"जुझारसिंह बुंदेला": अवतरणों में अंतर
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जुझारसिंह बुंदेला ओरछा के राजा वीरसिंह देव के पुत्र। जहाँगीर शासन के अंतिम काल में इन्हें राजा की उपाधि मिली और ये चार हजारी मंसबदार बने। सन् 1६2७ ई. शाहजहाँ ने इन्हें उपहारों से सम्मानित किया। किंतु कुछ समय पश्चात् अशुद्ध करलेखा की शाहजहाँ द्वारा जाँच किए जाने की सूचना से डरकर ये आगरे से भागकर ओरछा चले गए। वहाँ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने लगे। जब बादशाह को ये समाचार ज्ञात हुआ तो उसने सेनाएँ भेजकर ओरछा में घेरा डलवा दिया। फलत: युद्ध हुआ, किंतु 'एरिच' दुर्ग बादशाही सेनाओं के अधिकार में आ जाने से जुझारसिंह के पराजय की संभावना उत्पन्न हो गई। तब इन्होंने महावत खाँ की शरण में जाकर, जो बादशाही सेना के एक भाग का नेतृत्व कर रहा था, क्षमा माँगी। महावत खाँ इन्हें शाहजहाँ के दरबार में ले आया। शाहजहाँ ने इन्हें क्षमा कर दिया। शाहजहाँ जब खानजहाँ लोदी और निजामुल्मुल्क पर आक्रमण करने के उद्देश्य से दक्षिण की ओर गया तब यह भी दक्षिण के सूबेदार आज़म खाँ के साथ नियुक्त हुए। तत्पश्चात् ये चंदावल में नियुक्त हुए। दक्षिण प्रांत पूर्णत: विजित होने पर कुछ दिनों के लिये अपने देश चले गए। देश पहुँचने पर इन्होंने चौरागढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। जब बादशाह को यह सूचना मिली तो उसने एक आदेश जुझारसिंह के लिये जारी किया कि विजित प्रांत और कोष की संपत्ति का बहुत बड़ा भाग बादशाह को सौंप दे। किंतु वह टाल गए और अपने पुत्र को भी, जो दक्षिण में था, बुलवा लिया। शाहजहाँ ने उन्हें दंडित करने के लिये सेनाएँ भेजीं। वह अपने पुत्र के साथ सारा सामान लिये इधर से उधर भागते फिरते रहे। इस बीच इनका बहुत सा बहुमूल्य सामान इनसे छिनता गया। किंतु अपने पुत्र विक्रमाजीत सिंह के साथ ये जंगलों में छिपे रहे। सन् | जुझारसिंह बुंदेला ओरछा के राजा वीरसिंह देव के पुत्र। जहाँगीर शासन के अंतिम काल में इन्हें राजा की उपाधि मिली और ये चार हजारी मंसबदार बने। सन् 1६2७ ई. शाहजहाँ ने इन्हें उपहारों से सम्मानित किया। किंतु कुछ समय पश्चात् अशुद्ध करलेखा की शाहजहाँ द्वारा जाँच किए जाने की सूचना से डरकर ये आगरे से भागकर ओरछा चले गए। वहाँ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने लगे। जब बादशाह को ये समाचार ज्ञात हुआ तो उसने सेनाएँ भेजकर ओरछा में घेरा डलवा दिया। फलत: युद्ध हुआ, किंतु 'एरिच' दुर्ग बादशाही सेनाओं के अधिकार में आ जाने से जुझारसिंह के पराजय की संभावना उत्पन्न हो गई। तब इन्होंने महावत खाँ की शरण में जाकर, जो बादशाही सेना के एक भाग का नेतृत्व कर रहा था, क्षमा माँगी। महावत खाँ इन्हें शाहजहाँ के दरबार में ले आया। शाहजहाँ ने इन्हें क्षमा कर दिया। शाहजहाँ जब खानजहाँ लोदी और निजामुल्मुल्क पर आक्रमण करने के उद्देश्य से दक्षिण की ओर गया तब यह भी दक्षिण के सूबेदार आज़म खाँ के साथ नियुक्त हुए। तत्पश्चात् ये चंदावल में नियुक्त हुए। दक्षिण प्रांत पूर्णत: विजित होने पर कुछ दिनों के लिये अपने देश चले गए। देश पहुँचने पर इन्होंने चौरागढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। जब बादशाह को यह सूचना मिली तो उसने एक आदेश जुझारसिंह के लिये जारी किया कि विजित प्रांत और कोष की संपत्ति का बहुत बड़ा भाग बादशाह को सौंप दे। किंतु वह टाल गए और अपने पुत्र को भी, जो दक्षिण में था, बुलवा लिया। शाहजहाँ ने उन्हें दंडित करने के लिये सेनाएँ भेजीं। वह अपने पुत्र के साथ सारा सामान लिये इधर से उधर भागते फिरते रहे। इस बीच इनका बहुत सा बहुमूल्य सामान इनसे छिनता गया। किंतु अपने पुत्र विक्रमाजीत सिंह के साथ ये जंगलों में छिपे रहे। सन् 1६44 ईo में देवगढ़ के गोंड़ों ने इन दोनों को मार डाला। खानेदौराँ ने दोनों के सर कटवाकर बादशाह के पास भिजवा दिए। चौरागढ़ के कोष से प्राप्त 1 करोड़ रुपया भी दरबार में भेज दिया गया। | ||
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०७:३३, १८ अगस्त २०११ का अवतरण
जुझारसिंह बुंदेला ओरछा के राजा वीरसिंह देव के पुत्र। जहाँगीर शासन के अंतिम काल में इन्हें राजा की उपाधि मिली और ये चार हजारी मंसबदार बने। सन् 1६2७ ई. शाहजहाँ ने इन्हें उपहारों से सम्मानित किया। किंतु कुछ समय पश्चात् अशुद्ध करलेखा की शाहजहाँ द्वारा जाँच किए जाने की सूचना से डरकर ये आगरे से भागकर ओरछा चले गए। वहाँ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने लगे। जब बादशाह को ये समाचार ज्ञात हुआ तो उसने सेनाएँ भेजकर ओरछा में घेरा डलवा दिया। फलत: युद्ध हुआ, किंतु 'एरिच' दुर्ग बादशाही सेनाओं के अधिकार में आ जाने से जुझारसिंह के पराजय की संभावना उत्पन्न हो गई। तब इन्होंने महावत खाँ की शरण में जाकर, जो बादशाही सेना के एक भाग का नेतृत्व कर रहा था, क्षमा माँगी। महावत खाँ इन्हें शाहजहाँ के दरबार में ले आया। शाहजहाँ ने इन्हें क्षमा कर दिया। शाहजहाँ जब खानजहाँ लोदी और निजामुल्मुल्क पर आक्रमण करने के उद्देश्य से दक्षिण की ओर गया तब यह भी दक्षिण के सूबेदार आज़म खाँ के साथ नियुक्त हुए। तत्पश्चात् ये चंदावल में नियुक्त हुए। दक्षिण प्रांत पूर्णत: विजित होने पर कुछ दिनों के लिये अपने देश चले गए। देश पहुँचने पर इन्होंने चौरागढ़ दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। जब बादशाह को यह सूचना मिली तो उसने एक आदेश जुझारसिंह के लिये जारी किया कि विजित प्रांत और कोष की संपत्ति का बहुत बड़ा भाग बादशाह को सौंप दे। किंतु वह टाल गए और अपने पुत्र को भी, जो दक्षिण में था, बुलवा लिया। शाहजहाँ ने उन्हें दंडित करने के लिये सेनाएँ भेजीं। वह अपने पुत्र के साथ सारा सामान लिये इधर से उधर भागते फिरते रहे। इस बीच इनका बहुत सा बहुमूल्य सामान इनसे छिनता गया। किंतु अपने पुत्र विक्रमाजीत सिंह के साथ ये जंगलों में छिपे रहे। सन् 1६44 ईo में देवगढ़ के गोंड़ों ने इन दोनों को मार डाला। खानेदौराँ ने दोनों के सर कटवाकर बादशाह के पास भिजवा दिए। चौरागढ़ के कोष से प्राप्त 1 करोड़ रुपया भी दरबार में भेज दिया गया।