"महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 73-101" के अवतरणों में अंतर

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== द्वितीय अध्‍याय: पर्वसंग्रह पर्व (अनुक्रमणिकापर्व)==
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: आदिपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 111-142 का हिन्दी अनुवाद</div>
|+ <font size="+1">महाभारत पर्वसंग्रह पर्व द्वितीय अध्याय श्लोक 111-142 हिन्दी अनुवाद</font>
 
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चैत्ररथ पर्व में गंगा के तट पर अर्जुन ने अंगार पर्ण गन्धर्व को जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसी के मुख से तपती, वसिष्ठ और ओर्वके उत्तम आख्यान सुने। फिर [[अर्जुन]] ने वहाँ से अपने सभी भाईयों के साथ पाञचाल नगर के बड़े-बड़े राजाओं से भरी सभा में लक्ष्य वेध करके [[द्रौपदी]] को प्राप्त किया-यह कथा भी इसी पर्व में है। वहीं [[भीम|भीमसेन]] और अर्जुन ने रणांगण में युद्ध के लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओं तथा शल्य और कर्ण को भी अपने पराक्रम से पराजित कर दिया। महापति [[बलराम]] एवं भगवान् [[श्रीकृष्ण]] ने जब भीमसेन एवं अर्जुन के अपरिमित और अतिमानुष बल वीर्य को देखा, तब उन्हे यह शंका हुई कि कहीं ये [[पाण्डव]] तो नहीं हैं। फिर वे दोनों उनसे मिलने के लिये कुम्हार के घर आये। इसके पश्चात् द्रुपदन ‘पाँचों पाण्डवें की एक ही पत्नी कैसे हो सकती है’ इस सम्बन्ध में विचार विमर्श किया। इसी वैवाहिक-पर्व में पाँच इन्द्रों का अद्भुत उपाख्यान और द्रौपदी के देव विहित तथा मनुष्य परम्परा के विपरीत विवाह का वर्णन हुआ है। इस के बाद धृतराष्ट्र ने पाण्डों के पास [[विदुर]] जी को भेजा हैं, विदुर जी पाण्डवों से मिले है तथा उन्हें श्रीकृष्ण दशर्न हुआ है। इसके पश्चात् [[धृतराष्ट्र]] का पाण्डवों को आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का निवास करना एवं नारद जी की आज्ञा से द्रौपदी के पास आने जाने के सम्बन्ध में समय निर्धारण आदि विषयों का वर्णन है। इसी प्रसंग में सुन्द और उपसुन्द के उपाख्यान का भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन [[ युधिष्ठिर|धर्मराज युधिष्ठिर]] द्रौपदी के साथ बैठे हुए थे। अर्जुन ने ब्राह्मण के लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मण की वस्तु उसे प्राप्त कर दी और द्दढ़ निश्चय करके वीरता के साथ मर्यादा पालन के लिये वन में चले गये। इसी प्रसंग में यह कथा भी कही गयी है कि वनवास के अवसर पर मार्ग में ही अर्जुन और उलूपी का मेल-मिलाप हो गया। इसके बाद अर्जुन ने पवित्र तीर्थों की यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदा के गर्भ से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ है और इसी यात्रा में उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओं को मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मण के शाप से ग्राह हो गयी थी। फिर प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मिलन का वर्णन है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारका में [[सुभद्रा]] और अर्जुन परस्पर एक दूसरे पर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्ण की अनुमति से अर्जुन ने सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक [[अभिमन्यु]] के जन्म की कथा है। तदनन्तर [[देवकी |देवकी नन्दन]] भगवान् श्रीकृष्ण के दहेज लेकर पाण्डवों के पास पहुँचने की और सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। इसके पश्चात् द्रौपदी के पुत्रों की उत्पत्ति की कथा है। तदनन्तर, जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुना जी के तटपर विहार करने के लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुष की प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डव वन के दाह, मय दानव के छुटकारे और अग्नि काण्ड से सर्प के सर्वथा बच जाने का वर्णन हुआ है। इसके बाद [[महर्षि|महर्षि मन्दपालका]] शांर्गी पक्षी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने की कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्व का सबसे प्रथम निरूपण हुआ है। परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यास ने इस पर्व में दो सौ सत्तईस (227) अध्यायों की रचान की हैं। महात्मा व्यास मुनि ने इन दो सौ सत्ताईस अध्यायों में आठ हजार आठ सौ चौरासी (8884) श्लोक कहे हैं। दूसरा सभा पूर्व हैं इसमें बहुत से वृत्तान्तों का वर्णन हैं। पाण्डवों का सभा निर्माण, किंकर नाम राक्षसों का दीखना, [[नारद|देवर्षि नारद]] द्वारा लोकपालों की सभा का वर्णन, राजसूय यज्ञ का आरम्भ एवं जरासन्ध वध, गिरिव्रज में बंदी राजाओं का श्रीकृष्ण के द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवों की दिग्विजय का भी इसी सभा पर्व में वर्णन किया गया है। राजसूय महायज्ञ में उपहार ले लेकर राजाओं के आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषय को लेकर छिड़े हुए विवाद में शिशुपाल के वध का प्रसंग भी इसी सभा पर्व में आया है। यज्ञ में पाण्डवों का यह वैभव देखकर [[दुर्योधन]] दुःख और ईर्ष्‍या से मन-ही-मन में जलने लगा। इसी प्रसंग में सभा भवन के सामने समतल भूमि पर [[भीम|भीमसेन]] ने उसका उपहार किया। उसी उपहास के कारण दुर्योधन के हृदय में क्रोधग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूए के खेल का षड्यन्त्र रचा। इसी जूए में कपटी शकुनि ने धर्मपुत्र [[युधिष्ठिर को जीत लिया। जैसे समुद्र में डूबी हुई नौका को कोई फिर से निकाल ले वैसे ही द्यूत के समुद्र में डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्र वधू द्रौपदी को परम बुद्धिमान् [[धृतराष्ट्र]] ने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधन को जूए की विपत्ति से पाण्डवों के बच जाने का समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पिता से आग्रह करके) जूए के लिये बुलवाया। दुर्योधन ने उन्हें जूए में जीतकर वनवास के लिये भेज दिया। [[व्यास|महर्षि व्यास]] ने सभा पर्व से यही सब कथा कही है।
 
चैत्ररथ पर्व में गंगा के तट पर अर्जुन ने अंगार पर्ण गन्धर्व को जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसी के मुख से तपती, वसिष्ठ और ओर्वके उत्तम आख्यान सुने। फिर [[अर्जुन]] ने वहाँ से अपने सभी भाईयों के साथ पाञचाल नगर के बड़े-बड़े राजाओं से भरी सभा में लक्ष्य वेध करके [[द्रौपदी]] को प्राप्त किया-यह कथा भी इसी पर्व में है। वहीं [[भीम|भीमसेन]] और अर्जुन ने रणांगण में युद्ध के लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओं तथा शल्य और कर्ण को भी अपने पराक्रम से पराजित कर दिया। महापति [[बलराम]] एवं भगवान् [[श्रीकृष्ण]] ने जब भीमसेन एवं अर्जुन के अपरिमित और अतिमानुष बल वीर्य को देखा, तब उन्हे यह शंका हुई कि कहीं ये [[पाण्डव]] तो नहीं हैं। फिर वे दोनों उनसे मिलने के लिये कुम्हार के घर आये। इसके पश्चात् द्रुपदन ‘पाँचों पाण्डवें की एक ही पत्नी कैसे हो सकती है’ इस सम्बन्ध में विचार विमर्श किया। इसी वैवाहिक-पर्व में पाँच इन्द्रों का अद्भुत उपाख्यान और द्रौपदी के देव विहित तथा मनुष्य परम्परा के विपरीत विवाह का वर्णन हुआ है। इस के बाद धृतराष्ट्र ने पाण्डों के पास [[विदुर]] जी को भेजा हैं, विदुर जी पाण्डवों से मिले है तथा उन्हें श्रीकृष्ण दशर्न हुआ है। इसके पश्चात् [[धृतराष्ट्र]] का पाण्डवों को आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का निवास करना एवं नारद जी की आज्ञा से द्रौपदी के पास आने जाने के सम्बन्ध में समय निर्धारण आदि विषयों का वर्णन है। इसी प्रसंग में सुन्द और उपसुन्द के उपाख्यान का भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन [[ युधिष्ठिर|धर्मराज युधिष्ठिर]] द्रौपदी के साथ बैठे हुए थे। अर्जुन ने ब्राह्मण के लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मण की वस्तु उसे प्राप्त कर दी और द्दढ़ निश्चय करके वीरता के साथ मर्यादा पालन के लिये वन में चले गये। इसी प्रसंग में यह कथा भी कही गयी है कि वनवास के अवसर पर मार्ग में ही अर्जुन और उलूपी का मेल-मिलाप हो गया। इसके बाद अर्जुन ने पवित्र तीर्थों की यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदा के गर्भ से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ है और इसी यात्रा में उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओं को मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मण के शाप से ग्राह हो गयी थी। फिर प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मिलन का वर्णन है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारका में [[सुभद्रा]] और अर्जुन परस्पर एक दूसरे पर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्ण की अनुमति से अर्जुन ने सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक [[अभिमन्यु]] के जन्म की कथा है। तदनन्तर [[देवकी |देवकी नन्दन]] भगवान् श्रीकृष्ण के दहेज लेकर पाण्डवों के पास पहुँचने की और सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। इसके पश्चात् द्रौपदी के पुत्रों की उत्पत्ति की कथा है। तदनन्तर, जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुना जी के तटपर विहार करने के लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुष की प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डव वन के दाह, मय दानव के छुटकारे और अग्नि काण्ड से सर्प के सर्वथा बच जाने का वर्णन हुआ है। इसके बाद [[महर्षि|महर्षि मन्दपालका]] शांर्गी पक्षी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने की कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्व का सबसे प्रथम निरूपण हुआ है। परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यास ने इस पर्व में दो सौ सत्तईस (227) अध्यायों की रचान की हैं। महात्मा व्यास मुनि ने इन दो सौ सत्ताईस अध्यायों में आठ हजार आठ सौ चौरासी (8884) श्लोक कहे हैं। दूसरा सभा पूर्व हैं इसमें बहुत से वृत्तान्तों का वर्णन हैं। पाण्डवों का सभा निर्माण, किंकर नाम राक्षसों का दीखना, [[नारद|देवर्षि नारद]] द्वारा लोकपालों की सभा का वर्णन, राजसूय यज्ञ का आरम्भ एवं जरासन्ध वध, गिरिव्रज में बंदी राजाओं का श्रीकृष्ण के द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवों की दिग्विजय का भी इसी सभा पर्व में वर्णन किया गया है। राजसूय महायज्ञ में उपहार ले लेकर राजाओं के आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषय को लेकर छिड़े हुए विवाद में शिशुपाल के वध का प्रसंग भी इसी सभा पर्व में आया है। यज्ञ में पाण्डवों का यह वैभव देखकर [[दुर्योधन]] दुःख और ईर्ष्‍या से मन-ही-मन में जलने लगा। इसी प्रसंग में सभा भवन के सामने समतल भूमि पर [[भीम|भीमसेन]] ने उसका उपहार किया। उसी उपहास के कारण दुर्योधन के हृदय में क्रोधग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूए के खेल का षड्यन्त्र रचा। इसी जूए में कपटी शकुनि ने धर्मपुत्र [[युधिष्ठिर को जीत लिया। जैसे समुद्र में डूबी हुई नौका को कोई फिर से निकाल ले वैसे ही द्यूत के समुद्र में डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्र वधू द्रौपदी को परम बुद्धिमान् [[धृतराष्ट्र]] ने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधन को जूए की विपत्ति से पाण्डवों के बच जाने का समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पिता से आग्रह करके) जूए के लिये बुलवाया। दुर्योधन ने उन्हें जूए में जीतकर वनवास के लिये भेज दिया। [[व्यास|महर्षि व्यास]] ने सभा पर्व से यही सब कथा कही है।
 
श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इस पर्व में अध्यायों की संख्या अठहत्तर (78) है और श्लोकों की संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (2511) बतायी गय है। इसके पश्चात् महत्वपूर्ण वन पर्व का आरम्भ होता है।।141-142।।
 
श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इस पर्व में अध्यायों की संख्या अठहत्तर (78) है और श्लोकों की संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (2511) बतायी गय है। इसके पश्चात् महत्वपूर्ण वन पर्व का आरम्भ होता है।।141-142।।
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत पर्वसंग्रह पर्व अध्याय 2 श्लोक 70-110|अगला=महाभारत पर्वसंग्रह पर्व द्वितीय अध्याय 2 श्लोक 143-179}}
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{{लेख क्रम |पिछला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 2 श्लोक 70-110|अगला=महाभारत आदिपर्व अध्याय 2 श्लोक 143-179}}
  
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==

१३:३५, ३० जून २०१५ का अवतरण

द्वितीय अध्‍याय: आदिपर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदिपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 111-142 का हिन्दी अनुवाद

चैत्ररथ पर्व में गंगा के तट पर अर्जुन ने अंगार पर्ण गन्धर्व को जीतकर उससे मित्रता कर ली और उसी के मुख से तपती, वसिष्ठ और ओर्वके उत्तम आख्यान सुने। फिर अर्जुन ने वहाँ से अपने सभी भाईयों के साथ पाञचाल नगर के बड़े-बड़े राजाओं से भरी सभा में लक्ष्य वेध करके द्रौपदी को प्राप्त किया-यह कथा भी इसी पर्व में है। वहीं भीमसेन और अर्जुन ने रणांगण में युद्ध के लिये संनद्ध क्रोधान्ध राजाओं तथा शल्य और कर्ण को भी अपने पराक्रम से पराजित कर दिया। महापति बलराम एवं भगवान् श्रीकृष्ण ने जब भीमसेन एवं अर्जुन के अपरिमित और अतिमानुष बल वीर्य को देखा, तब उन्हे यह शंका हुई कि कहीं ये पाण्डव तो नहीं हैं। फिर वे दोनों उनसे मिलने के लिये कुम्हार के घर आये। इसके पश्चात् द्रुपदन ‘पाँचों पाण्डवें की एक ही पत्नी कैसे हो सकती है’ इस सम्बन्ध में विचार विमर्श किया। इसी वैवाहिक-पर्व में पाँच इन्द्रों का अद्भुत उपाख्यान और द्रौपदी के देव विहित तथा मनुष्य परम्परा के विपरीत विवाह का वर्णन हुआ है। इस के बाद धृतराष्ट्र ने पाण्डों के पास विदुर जी को भेजा हैं, विदुर जी पाण्डवों से मिले है तथा उन्हें श्रीकृष्ण दशर्न हुआ है। इसके पश्चात् धृतराष्ट्र का पाण्डवों को आधा राज्य देना, इन्द्रप्रस्थ में पाण्डवों का निवास करना एवं नारद जी की आज्ञा से द्रौपदी के पास आने जाने के सम्बन्ध में समय निर्धारण आदि विषयों का वर्णन है। इसी प्रसंग में सुन्द और उपसुन्द के उपाख्यान का भी वर्णन है। तदनन्तर एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ बैठे हुए थे। अर्जुन ने ब्राह्मण के लिये नियम तोड़कर वहाँ प्रवेश किया और अपने आयुध लेकर ब्राह्मण की वस्तु उसे प्राप्त कर दी और द्दढ़ निश्चय करके वीरता के साथ मर्यादा पालन के लिये वन में चले गये। इसी प्रसंग में यह कथा भी कही गयी है कि वनवास के अवसर पर मार्ग में ही अर्जुन और उलूपी का मेल-मिलाप हो गया। इसके बाद अर्जुन ने पवित्र तीर्थों की यात्रा की है। इसी समय चित्रांगदा के गर्भ से बभ्रुवाहन का जन्म हुआ है और इसी यात्रा में उन्होंने पाँच शुभ अप्सराओं को मुक्तिदान किया, जो एक तपस्वी ब्राह्मण के शाप से ग्राह हो गयी थी। फिर प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण और अर्जुन के मिलन का वर्णन है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि द्वारका में सुभद्रा और अर्जुन परस्पर एक दूसरे पर आसक्त हो गये, उसके बाद श्रीकृष्ण की अनुमति से अर्जुन ने सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। तदनन्तर देवकी नन्दन भगवान् श्रीकृष्ण के दहेज लेकर पाण्डवों के पास पहुँचने की और सुभद्रा के गर्भ से परम तेजस्वी वीर बालक अभिमन्यु के जन्म की कथा है। इसके पश्चात् द्रौपदी के पुत्रों की उत्पत्ति की कथा है। तदनन्तर, जब श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुना जी के तटपर विहार करने के लिये गये हुए थे, तब उन्हें जिस प्रकार चक्र और धनुष की प्राप्ति हुई, उसका वर्णन है। साथ ही खाण्डव वन के दाह, मय दानव के छुटकारे और अग्नि काण्ड से सर्प के सर्वथा बच जाने का वर्णन हुआ है। इसके बाद महर्षि मन्दपालका शांर्गी पक्षी के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करने की कथा है। इस प्रकार इस अत्यन्त विस्तृत आदिपर्व का सबसे प्रथम निरूपण हुआ है। परमर्षि एवं परम तेजस्वी महर्षि व्यास ने इस पर्व में दो सौ सत्तईस (227) अध्यायों की रचान की हैं। महात्मा व्यास मुनि ने इन दो सौ सत्ताईस अध्यायों में आठ हजार आठ सौ चौरासी (8884) श्लोक कहे हैं। दूसरा सभा पूर्व हैं इसमें बहुत से वृत्तान्तों का वर्णन हैं। पाण्डवों का सभा निर्माण, किंकर नाम राक्षसों का दीखना, देवर्षि नारद द्वारा लोकपालों की सभा का वर्णन, राजसूय यज्ञ का आरम्भ एवं जरासन्ध वध, गिरिव्रज में बंदी राजाओं का श्रीकृष्ण के द्वारा छुड़ाया जाना और पाण्डवों की दिग्विजय का भी इसी सभा पर्व में वर्णन किया गया है। राजसूय महायज्ञ में उपहार ले लेकर राजाओं के आगमन तथा पहले किसकी पूजा हो इस विषय को लेकर छिड़े हुए विवाद में शिशुपाल के वध का प्रसंग भी इसी सभा पर्व में आया है। यज्ञ में पाण्डवों का यह वैभव देखकर दुर्योधन दुःख और ईर्ष्‍या से मन-ही-मन में जलने लगा। इसी प्रसंग में सभा भवन के सामने समतल भूमि पर भीमसेन ने उसका उपहार किया। उसी उपहास के कारण दुर्योधन के हृदय में क्रोधग्नि जल उठी। जिसके कारण उसने जूए के खेल का षड्यन्त्र रचा। इसी जूए में कपटी शकुनि ने धर्मपुत्र [[युधिष्ठिर को जीत लिया। जैसे समुद्र में डूबी हुई नौका को कोई फिर से निकाल ले वैसे ही द्यूत के समुद्र में डूबी हुई परमदुःखिनी पुत्र वधू द्रौपदी को परम बुद्धिमान् धृतराष्ट्र ने निकाल लिया। जब राजा दुर्योधन को जूए की विपत्ति से पाण्डवों के बच जाने का समाचार मिला, तब उसने पुनः उन्हें (पिता से आग्रह करके) जूए के लिये बुलवाया। दुर्योधन ने उन्हें जूए में जीतकर वनवास के लिये भेज दिया। महर्षि व्यास ने सभा पर्व से यही सब कथा कही है। श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! इस पर्व में अध्यायों की संख्या अठहत्तर (78) है और श्लोकों की संख्या दो हजार पाँच सौ ग्यारह (2511) बतायी गय है। इसके पश्चात् महत्वपूर्ण वन पर्व का आरम्भ होता है।।141-142।।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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