"हम्मीर चौहान": अवतरणों में अंतर
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१०:४६, १४ जून २०१५ का अवतरण
हम्मीर चौहान
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 12 |
पृष्ठ संख्या | 290 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | कमलापति त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | दशरथ शर्मा |
संदर्भ ग्रंथ | हम्मीर महाकाव्य; तारीखे फिरोजशाही, श्री हरविलास शारदा, हम्मीर ऑव रणथंभोर, दशरथ शर्मा, प्राचीन चौहान राजवंश |
हम्मीर चौहान पृथ्वीराज की मृत्यु के बाद उसके पुत्र गोविंद ने रणथंभोर में अपने राज्य की स्थापना की। हम्मीर उसी का वशंज था। सन् 1282 ई. में जब उसका राज्याभिषेक हुआ गुलाम वंश उन्नति के शिखर पर था। किंतु चार वर्षों के अंदर ही सुल्तान बल्बन की मृत्यु हुई; और चार वर्षों के बाद गुलाम वंश की समाप्ति हो गई। हम्मीर ने इस राजनीतिक परिस्थिति से लाभ उठाकर चारों ओर अपनी शक्ति का प्रसार किया। उसने मालवा के राजा भोज को हराया, मंडलगढ़ के शासक अर्जुन को कर देने के लिए विवश किया, और अपनी दिग्विजय के उपलक्ष्य में एक कोटियज्ञ किया। सन् 1290 में पासा पलटा। दिल्ली में गुलाम वंश का स्थान साम्राज्याभिलाषी खल्जी वंश ने लिया, और रणथंभौर पर मुसलमानों के आक्रमण शुरू हो गए। जलालुद्दीन खल्जी को विशेष सफलता न मिली। तीन चार साल तक अलाउद्दीन ने भी अपनी शनैश्चरी दृष्टि इसपर न डाली।
किंतु सन् 1300 के आरंभ में जब अलाउद्दीन के सेनापति उलूग खाँ की सेना गुजरात की विजय के बाद दिल्ली लौट रही थी, मंगोल नवमुस्लिम सैनिकों ने मुहम्मदशाह के नेतृत्व में विद्रोह किया और रणथंभोर में शरण ली। अलाउद्दीन की इस दुर्ग पर पहले से ही आँख थी, हम्मीर के इस क्षत्रियोचित कार्य से वह और जलमुन गया। अलाउद्दीन को पहले आक्रमण में कुछ सफलता मिली। दूसरे आक्रमण में खल्जी बुरी तरह परास्त हुए; तीसरे आक्रमण में खल्जी सेनापति नसरतखाँ मारा गया और मुसलमानों को घेरा उठाना पड़ा। चौथे आक्रमण में स्वयं अलाउद्दीन ने अपनी विशाल सेना का नेतृत्व किया। धन और राज्य के लोभ से हम्मीर के अनेक आदमी अलाउद्दीन से जा मिले। किंतु वीर्व्राती हम्मीर ने शरणागत मुहम्मद शाह को खल्जियों के हाथ में सौंपना स्वीकृत न किया। राजकुमारी देवल देवी और हम्मीर की रानियों ने जौहर की अग्नि में प्रवेश किया। वीर हम्मीर ने भी दुर्ग का द्वार खोलकर शत्रु से लोहा लिया और अपनी आन, अपने हठ, पर प्राण न्यौछावर किए।
टीका टिप्पणी और संदर्भ