"किरात": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) No edit summary |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Adding category Category:जातियाँ और जन जातियाँ (Redirect Category:जातियाँ और जन जातियाँ resolved) (को हटा दिया गया हैं।)) |
||
पंक्ति ३४: | पंक्ति ३४: | ||
<references/> | <references/> | ||
[[Category:हिन्दी_विश्वकोश]] | [[Category:हिन्दी_विश्वकोश]] | ||
[[Category:जातियाँ और जन जातियाँ]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ |
०९:४०, ३१ जुलाई २०११ का अवतरण
किरात
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 10 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | विजयेंद्र कुमार माथुर |
किरात भारत की एक प्राचीन अनार्य (संभवत: मंगोल) जाति जिसका निवासस्थान मुख्यत: पूर्वी हिमालय के पर्वतीय प्रदेश में था। प्राचीन संस्कृत साहित्य में किरातों का संबंध पहाड़ों और गुफाओं से जोड़ा गया है और उनकी मुख्य जीविका आखेट बताई गई है। अथर्ववेद में सर्पविष उतारने की ओषधियों के संबंध में किरात बालिका की स्वर्ण कुदाल द्वारा पर्वतभूमि से भेषज खोदने का उल्लेख है-[१]। वाजसनेयी संहिता (३०, १६) और तैत्तिरीय ब्राह्मण में किरातों का संबंध गुहा से बताया गया है-गुहाभ्य : किरातम। बाल्मीकि रामायण में किरात नारियों के तीखे जूड़ों का वर्णन है और उनका शरीर वर्ण सोने के समान वर्णित है-किरातास्तीक्षणचूडाश्च हेमाभा: प्रियदर्शना: किष्किधाकांड [२]।
महाभारत में किरातों के विषय में अनेक निर्देश मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उनकी गिनती बर्बर या अनार्य जातियों में की जाती थी-उग्राश्च भीमकर्माणस्तुषारायवना: खसा:, आंध्रकाश्च पुलिंदाश्च किराताश्चोग्रविक्रमा:। म्लेच्छाश्च पार्वतीयाश्च, कर्ण [३]। इन्हें हिमालय पर्वत में निभृत बताया गया है हिमवद्दुर्ग निलया: किराता: द्रोण [४]। सभापर्व, अध्याय [५] में प्राग्जयोतिषपुर (आसाम) के निकट अर्जुन की किरातों के साथ हुई लड़ाई का वर्णन है। महाभारत के सभापर्व के अंतगर्त उपायन उपपर्व में युधिष्ठिर के पास भेंट में किरात लोगों द्वारा लाए गए उपहारों का वर्णन है [६]। इसी प्रसंग में किरातों को फल-मूलभोजी, चर्मवस्त्रधारी, भयानक शस्त्र चलाने वाले और क्रूरकर्मा बताया गया है।
संस्कृत काव्य में किरातों का सबसे सुंदर वर्णन शायद कालिदास ने किया है-भागीरथी निर्झरसीकराणं बोढा मुहु: कंपित देवदारु :। युद्वायुरन्विष्टमृगै : किरातैरासेव्यते भिन्नशिखंडिबर्ह :,[७] यहाँ-हिमालय पर्वत पर-गंगा के निर्झरों से सिक्त, देवदारुवृक्षों को बार-बार कंपायमान करने वाली और मयूरों के पंखों के भार को अस्तव्यस्त कर देने वाली वायु का (कस्तूरी?) मृगों की खोज में घूमनेवाले किरात सेवन करते हैं। रघु ने हिमालय प्रदेश की विजय के पश्चात् जब वहाँ से अपनी सेना का पड़ाव उठा लिया तब उस स्थान के वन्य किरातों ने रघु की सेना के हाथियों की ऊँचाई का अनुमान उनके गले के रस्सों की रगड़ से देवदारु वृक्षों के तनों पर उत्कीर्ण रेखाओं से किया [८]।
प्लिनी, तॉलेमी और मेर्गस्थनीज़ के लेखों में भी किरातों के विषय में कई उल्लेख हैं। तॉलेमी ने इन्हें किरादिया (Kirrhadia) िलखा है और भारत में इनकी विस्तृत बस्तियों का उल्लेख किया है। खारवेल के प्रसिद्ध अभिलेखों में चीन और किरात दोनों का एकत्र उल्लेख है।
जान पड़ता है, कालांतर में किरात लोग अपने मूलनिवास हिमालय से अतिरिक्त भारत के अन्य भागों में भी फैल गए थे। साँची (मध्य प्रदेश) के स्तूप पर किसी किरातभिक्षु के दान का उल्लेख है और दक्षिण भारत में नागाजुनीकोंड के एक अभिलेख में भी किरातों का वर्णन हुआ है। महाभारत में उपाययनपर्व के उपर्युक्त निर्देश में किरातों की भेंट में चंदन की भी गणना की गई है जिससे यह प्रतीत होता है कि कुछ किरातों की बस्तियाँ उस समय मैसूर आदि के समीपवर्ती प्रदेश में भी रही होगी। मनुस्मृति में कई अन्य अनार्य जातियों के समान किरातों की भी व्रात्य क्षत्रियों में गणना की गई है-पारदा: पह्लवाश्चीना: किराता दरदा: खशा: (१०, ४३-४४)। यह भी संभव है कि किरात शब्द का प्रयोग वन्य जातियों के लिए साधारणत: होने लगा हो। सिक्किम के पश्चिम स्थित मोरग में आज भी किरात नामक एक जाति बसती है। संभवत: किरातों का मूल निवासस्थान यही रहा होगा।