"सही बचत (बाल कहानी)": अवतरणों में अंतर

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==सही बचत -मनोहर चमोली ‘मनु’==
-बाल कहानी.
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'सही बचत'
भरत और भारती भाई-बहिन थे। भरत बड़ा था और भारती छोटी थी। भरत स्वभाव से चंचल था। मौज-मस्ती और लापरवाही उसमें कूट-कूट कर भरी थी। ज़्यादा लाड-प्यार के कारण वो जिद्दी भी हो गया था। अक्सर घर में वो शैतानी करता और बड़ी चालाकी से आरोप भारती पर लगा देता। भारती कुछ समझ ही नहीं पाती। अक्सर भरत के किए की सजा भारती को मिलती। भारती के मन में ये बात घर कर गई थी कि घर में गलत काम कोई भी करे, मगर सजा उसे ही मिलनी है। यही कारण था कि वो भरत के द्वारा बिगाडे़ हुए कामों को संवारने में ही जुटी रहती। परिणाम यह हुआ कि भारती भरत से ज़्यादा गंभीर हो गई। वो चुप रहती। हर बात के अच्छे और बुरे पक्ष पर सोचती, तब जाकर कदम उठाती। वहीं भरत के मन में ये बात गहरे ढंग से बैठ गई थी कि वो कुछ भी करे, उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। गर्मियों की छुट्टियां पड़ गईं। भरत और भारती बहुत खुश थे। गांव से उनके दादाजी जो आ गए थे। सुबह-शाम वो दोनों को घुमाने ले जाते। भरत और भारती को तरह-तरह के व्यंजन खिलाते। दादाजी दो-चार दिनों में ही समझ गए कि भरत और भारती में बहुत अंतर है।  
=====
        एक दिन की बात है। दादाजी ने भारती से कहा-‘‘बेटी। तुम तो कभी किसी चीज़ की मांग ही नहीं करती। भरत को देखो, हमेशा कुछ न कुछ खाने की ज़िद करता रहता है।’’ भारती पहले चुप रही। फिर बोली-‘‘दादाजी। भरत भाई की इच्छाएं आप पूरी कर देते हैं, तो मेरी भी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। मैं जो कुछ सोचती हूं, भाई पहले ही उसकी मांग आपसे कर लेता है। फिर मुझे भी तो वो चीज़ मिल जाती है, जो भरत को मिलती है।’’ दादाजी समझ गए कि भरत के मन में खर्च करने की आदत विकसित होती जा रही है। वहीं भारती संकोच के कारण ही सही अपनी इच्छाएं मन ही मन में रखती है।  
-बाल कहानी.
'सही बचत'
-मनोहर चमोली ‘मनु’
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भरत और भारती भाई-बहिन थे। भरत बड़ा था और भारती छोटी थी। भरत स्वभाव से चंचल था। मौज-मस्ती और लापरवाही उसमें कूट-कूट कर भरी थी। ज़्यादा लाड-प्यार के कारण वो जिद्दी भी हो गया था। अक्सर घर में वो शैतानी करता और बड़ी चालाकी से आरोप भारती पर लगा देता। भारती कुछ समझ ही नहीं पाती। अक्सर भरत के किए की सजा भारती को मिलती। भारती के मन में ये बात घर कर गई थी कि घर में गलत काम कोई भी करे, मगर सजा उसे ही मिलनी है। यही कारण था कि वो भरत के द्वारा बिगाडे़ हुए कामों को संवारने में ही जुटी रहती। परिणाम यह हुआ कि भारती भरत से ज़्यादा गंभीर हो गई। वो चुप रहती। हर बात के अच्छे और बुरे पक्ष पर सोचती, तब जाकर कदम उठाती।  
वहीं भरत के मन में ये बात गहरे ढंग से बैठ गई थी कि वो कुछ भी करे, उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। गर्मियों की छुट्टियां पड़ गईं। भरत और भारती बहुत खुश थे। गांव से उनके दादाजी जो आ गए थे। सुबह-शाम वो दोनों को घुमाने ले जाते। भरत और भारती को तरह-तरह के व्यंजन खिलाते। दादाजी दो-चार दिनों में ही समझ गए कि भरत और भारती में बहुत अंतर है।  
एक दिन की बात है। दादाजी ने भारती से कहा-‘‘बेटी। तुम तो कभी किसी चीज़ की मांग ही नहीं करती। भरत को देखो, हमेशा कुछ न कुछ खाने की ज़िद करता रहता है।’’
भारती पहले चुप रही। फिर बोली-‘‘दादाजी। भरत भाई की इच्छाएं आप पूरी कर देते हैं, तो मेरी भी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। मैं जो कुछ सोचती हूं, भाई पहले ही उसकी मांग आपसे कर लेता है। फिर मुझे भी तो वो चीज़ मिल जाती है, जो भरत को मिलती है।’’ दादाजी समझ गए कि भरत के मन में खर्च करने की आदत विकसित होती जा रही है। वहीं भारती संकोच के कारण ही सही अपनी इच्छाएं मन ही मन में रखती है।  
शाम का समय था। दादाजी दो बड़े मिट्टी के गुल्लक ले आए। भरत और भारती आंगन में खेल रहे थे। दादाजी ने दोनों को बुलाते हुए कहा-‘‘ये लो। तुम दोनों के लिए अलग-अलग गुल्लक। अब देखते हैं कि तुम दोनों में से कौन ज्यादा रुपए जमा करता है। आज से तुम्हें जो भी जेब खर्च मिलेगा, उसमें से कुछ हिस्सा तुम्हें गुल्लक में डालना होगा। मैं जाने से पहले उसे कुछ खास ईनाम दूंगा, जो ज्यादा बचत करेगा। तुम अपने गुल्लक में पहचान का निशान लगा लो।’’
शाम का समय था। दादाजी दो बड़े मिट्टी के गुल्लक ले आए। भरत और भारती आंगन में खेल रहे थे। दादाजी ने दोनों को बुलाते हुए कहा-‘‘ये लो। तुम दोनों के लिए अलग-अलग गुल्लक। अब देखते हैं कि तुम दोनों में से कौन ज्यादा रुपए जमा करता है। आज से तुम्हें जो भी जेब खर्च मिलेगा, उसमें से कुछ हिस्सा तुम्हें गुल्लक में डालना होगा। मैं जाने से पहले उसे कुछ खास ईनाम दूंगा, जो ज्यादा बचत करेगा। तुम अपने गुल्लक में पहचान का निशान लगा लो।’’
दिन गुजरते गए। गर्मियों की छुट्टियां खत्म होने को थीं। भरत और भारती गुल्लक में रुपए जमा करने का एक भी मौका नहीं गंवाते। भारती मम्मी और पापा के छोटे-मोटे काम करती और बदले में एक-दो और पांच रुपए का सिक्का ईनाम में पाती। अपने जेब खर्च का ज़्यादातर हिस्सा भी वो गुल्लक में डालती जाती। वहीं भरत भी रुपए जमा कर रहा था। मगर वो खाने-पीने की चीजों में ज़्यादा रुपए खर्च कर ही देता था।
दिन गुजरते गए। गर्मियों की छुट्टियां खत्म होने को थीं। भरत और भारती गुल्लक में रुपए जमा करने का एक भी मौका नहीं गंवाते। भारती मम्मी और पापा के छोटे-मोटे काम करती और बदले में एक-दो और पांच रुपए का सिक्का ईनाम में पाती। अपने जेब खर्च का ज़्यादातर हिस्सा भी वो गुल्लक में डालती जाती। वहीं भरत भी रुपए जमा कर रहा था। मगर वो खाने-पीने की चीजों में ज़्यादा रुपए खर्च कर ही देता था।
एक दिन की बात है। भरत और भारती गुल्लकों को लेकर झगड़ रहे थे। तभी वहां दादाजी आ गए। दादाजी को देखते हुए भरत बोला-‘‘दादाजी भारती ने अपना गुल्लक बदल दिया है। मैंने अपने और भारती के गुल्लक में कलर पेंसिल से निशान लगाया था। मेरे वाले गुल्लक में वो निशान है, मगर भारती के गुल्लक में वो निशान नहीं है। मुझे लगता है भारती ने जरूर कोई गड़बड़ की है।’’
एक दिन की बात है। भरत और भारती गुल्लकों को लेकर झगड़ रहे थे। तभी वहां दादाजी आ गए। दादाजी को देखते हुए भरत बोला-‘‘दादाजी भारती ने अपना गुल्लक बदल दिया है। मैंने अपने और भारती के गुल्लक में कलर पेंसिल से निशान लगाया था। मेरे वाले गुल्लक में वो निशान है, मगर भारती के गुल्लक में वो निशान नहीं है। मुझे लगता है भारती ने जरूर कोई गड़बड़ की है।’’
दादाजी बोले-‘‘भरत। तुम्हारा गुल्लक तो तुम्हारे ही पास है न? वो तो नहीं बदला गया?’’ भरत बोला-‘‘नहीं दादाजी। मेरा गुल्लक तो मेरे ही पास है। मगर ़ ़।’’  
दादाजी बोले-‘‘भरत। तुम्हारा गुल्लक तो तुम्हारे ही पास है न? वो तो नहीं बदला गया?’’ भरत बोला-‘‘नहीं दादाजी। मेरा गुल्लक तो मेरे ही पास है। मगर।’’  
‘‘अगर-मगर कुछ नहीं। तुम्हे भारती के गुल्लक से क्या मतलब। जरूर तुमने कोई गड़बड़ की है। लाओ। दोनों अपने-अपने गुल्लक मुझे दो। इन्हें अभी फोड़कर देखा जाएगा।’’ दादाजी बोले।   
‘‘अगर-मगर कुछ नहीं। तुम्हें भारती के गुल्लक से क्या मतलब। जरूर तुमने कोई गड़बड़ की है। लाओ। दोनों अपने-अपने गुल्लक मुझे दो। इन्हें अभी फोड़कर देखा जाएगा।’’ दादाजी बोले।   
यह सुनते ही भारती रोने लगी। दादाजी बोले-‘‘अरे! तुम क्यों रो रही हो। मुझे मालूम है कि किसके गुल्लक में ज़्यादा रुपए जमा हुए होंगे।’’ यह कहते ही दादाजी ने दोनों के गुल्लक अपने हाथों में ले लिए। दादाजी ने भरत का गुल्लक पहले फोड़ा। भरत के गुल्लक में दो सौ तीस रुपए निकले। अब भारती के गुल्लक की बारी थी। दादाजी के साथ-साथ भरत भी हैरान था। भारती के गुल्लक में केवल पच्चीस रुपए ही निकले।
यह सुनते ही भारती रोने लगी। दादाजी बोले-‘‘अरे! तुम क्यों रो रही हो। मुझे मालूम है कि किसके गुल्लक में ज़्यादा रुपए जमा हुए होंगे।’’ यह कहते ही दादाजी ने दोनों के गुल्लक अपने हाथों में ले लिए। दादाजी ने भरत का गुल्लक पहले फोड़ा। भरत के गुल्लक में दो सौ तीस रुपए निकले। अब भारती के गुल्लक की बारी थी। दादाजी के साथ-साथ भरत भी हैरान था। भारती के गुल्लक में केवल पच्चीस रुपए ही निकले।
‘‘भारती! ये क्या है? तुम्हारे गुल्लक में बस इतने ही रुपए! सच-सच बताओ। तुमने जो बचत की थी, उसके रुपए कहां गए। और ये जो भरत गुल्लक बदलने वाली बात कह रहा था, वो क्या है?’’ दादाजी ने हैरानी से पूछा।  भारती तो पहले से रो ही रही थी। दादाजी को गुस्से में देखकर वो और जोर-जोर से रोने लगी।  दादाजी ने भारती के सिर पर प्यार से हाथ रखा। पुचकारते हुए बोले-‘‘मैं जानता हूं। हमारी भारती ने कोई गलत काम नहीं किया होगा। मुझे पता है कि भारती अपने दादा को सच-सच बताएगी।’’ यह सुनते ही भारती ने रोना बंद कर दिया।
‘‘भारती! ये क्या है? तुम्हारे गुल्लक में बस इतने ही रुपए! सच-सच बताओ। तुमने जो बचत की थी, उसके रुपए कहां गए। और ये जो भरत गुल्लक बदलने वाली बात कह रहा था, वो क्या है?’’ दादाजी ने हैरानी से पूछा।  भारती तो पहले से रो ही रही थी। दादाजी को गुस्से में देखकर वो और जोर-जोर से रोने लगी।  दादाजी ने भारती के सिर पर प्यार से हाथ रखा। पुचकारते हुए बोले-‘‘मैं जानता हूं। हमारी भारती ने कोई गलत काम नहीं किया होगा। मुझे पता है कि भारती अपने दादा को सच-सच बताएगी।’’ यह सुनते ही भारती ने रोना बंद कर दिया।
पंक्ति २६: पंक्ति १८:
‘‘तो अब भानुली की माँ कैसी है?’’ दादाजी ने पूछा।
‘‘तो अब भानुली की माँ कैसी है?’’ दादाजी ने पूछा।
‘‘पता नहीं। मैं फिर उसके घर नहीं गई। अब वो मुझसे और रुपए मांगेगी तो मैं कहां से लाऊँगी?’’ भारती उदास हो गई।
‘‘पता नहीं। मैं फिर उसके घर नहीं गई। अब वो मुझसे और रुपए मांगेगी तो मैं कहां से लाऊँगी?’’ भारती उदास हो गई।
‘‘मैं हूँ न। मेरी प्यारी बच्ची। हम तीनों अभी भानुली के घर जाएंगे। उसकी मम्मी को अच्छे डाॅक्टर को दिखाएंगे। क्यों भरत, तुम चलोगे न हमारे साथ?’’ दादाजी ने भारती का माथा चूमते हुए पूछा।
‘‘मैं हूँ न। मेरी प्यारी बच्ची। हम तीनों अभी भानुली के घर जाएंगे। उसकी मम्मी को अच्छे डॉक्टर को दिखाएंगे। क्यों भरत, तुम चलोगे न हमारे साथ?’’ दादाजी ने भारती का माथा चूमते हुए पूछा।
‘‘हां दादा जी। अभी चलो। ये मेरे दो सौ तीस रुपए भी भानुली की मम्मी को दे देंगे। भानुली अच्छी लड़की है। उसने स्कूल में मेरी कई बार मदद की है।’’ भरत ने कहा।
‘‘हां दादा जी। अभी चलो। ये मेरे दो सौ तीस रुपए भी भानुली की मम्मी को दे देंगे। भानुली अच्छी लड़की है। उसने स्कूल में मेरी कई बार मदद की है।’’ भरत ने कहा।
दादा जी ने कहा-‘‘मेरे प्यारे बच्चों। तुम दोनों सही बचत करने का मतलब समझ गए हो।’’
दादा जी ने कहा-‘‘मेरे प्यारे बच्चों। तुम दोनों सही बचत करने का मतलब समझ गए हो।’’
भारती का चेहरा चमक उठा। वो कभी दादाजी की ओर देख रही थी और कभी अपने बड़े भाई भरत को। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे तीनों भानुली के घर की ओर जा रहे हैं। 000
भारती का चेहरा चमक उठा। वो कभी दादाजी की ओर देख रही थी और कभी अपने बड़े भाई भरत को। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे तीनों भानुली के घर की ओर जा रहे हैं।
-मनोहर चमोली ‘मनु’.
 
-मनोहर चमोली ‘मनु’, पो0बाॅ0-23,पौड़ी ;गढ़वाल पिन-246001 ़मो0-9412158688  
 
-मनोहर चमोली ‘मनु’, पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल, पिन-246001, मो.-9412158688  


नितांत मौलिक और स्वरचित रचना है।
नितांत मौलिक और स्वरचित रचना है।
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[[Category:स्वतंत्र लेख]]

१३:४९, १५ अक्टूबर २०१३ का अवतरण

सही बचत -मनोहर चमोली ‘मनु’

भरत और भारती भाई-बहिन थे। भरत बड़ा था और भारती छोटी थी। भरत स्वभाव से चंचल था। मौज-मस्ती और लापरवाही उसमें कूट-कूट कर भरी थी। ज़्यादा लाड-प्यार के कारण वो जिद्दी भी हो गया था। अक्सर घर में वो शैतानी करता और बड़ी चालाकी से आरोप भारती पर लगा देता। भारती कुछ समझ ही नहीं पाती। अक्सर भरत के किए की सजा भारती को मिलती। भारती के मन में ये बात घर कर गई थी कि घर में गलत काम कोई भी करे, मगर सजा उसे ही मिलनी है। यही कारण था कि वो भरत के द्वारा बिगाडे़ हुए कामों को संवारने में ही जुटी रहती। परिणाम यह हुआ कि भारती भरत से ज़्यादा गंभीर हो गई। वो चुप रहती। हर बात के अच्छे और बुरे पक्ष पर सोचती, तब जाकर कदम उठाती। वहीं भरत के मन में ये बात गहरे ढंग से बैठ गई थी कि वो कुछ भी करे, उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। गर्मियों की छुट्टियां पड़ गईं। भरत और भारती बहुत खुश थे। गांव से उनके दादाजी जो आ गए थे। सुबह-शाम वो दोनों को घुमाने ले जाते। भरत और भारती को तरह-तरह के व्यंजन खिलाते। दादाजी दो-चार दिनों में ही समझ गए कि भरत और भारती में बहुत अंतर है।
         एक दिन की बात है। दादाजी ने भारती से कहा-‘‘बेटी। तुम तो कभी किसी चीज़ की मांग ही नहीं करती। भरत को देखो, हमेशा कुछ न कुछ खाने की ज़िद करता रहता है।’’ भारती पहले चुप रही। फिर बोली-‘‘दादाजी। भरत भाई की इच्छाएं आप पूरी कर देते हैं, तो मेरी भी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं। मैं जो कुछ सोचती हूं, भाई पहले ही उसकी मांग आपसे कर लेता है। फिर मुझे भी तो वो चीज़ मिल जाती है, जो भरत को मिलती है।’’ दादाजी समझ गए कि भरत के मन में खर्च करने की आदत विकसित होती जा रही है। वहीं भारती संकोच के कारण ही सही अपनी इच्छाएं मन ही मन में रखती है।
शाम का समय था। दादाजी दो बड़े मिट्टी के गुल्लक ले आए। भरत और भारती आंगन में खेल रहे थे। दादाजी ने दोनों को बुलाते हुए कहा-‘‘ये लो। तुम दोनों के लिए अलग-अलग गुल्लक। अब देखते हैं कि तुम दोनों में से कौन ज्यादा रुपए जमा करता है। आज से तुम्हें जो भी जेब खर्च मिलेगा, उसमें से कुछ हिस्सा तुम्हें गुल्लक में डालना होगा। मैं जाने से पहले उसे कुछ खास ईनाम दूंगा, जो ज्यादा बचत करेगा। तुम अपने गुल्लक में पहचान का निशान लगा लो।’’
दिन गुजरते गए। गर्मियों की छुट्टियां खत्म होने को थीं। भरत और भारती गुल्लक में रुपए जमा करने का एक भी मौका नहीं गंवाते। भारती मम्मी और पापा के छोटे-मोटे काम करती और बदले में एक-दो और पांच रुपए का सिक्का ईनाम में पाती। अपने जेब खर्च का ज़्यादातर हिस्सा भी वो गुल्लक में डालती जाती। वहीं भरत भी रुपए जमा कर रहा था। मगर वो खाने-पीने की चीजों में ज़्यादा रुपए खर्च कर ही देता था।
एक दिन की बात है। भरत और भारती गुल्लकों को लेकर झगड़ रहे थे। तभी वहां दादाजी आ गए। दादाजी को देखते हुए भरत बोला-‘‘दादाजी भारती ने अपना गुल्लक बदल दिया है। मैंने अपने और भारती के गुल्लक में कलर पेंसिल से निशान लगाया था। मेरे वाले गुल्लक में वो निशान है, मगर भारती के गुल्लक में वो निशान नहीं है। मुझे लगता है भारती ने जरूर कोई गड़बड़ की है।’’
दादाजी बोले-‘‘भरत। तुम्हारा गुल्लक तो तुम्हारे ही पास है न? वो तो नहीं बदला गया?’’ भरत बोला-‘‘नहीं दादाजी। मेरा गुल्लक तो मेरे ही पास है। मगर।’’
‘‘अगर-मगर कुछ नहीं। तुम्हें भारती के गुल्लक से क्या मतलब। जरूर तुमने कोई गड़बड़ की है। लाओ। दोनों अपने-अपने गुल्लक मुझे दो। इन्हें अभी फोड़कर देखा जाएगा।’’ दादाजी बोले।
यह सुनते ही भारती रोने लगी। दादाजी बोले-‘‘अरे! तुम क्यों रो रही हो। मुझे मालूम है कि किसके गुल्लक में ज़्यादा रुपए जमा हुए होंगे।’’ यह कहते ही दादाजी ने दोनों के गुल्लक अपने हाथों में ले लिए। दादाजी ने भरत का गुल्लक पहले फोड़ा। भरत के गुल्लक में दो सौ तीस रुपए निकले। अब भारती के गुल्लक की बारी थी। दादाजी के साथ-साथ भरत भी हैरान था। भारती के गुल्लक में केवल पच्चीस रुपए ही निकले।
‘‘भारती! ये क्या है? तुम्हारे गुल्लक में बस इतने ही रुपए! सच-सच बताओ। तुमने जो बचत की थी, उसके रुपए कहां गए। और ये जो भरत गुल्लक बदलने वाली बात कह रहा था, वो क्या है?’’ दादाजी ने हैरानी से पूछा। भारती तो पहले से रो ही रही थी। दादाजी को गुस्से में देखकर वो और जोर-जोर से रोने लगी। दादाजी ने भारती के सिर पर प्यार से हाथ रखा। पुचकारते हुए बोले-‘‘मैं जानता हूं। हमारी भारती ने कोई गलत काम नहीं किया होगा। मुझे पता है कि भारती अपने दादा को सच-सच बताएगी।’’ यह सुनते ही भारती ने रोना बंद कर दिया।
वो सुबकते हुए बोली-‘‘दादाजी ये नया गुल्लक है। ये मैंने तीन-चार दिन पहले ही खरीदा है। पुराने वाले गुल्लक को मैंने तोड़ दिया था।’’
‘‘तोड़ दिया ! पर क्यों? गुल्लक के रुपयों का तूने क्या किया?’’ भरत बोला। दादाजी ने भरत को अंगुली से इशारा करते हुए चुप रहने को कहा। फिर वो भारती से प्यार से बोले-‘‘गुल्लक में कितने रुपए जमा हुए थे?’’
‘‘तीन सौ पांच रुपए। पांच रुपए का मैंने ये नया वाला गुल्लक खरीदा है।’’ भारती ने सिसकते हुए कहा।
‘‘और वो तीन सौ रुपए कहां हैं?’’ इस बार दादाजी ने बड़े धीरे से पूछा। भारती थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली-‘‘वो तो मेरे पास नहीं हैं।’’
‘‘नहीं हैं! तो कहां गए?’’ अब दादाजी ने भारती को गोद में उठा लिया।
‘‘भानुली की माँ बीमार है। भानुली मेरे साथ पढ़ती है। उसके पापा नहीं है। मैंने वो तीन सौ रुपए दवाई के लिए भानुली को दे दिए हैं। भानुली ने कहा है कि जब उसकी मम्मी ठीक हो जाएगी, तो वो मेरे सारे रुपये लौटा देगी।’’ भारती ने रूक-रूक कर कहा।
‘‘तो अब भानुली की माँ कैसी है?’’ दादाजी ने पूछा।
‘‘पता नहीं। मैं फिर उसके घर नहीं गई। अब वो मुझसे और रुपए मांगेगी तो मैं कहां से लाऊँगी?’’ भारती उदास हो गई।
‘‘मैं हूँ न। मेरी प्यारी बच्ची। हम तीनों अभी भानुली के घर जाएंगे। उसकी मम्मी को अच्छे डॉक्टर को दिखाएंगे। क्यों भरत, तुम चलोगे न हमारे साथ?’’ दादाजी ने भारती का माथा चूमते हुए पूछा।
‘‘हां दादा जी। अभी चलो। ये मेरे दो सौ तीस रुपए भी भानुली की मम्मी को दे देंगे। भानुली अच्छी लड़की है। उसने स्कूल में मेरी कई बार मदद की है।’’ भरत ने कहा।
दादा जी ने कहा-‘‘मेरे प्यारे बच्चों। तुम दोनों सही बचत करने का मतलब समझ गए हो।’’
भारती का चेहरा चमक उठा। वो कभी दादाजी की ओर देख रही थी और कभी अपने बड़े भाई भरत को। उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि वे तीनों भानुली के घर की ओर जा रहे हैं।


-मनोहर चमोली ‘मनु’, पोस्ट बॉक्स-23, पौड़ी गढ़वाल, पिन-246001, मो.-9412158688

नितांत मौलिक और स्वरचित रचना है।