्तरमीमांसा तथा संकर्षणकांड; ये सभी एक ही साथ लिखे गए। पूर्वमीमांसा 12 अध्यायों में तथा संकर्षणकांड ४ अध्यायों में जैंमिनि के नाम से तथा उत्तरमीमांसा (वेदांतसूत्र) ४ अध्यायों में बादरायण के नाम से प्रसिद्ध हुई। जब बादरायण तथा जैमिनि दोनों गुरु-शिष्य थे तब दोनों ने परस्पर मिलकर ही ये सभी लिखे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। | ||
मीमांसा सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम पाद 'तर्कपाद' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें मीमांसा के अनुसार दार्शनिक विचार हैं। धर्म की जिज्ञासा से ग्रंथ आरंभ होता है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव तथा शब्द ये छ: प्रमाण इन्होंने माने हैं। प्रमाण में स्वत:प्रामाण्य ये मानते हैं। धर्म के लिये एकमात्र वेद प्रमाण है। वेद को अपौरुषेय जैमिनि मानते हैं। शब्द और अर्थ में नित्यसंबंध ये मानते हैं। शरीरादि से भिन्न एक पदार्थ 'आत्मा' इन्होंने स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त अपूर्व, स्वर्ग, मोक्ष भी जैमिनि ने माना है। ईश्वर को साक्षात् मानने की चर्चा इन्होंने नहीं की है। इन्हीं को लेकर अन्य दार्शनिक विचार भी हैं। | मीमांसा सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम पाद 'तर्कपाद' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें मीमांसा के अनुसार दार्शनिक विचार हैं। धर्म की जिज्ञासा से ग्रंथ आरंभ होता है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव तथा शब्द ये छ: प्रमाण इन्होंने माने हैं। प्रमाण में स्वत:प्रामाण्य ये मानते हैं। धर्म के लिये एकमात्र वेद प्रमाण है। वेद को अपौरुषेय जैमिनि मानते हैं। शब्द और अर्थ में नित्यसंबंध ये मानते हैं। शरीरादि से भिन्न एक पदार्थ 'आत्मा' इन्होंने स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त अपूर्व, स्वर्ग, मोक्ष भी जैमिनि ने माना है। ईश्वर को साक्षात् मानने की चर्चा इन्होंने नहीं की है। इन्हीं को लेकर अन्य दार्शनिक विचार भी हैं। |
०७:२६, १४ अगस्त २०११ का अवतरण
जैमिनि
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 51-52 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
लेखक | उमो मिश्र, एम. विंटरनित्स, बी. बरदचारी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
स्रोत | महाभारत; बादरायण सूत्र (शांकरभाष्य भूमिका, म. म. पं. गोपीनाथ कविराज); शब्द कल्पद्रुम; एम. विंटरनित्स : हिस्ट्री ऑव इंडियन लिटरेचर; बी. बरदचारी : 'ए हिस्ट्री ऑव दि संस्कृत लिटरेचर'। |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | उमो मिश्र |
जैमिनि वेदव्यास के शिष्य; महाभारत में लिखा है कि वेद का चार भागों में विस्तार करने के कारण वेदव्यास (विस्तार) नाम पड़ा। इन्होंने जैमिनि को सामवेद की शिक्षा दी तथा महाभारत भी पढ़ाया 'वेदानुध्यापयोमास महाभारतपञ्चनाम्। सुमंतु जैमिनि पैल शुकं चैव स्वमात्मजम्।।[१]; महाधर--यजुर्वेदभाष्य, वाजसनेयि संहिता, आदि भाग'। इन्हीं व्यास ने ब्रह्मसूत्र की, उपनिषदों के आधार पर, रचना की। इसी को 'भिक्षुसूत्र' भी कहते हैं जिसका उल्लेख पाणिनि ने अष्टाध्यायी में किया है।
इन प्रसंगों से यह स्पष्ट हे कि जैमिनि वेदव्यास के समानकालिक ऋषि थे। वेदव्यास ने कौरवों और पांडवों को साक्षात् देखा था। (कुरूणां पाण्डवानांश्च भवान् प्रत्यक्षदर्शिवान्--महाo आदिo ६० 1८) अतएव ये महाभारत के युद्ध-काल में रहे होंगे। विंटरनिट्ज के अनुसार महाभारत की रचना ईसा से पूर्व चौथी सदी में हुई होगी, किंतु भारतीय विद्वानों के अनुसार ३००० वर्ष ईसा से पूर्व ही महाभारत का समय हो सकता है। अतएव वेदव्यास का भी समय इसी के अनुसार निश्चय करना होगा।
पाणिनि ने अपनी अष्टध्यायी में जिस भिक्षुसूत्र का उल्लेख किया है उसके रचयिता भी यही वेदव्यास हैं जिन्हें बादरायण व्यास भी हम कहते हैं और इसीलिये यह बादरायण सूत्र भी कहलाता है। पाणिनि के काल के संबंध में अनेक मत होते हुए भी गोल्डस्टरक, वासुदेवशरण अग्रवाल आदि विद्वानों के अनुसार यह लगभग ६००० वर्ष ईसा से पूर्व रहे होंगे, ऐसा कहा जा सकता है।
सत्य्व्रात समाश्रमी का कहना है कि जैमिनि निरुक्तकार यास्क के पूर्ववर्ती हैं। यास्क पाणिनि के पूर्ववर्ती हैं। सामाश्रमी ने यास्क को ईसा से पूर्व 1९वीं सदी में माना है। ब्रह्मसूत्र में वेदव्यास ने जैमिनि का 11 बार उल्लेख किया है[२] आश्वलायन गृह्मसूत्र में भी जैमिनि का 'आचार्य' नाम से उल्लेख किया गया है।[३] महाभारत का 'अश्वमेधपर्व' तो जैमिनि के ही नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जैमिनि ने अपने पूर्वमीमांसासूत्र में पाँच बार बादरायण के मत का, उनका नाम लेकर, उल्लेख किया है।
इस प्रकार वेदव्यास के साथ जैमिनि का घनिष्ठ संबंध रखना प्रमाणित होता है। अतएव ये दोनों एक ही काल में रहे होंगे, ऐसा सिद्धांत मानने में दोष नहीं मालूम होता। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार जैमिनि ईसा से आठ शतक पूर्व ही रहे होंगे, किंतु भारतीय विद्वानों के अनुसार ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व जैमिनि का समय कहने में कोई विशेष आपत्ति नहीं मालूम होती।
जैमिनि के नाम से निम्नलिखित ग्रंथ प्रसिद्ध हैं :
जैमिनीय सामवेदसंहिता
सामवेद की एक हजार शाखाएँ हुईं जिनमें केवल कौथुमी, जैमिनीय तथा राणायणीय, ये ही तीन शाखाएँ आज मिलती हैं। जैमिनीय शाखा कर्नाटक प्रांत में, कौथुमीय गुजरात तथा मिथिला में एवं राणायणीय महाराष्ट्र प्रदेश में प्रधान रूप से प्रचलित है। डब्ल्यूo कैलेंड (W. Caland) ने 1९०७ में जैमिनिसंहिता का एक संस्करण निकाला था। इसे 'तलवकार' संहिता भी कहा जाता है।
जैमिनीय ब्राह्मण
ब्राह्मण ग्रंथ वेद का ही अंग है। यह पंचविंश-ब्राह्मण से पूर्व का ग्रंथ है। यह संपूर्ण अप्राप्य है। कुछ अंशमात्र प्रकाशित हुए हैं। इसके दो स्वरूप हमारे देखने में आते हैं--'जैमिनीय आर्षेय ब्राह्मण' जिसे बर्नेल ने 1८७८ में तथा 'जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण' जिसे 1९21 में एचo एंटल ने प्रकाशित करवाया। आर्षेय ब्राह्मण का डच भाषा में भी अनुवाद हुआ है जिसे कैंलेंड ने छपवाया है। इस ब्राह्मणग्रंथ के नवम अध्याय को 'केनोपनिषद्' कहते हैं। इसका दूसरा नाम 'ब्राह्मणोपनिषद्' भी है।
जैमिनीय श्रौतसूत्र
यह सूत्रग्रंथ सामवेद से संबंद्ध है। यह 1९०६ में लाइडेन से खंडित रूप में प्रकाशित हुआ है। कुछ अंश का अनुवाद भी प्रकाशित है।
जैमिनीयभृह्यसूत्र
यह भी सामवेद का ग्रंथ है। कैंलेंड ने 1९22 में पंजाब संस्कृत सिरीज, लाहौर से इसका सानुवाद संस्करण प्रकाशित किया था।
जैमिनीय अश्वमेधपर्व (महाभारत)
महाभारत में लिखा है कि वेदव्यास ने जैमिनि को महाभारत पढ़ाया। इन्होंने अन्य गुरुभाइयों की तरह अपनी एक अलग 'संहिता' बनाई (महाभारत, आदिपर्व, ७६३।८९-९०) जिसे व्यास ने मान्यता दी। यह पर्व ६८ अध्यायों में पूर्ण है। इस पर्व में जैमिनि ने जनमेजय से युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ का तथा अन्य धार्मिक बातों का सविस्तार वर्णन किया है। किया जाता है कि वेदव्यास के मुख से महाभारत की कथाओं को सुनकर उनके सुमंत, जैमिनि, पैल तथा शुक इन चार शिष्यों ने अपनी महाभारत संहिता की रचना की। इनमें से जैमिनि का एकमात्र 'अश्वमेघ पर्व' बच गया है और सभी लुप्त हो गए।
जैमिनीय पूर्वमीमांसासूत्र
पूर्व मीमांसा का यह सूत्रग्रंथ है। इसे 12 अध्यायों में सूत्रकार ने समाप्त किया है। इसमें कर्म-मीमांसा के 12 विषयों पर विचार है जिनके नाम हैं--धर्म, कर्मभेद, शेषत्व, प्रयोज्य-प्रयोजक-भाव, क्रम, अधिकार, सामान्यातिदेश, विशेषातिदेश, अह, बाध-अभ्युच्चय, तंत्र तथा आवाप। इसलिये इस ग्रंथ को लोग 'द्वादश लक्षणी' भी कहते हैं।
इस सूत्रग्रंथ में सूत्रों में पुनरुक्तियाँ बहुत हैं, जैसे 'लिंगदर्शनाच्च' सूत्र ३० बार तथा 'तथा चान्यार्थदर्शनम्' 2४ बार आए हैं। इसी प्रकार अन्य सूत्रों की भी पुनरुक्तियाँ हैं : इस ग्रंथ में निम्नलिखित आचार्यों के नाम हैं--बादरायण (५ बार), बादरि (५ बार), ऐतिशायन (३ बार); कार्ष्णाजिनि (2 बार), लावुकायन (1 बार), कामुकायन (2 बार), आत्रेय (३ बार), आलेखन (2 बार)। इसके अतिरिक्त जैमिनि ने स्वय पाँच बार अपना नाम भी मीमांसासूत्र में लिया है। इससे ये समझना कि दो जैमिनि हुए हैं, ठीक नहीं है। इस प्रकार अन्य ग्रंथों में भी उल्लेख मिलते हैं। यह प्राय: प्राचीन ग्रंथकारों की लेखशैली थी।
कुछ विद्वानों का कहना है कि पूर्व ओर उत्तरमीमांसा तथा संकर्षणकांड; ये सभी एक ही साथ लिखे गए। पूर्वमीमांसा 12 अध्यायों में तथा संकर्षणकांड ४ अध्यायों में जैंमिनि के नाम से तथा उत्तरमीमांसा (वेदांतसूत्र) ४ अध्यायों में बादरायण के नाम से प्रसिद्ध हुई। जब बादरायण तथा जैमिनि दोनों गुरु-शिष्य थे तब दोनों ने परस्पर मिलकर ही ये सभी लिखे हों तो कोई आश्चर्य नहीं।
मीमांसा सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम पाद 'तर्कपाद' नाम से प्रसिद्ध है। इसमें मीमांसा के अनुसार दार्शनिक विचार हैं। धर्म की जिज्ञासा से ग्रंथ आरंभ होता है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव तथा शब्द ये छ: प्रमाण इन्होंने माने हैं। प्रमाण में स्वत:प्रामाण्य ये मानते हैं। धर्म के लिये एकमात्र वेद प्रमाण है। वेद को अपौरुषेय जैमिनि मानते हैं। शब्द और अर्थ में नित्यसंबंध ये मानते हैं। शरीरादि से भिन्न एक पदार्थ 'आत्मा' इन्होंने स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त अपूर्व, स्वर्ग, मोक्ष भी जैमिनि ने माना है। ईश्वर को साक्षात् मानने की चर्चा इन्होंने नहीं की है। इन्हीं को लेकर अन्य दार्शनिक विचार भी हैं।
जैमिनि जनमेजय के सर्पयज्ञ में 'ब्रह्मा' बनाए गए थे।[४] युधिष्ठिर की सभा में ये विद्यमान थे[५] और शरशय्या पर पड़े हुए भीष्मपितामह को देखने गए थे। [६] पुराणों में लिखा है कि जैमिनि 'वज्रवारक' थे[७]
जैमिनि ज्यौतिषी
एक ज्यौतिषी जिन्होंने ज्यौतिष शास्त्र पर सूत्र रूप में एक ग्रंथ लिखा है। यह आयुर्विचार में विशेषज्ञ गिने जाते थे। हिंदू विश्वविद्यालय के भूतपूर्व ज्यौतिषशास्त्राध्यापक रामयत्न ओझा ने इस ग्रंथ का प्रकाशन किया था। 'जैमिनीय सूत्र' नाम से यह ग्रंथ प्रसिद्ध है।