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०८:०९, ३० जुलाई २०११ का अवतरण

लेख सूचना
जीवन का स्तर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 3-4
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक अवध बिहारी मिश्र

मनुष्य की अधिकांश आर्थिक क्रियाएँ आवश्कताओं को संतुष्ट करने के लिये होती हैं। ये आवश्यकताएँ दैनिक जीवन में उपभोग की जानेवाली विभिन्न वस्तुओं की होती हैं। इनकी पूर्ति सामान्यत: मनुष्य की आय के अनुसार होती है। यदि आय अधिक हुई तो न केवल अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। वरन्‌ आराम और विलासिता संबंधी वस्तुओं का भी उपभोग किया जाता है जीवन का स्तर उन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति का द्योतक होता है जो मनुष्य अपनी आय के अनुसार प्राप्त करता है। ये आवश्यकताएँ जलवायु, सामाजिक स्तर तथा सांस्कृतिक परंपराओं के अनुसार भिन्न भिन्न स्थानों में बदलती रहती है।

जीवन के स्तर का कोई दृढ़ मापदंड नहीं है। इसका अनुमान हम आय-व्यय के लेखा द्वारा ही कर सकते हैं और जीवन-स्तर को तुलनात्मक शब्दों में ही व्यक्त किया जा सकता है, जैसे ऊँचे जीवन का स्तर अथवा नीचे जीवन का स्तर। जो मनुष्य अच्छा भोजन करता हो, हवादार मकान में रहता हो, स्वच्छ कपड़े पहनता हो तथा स्वास्थ्य और मनोरंजन इत्यादि के लिये समुचित प्रबंध रखता हो, उसके रहन-सहन को हम जीवन का ऊँचा स्तर मानते हैं। इसके विपरीत जीवन का नीचा स्तर उन लोगों का माना जाता है जो इन बातों की व्यवस्था ठीक से न कर सकें तथा स्वास्थ्य, कार्यक्षमता एवं मनोरंजन के लिए सुविधाएँ प्राप्त न कर सकें।

जीवन का ऊँचा स्तर मनुष्य की कार्यक्षमता बढ़ाने में सहायक होता है। आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त मनुष्य अपनी आय के अनुसार स्वास्थ्य तथा शिक्षा के लिये खर्च करता है। इसके बाद मनोरंजन तथा विलासिता संबंधी व्यय किया जाता है जो परोक्ष रूप से कार्यक्षमता बढ़ाने में सहायक होते हैं। इस प्रकार किए गए व्यय के लिये यह आवश्यक है कि प्रत्येक कार्य के लिये धन का व्यय उचित अनुपात में तथा विवेकपूर्ण ढंग से हो ताकि उपभोग की गई वस्तुओं से अधिकतम मात्रा में उपयोगिता प्राप्त की जा सके।

समाज के विभिन्न वर्गों का जीवनस्तर उनके व्यवसाय पर भी निर्भर होता है जैसे समान आय वाले एक डाक्टर और एक दुकानदार के जीवनस्तर में पर्याप्त अंतर पाया जाता है। डाक्टर अपने तथा परिवार के लोगों के लिये कपड़ा, मकान, शिक्षा तथा मनोरंजनादि पर दुकानदार के अनुपात में अधिक व्यय करेगा, जबकि दुकानदार अपनी आमदनी का एक बड़ा भाग अपने व्यवसाय की उन्नति में लगाना चाहेगा।

किसी देश के निवासियों का जीवनस्तर उस देश की राष्ट्रीय आय द्वारा भी जाना जा सकता है। पाश्चात्य देशों के अनुपात में भारत की राष्ट्रीय आय बहुत कम है अत: जीवन का स्तर भारत में नीचा माना जाता है। नीचे जीवनस्तर के मुख्य कारण जनसंख्या की तीव्र वृद्धि, निर्धनता, उत्पादन के साधनों की कमी तथा अशिक्षा हैं। इसके अतिरिक्त भारत की धार्मिक तथा सामाजिक परंपराएँ भी ऊँचे जीवनस्तर को प्रोत्साहन नहीं देतीं। 'सादा जीवन-उच्च विचार' ही यहाँ की विचारधारा रही है परंतु स्वतंत्रता के उपरांत पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा आर्थिक उन्नति के निरंतर प्रयास हुए हैं जिससे राष्ट्रीय आय पर्याप्त मात्रा में बढ़ गई है और हमारी कार्यक्षमता तथा स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है। परिणाम स्वरूप उत्पादन और उपभोग की मात्रा में भी वृद्धि हुई है।