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कंबुज, कंबोज कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम। भूतपूर्व इंडोचीन प्रायद्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग ६०० वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात्‌ इस क्षेत्र में कंबुज या कंबोज का महान्‌ राज्य स्थापित हुआ जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 1४वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं।
कंबुज, कंबोज कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम। भूतपूर्व इंडोचीन प्रायद्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग ६०० वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात्‌ इस क्षेत्र में कंबुज या कंबोज का महान्‌ राज्य स्थापित हुआ जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं।


कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान्‌ शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज (कश्मीर का राजौरी जिला तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज') से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था। कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात्‌ भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकासयुग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्णशीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात्‌ उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और ईशानपुर नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था। ईशानवर्मन के बाद भववर्मन्‌ द्वितीय और जयवर्मन्‌ प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन्‌ के पश्चात्‌ ६७४ ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे ८वीं सदी ई. में जावा के शैलेंद्र राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। ८वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है किंतु ९वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन्‌ द्वितीय (८०2-८५४ ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान्‌ ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन्‌ ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था।
कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान्‌ शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज (कश्मीर का राजौरी जिला तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज') से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था। कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात्‌ भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकासयुग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्णशीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात्‌ उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और ईशानपुर नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था। ईशानवर्मन के बाद भववर्मन्‌ द्वितीय और जयवर्मन्‌ प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन्‌ के पश्चात्‌ ६७4 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे ८वीं सदी ई. में जावा के शैलेंद्र राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। ८वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है किंतु ९वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन्‌ द्वितीय (८०2-८५4 ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान्‌ ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन्‌ ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था।


जयवर्मन्‌ द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महरानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम कंबुज या कंबोज का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन्‌ द्वितीय के पश्चात्‌ भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्रायद्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन्‌ ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन्‌ (८८९-९०८ ई.) हिंदू शास्त्रों और संस्कृत काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत अभिलेख प्राप्य हैं। इस काल में हिंदू धर्म, साहित्य और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन्‌ ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम (द्र. 'अंग्कोर थोम' लेख) भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। ९४४ ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन्‌ था जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्यशैली में लिखे मिलते हैं। 1००1 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।
जयवर्मन्‌ द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महरानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम कंबुज या कंबोज का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन्‌ द्वितीय के पश्चात्‌ भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्रायद्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन्‌ ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन्‌ (८८९-९०८ ई.) हिंदू शास्त्रों और संस्कृत काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत अभिलेख प्राप्य हैं। इस काल में हिंदू धर्म, साहित्य और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन्‌ ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम (द्र. 'अंग्कोर थोम' लेख) भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। ९44 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन्‌ था जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्यशैली में लिखे मिलते हैं। 1००1 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।


सूर्यवर्मन्‌ प्रथम (मृत्यु 1०४९ ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन्‌ ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन्‌ से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफी अशांति रही।
सूर्यवर्मन्‌ प्रथम (मृत्यु 1०4९ ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन्‌ ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन्‌ से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफी अशांति रही।


जयवर्मन्‌ सप्तम (अभिषेक 11८1) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन्‌ ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ्ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 122० ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन्‌ सप्तम की गणना कंबोज के महान्‌ राज्यनिर्माताओं में की जाती है क्योंक उसमे समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनीचरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन्‌ सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक्‌ एक ऊँचा परकोटा था और 11० गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे जिनसे पाँच विशाल राजपथ (1०० फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट् हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में ६६,६2५ व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,४०० ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में ७८९ मंदिर तथा 1०2 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।
जयवर्मन्‌ सप्तम (अभिषेक 11८1) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन्‌ ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ्ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 122० ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन्‌ सप्तम की गणना कंबोज के महान्‌ राज्यनिर्माताओं में की जाती है क्योंक उसमे समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनीचरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन्‌ सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक्‌ एक ऊँचा परकोटा था और 11० गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे जिनसे पाँच विशाल राजपथ (1०० फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट् हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में ६६,६2५ व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,4०० ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में ७८९ मंदिर तथा 1०2 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।


जयवर्मन्‌ सप्तम के पश्चात्‌ कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ इतिहासलेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में चीन के सम्राट् कुबले खाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 12९६ ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है जिसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में 1९०2 ई. में हुआ था। 1४वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया। 1९वीं सदी में फ्रांसीसी का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे, वे 1६वीं सदी में ही इस प्रायद्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1८५४ ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ्रांसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1८५८-1९०४) ने 11 अगस्त, 1८६3 ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले ८० वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा। (कंबोडिया, फ्रेंच का रूपांतर है। फ्रेंच नाम कंबोज या कंबुजिय से बना है।) 1९०४-४1 में स्याम और फ्रांसीसियों के बीच होनेवाले युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ 1९४५ ई. में यह भाग उसे पुन: प्राप्त हो गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था जिसके परिणामस्वरूप फ्रांस ने कंबोडिया को एक नया संविधान प्रदान किया (मई ६, 1९४७)। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्रप्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने 1९४९ ई. (८ नवंबर) में फ्रांसीसियों को एक नए समणैते पर हस्ताक्षर करने पर विवश कर दिया जिससे उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता को स्वीकार कर लिया, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन के अंतर्गत ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम प्रधान मंत्री चुने गए।
जयवर्मन्‌ सप्तम के पश्चात्‌ कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ इतिहासलेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में चीन के सम्राट् कुबले खाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 12९६ ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है जिसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में 1९०2 ई. में हुआ था। 14वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया। 1९वीं सदी में फ्रांसीसी का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे, वे 1६वीं सदी में ही इस प्रायद्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1८५4 ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ्रांसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1८५८-1९०4) ने 11 अगस्त, 1८६3 ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले ८० वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा। (कंबोडिया, फ्रेंच का रूपांतर है। फ्रेंच नाम कंबोज या कंबुजिय से बना है।) 1९०4-41 में स्याम और फ्रांसीसियों के बीच होनेवाले युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ 1९4५ ई. में यह भाग उसे पुन: प्राप्त हो गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था जिसके परिणामस्वरूप फ्रांस ने कंबोडिया को एक नया संविधान प्रदान किया (मई ६, 1९4७)। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्रप्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने 1९4९ ई. (८ नवंबर) में फ्रांसीसियों को एक नए समणैते पर हस्ताक्षर करने पर विवश कर दिया जिससे उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता को स्वीकार कर लिया, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन के अंतर्गत ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम प्रधान मंत्री चुने गए।


==धर्म, भाषा, सामाजिक जीवन==
==धर्म, भाषा, सामाजिक जीवन==

०७:३०, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
कंबुज
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 357-358
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक विजयेंद्रकुमार माथुर
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1975 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी

कंबुज, कंबोज कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम। भूतपूर्व इंडोचीन प्रायद्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग ६०० वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात्‌ इस क्षेत्र में कंबुज या कंबोज का महान्‌ राज्य स्थापित हुआ जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं।

कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान्‌ शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज (कश्मीर का राजौरी जिला तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज') से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था। कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात्‌ भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकासयुग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्णशीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात्‌ उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और ईशानपुर नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था। ईशानवर्मन के बाद भववर्मन्‌ द्वितीय और जयवर्मन्‌ प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन्‌ के पश्चात्‌ ६७4 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे ८वीं सदी ई. में जावा के शैलेंद्र राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। ८वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है किंतु ९वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन्‌ द्वितीय (८०2-८५4 ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान्‌ ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन्‌ ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था।

जयवर्मन्‌ द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महरानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम कंबुज या कंबोज का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन्‌ द्वितीय के पश्चात्‌ भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्रायद्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन्‌ ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन्‌ (८८९-९०८ ई.) हिंदू शास्त्रों और संस्कृत काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत अभिलेख प्राप्य हैं। इस काल में हिंदू धर्म, साहित्य और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन्‌ ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम (द्र. 'अंग्कोर थोम' लेख) भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। ९44 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन्‌ था जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्यशैली में लिखे मिलते हैं। 1००1 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।

सूर्यवर्मन्‌ प्रथम (मृत्यु 1०4९ ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन्‌ ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन्‌ से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफी अशांति रही।

जयवर्मन्‌ सप्तम (अभिषेक 11८1) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन्‌ ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ्ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 122० ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन्‌ सप्तम की गणना कंबोज के महान्‌ राज्यनिर्माताओं में की जाती है क्योंक उसमे समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनीचरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन्‌ सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक्‌ एक ऊँचा परकोटा था और 11० गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे जिनसे पाँच विशाल राजपथ (1०० फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट् हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में ६६,६2५ व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,4०० ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में ७८९ मंदिर तथा 1०2 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।

जयवर्मन्‌ सप्तम के पश्चात्‌ कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ इतिहासलेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में चीन के सम्राट् कुबले खाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 12९६ ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है जिसका अनुवाद फ्रांसीसी भाषा में 1९०2 ई. में हुआ था। 14वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया। 1९वीं सदी में फ्रांसीसी का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे, वे 1६वीं सदी में ही इस प्रायद्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1८५4 ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ्रांसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1८५८-1९०4) ने 11 अगस्त, 1८६3 ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले ८० वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा। (कंबोडिया, फ्रेंच का रूपांतर है। फ्रेंच नाम कंबोज या कंबुजिय से बना है।) 1९०4-41 में स्याम और फ्रांसीसियों के बीच होनेवाले युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ 1९4५ ई. में यह भाग उसे पुन: प्राप्त हो गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था जिसके परिणामस्वरूप फ्रांस ने कंबोडिया को एक नया संविधान प्रदान किया (मई ६, 1९4७)। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्रप्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने 1९4९ ई. (८ नवंबर) में फ्रांसीसियों को एक नए समणैते पर हस्ताक्षर करने पर विवश कर दिया जिससे उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता को स्वीकार कर लिया, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन के अंतर्गत ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम प्रधान मंत्री चुने गए।

धर्म, भाषा, सामाजिक जीवन

कंबोज वास्तविक अर्थ में भारतीय उपनिवेश था। वहाँ के निवासियों का धर्म, उनकी संस्कृति एवं सभ्यता, साहित्यिक परंपराएँ, वास्तुकला और भाषा-सभी पर भारतीयता की अमिट छाप थी जिसके दर्शन आज भी कंबोज के दर्शक को अनायास ही हो जाते हैं। हिंदू धर्म और वैष्णव संप्रदाय और तत्पश्चात्‌ (1००० ई. के बाद) बौद्ध धर्म कंबोज के राजधर्म थे और यहाँ के अनेक संस्कृत अभिलेखों को उनकी धार्मिक तथा पौराणिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण भारतीय अभिलेखों से अलग करना कठिन ही जान पड़ेगा। उदाहरण के लिए राजेंद्रवर्मन्‌ के एक विशाल अभिलेख का केवल एक अंश यहाँ प्रस्तुत है जिसमें शिव की वंदना की गई है :

रूपं यस्य नवेन्दुमंडितशिखं त्रय्‌या: प्रतीतं परं

बीजं ब्रह्महरीश्वरोदयकरं भिन्नं कलाभिस्त्रिधा।

साक्षारदक्षरमामनन्ति मुनयो योगोधिगम्यं नमस्‌

संसिद्ध्यै प्रणवात्मने भगवते तस्मै शिवायास्तु वम्‌।।

पुराने अरब पर्यटकों ने कंबोज को हिंदू देश के नाम से ठीक ही अभिहित किया। कंबुज की राजभाषा प्राचीन काल में संस्कृत थी, उसका स्थान धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण पाली ने ले लिया और आज भी यह धार्मिक क्षेत्र में यहाँ की मुख्य भाषा बनी हुई है। कंबुज भाषा में संस्कृत के हजारों शब्द अपने कंबुजी या ख्मेर रूप में आज भी पाए जाते हैं (जैसे-तेप्‌दा उ देवता, शात्स उ शासन, सुओर उ स्वर्ग, फीमेअन उ विमान)। ख्‌मेर लिपि दक्षिणी भारत की पल्लव और पूर्वी चालुक्य लिपियों के मेल से बनी है। कंबोज की वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट है। अंग्कोरथोम का बेयोन मंदिर दक्षिण भारत के मंदिरों से बहुत मिलता-जुलता है। इसके शिखर में भी भारतीय मंदिरों के शिखरों की स्पष्ट झलक मिलती है। इस मंदिर और ऐलोरा के कैलास मंदिर के कलातत्व, विशेषत: मूर्तिकारी तथा आलेख्य विषयों और दृश्यों में अद्भुत साम्य है।

कंबोज की सामाजिक दशा का सुंदर चित्रण, शू-तान-कुतान के वर्णन (13वीं सदी का अंत) इस प्रकार है-

विद्वानों को यहाँ पंकि (पंडित), भिक्षुओं को शू-कू (भिक्षु) और ब्राह्मणों को पा-शो-वेई (पाशुपत) कहा जाता है। पंडित अपने कंठ में श्वेत धागा (यज्ञोपवीत) डाले रहते हैं, जिसे वे कभी नहीं हटाते। भिक्षु लोग सिर मुड़ाते और पीत वस्त्र पहनते हैं। वे मांस मछली खाते हैं पर मद्य नहीं पीते। उनकी पुस्तकें तालपत्रों पर लिखी जाती हैं। बौद्ध भिक्षुणियाँ यहाँ नहीं है। पाशुपत अपने केशों को लाल या सफेद वस्त्रों से ढके रहते हैं। कंबोज के सामान्य जन श्याम रंग के तथा हृष्टपुष्ट हैं। राजपरिवार की स्त्रियाँ गौर वर्ण हैं। सभी लोग कटि तक शरीर विवस्त्र रखते हैं और नंगे पाँव घूमते हैं। राजा पटरानी के साथ झरोखे में बैठकर प्रजा को दर्शन देता है।

लिखने के लिए कृष्ण मृग काचमड़ा भी काम में आता है। लोग स्नान के बहुत प्रेमी हैं। यहाँ स्त्रियाँ व्यापार का काम भी करती हैं। गेहूँ, हल्दी, चीनी, रेशम के कपड़े, राँगा, चीनी बर्तन कागज आदि यहाँ व्यापार की मुख्य वस्तुएँ हैं।

गाँवों में प्रबंध करने के लिए एक मुखिया या मयिची रहता है। सड़कों पर यात्रियों के विश्राम करने के लिए आवास बने हुए हैं। (वि.कु.मा.)

कंबोडिया-कंबोज का अर्वाचीन नाम है। यह हिंद चीन प्रायद्वीप का एक देश है जो सन्‌ 1९५५ ई. में फ्रांसीसी आधिपत्य से मुक्त हुआ है। 1९वीं शताब्दी के पूर्व यह प्रदेश ख़्मेर राज्य का अंग था किंतु 1८६3 ई. में फ्रांसीसियों के आधिपत्य में आ गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में कंबोडिया पर जापान का अधिकार था।

कंबोडिया का क्षेत्रफल 1,८1,००० वर्ग मील है। इसकी पश्चिमी और उत्तरी सीमा पर स्याम तथा लाओ और पूर्वी सीमा पर दक्षिणी वियतनाम देश हैं। दक्षिण-पश्चिम भाग स्याम की खाड़ी का तट है। कंबोडिया तश्तरी के आकर की एक घाटी है जिसे चारों ओर से पर्वत घेरे हुए हैं। घाटी में उत्तर से दक्षिण की ओर मीकांग नदी बहती है। घाटी के पश्चिमी भाग में तांगले नामक एक छिछली और विस्तृत झील है जो उदाँग नदी द्वारा मीकांग से जुड़ी हुई है।

कंबोडिया की उपजाऊ मिट्टी और मौसमी जलवायु में चावल प्रचुर परिमाण में होता है। अब भी विस्तृत भूक्षेत्र श्रमिकों के अभाव में कृषिविहीन पड़े हैं। यहाँ की अन्य प्रमुख फसलें तुबाकू, कहवा, नील और रबर हैं। पशुपालन का व्यवसाय विकासोन्मुख है। पर्याप्त जनसंख्या मछली पकड़कर अपनी जीविका अर्जित करती है। चावल और मछली कंबोडिया की प्रमुख निर्यात की वस्तुएँ हैं। इस देश का एक विस्तृत भाग बहुमूल्य वनों से आच्छादित है। मीकांग और टोनलेसाप के संगम पर स्थित प्नॉम पेन कंबोडिया की राजधानी है। बड़े-बड़े जलयान इस नगर तक आते हैं। यह नगर कंबोडिया की विभिन्न भागों से सड़कों द्वारा जुड़ा है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

“खण्ड 2”, हिन्दी विश्वकोश, 1975 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी, 357-358।