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डच ईस्ट इंडीज़ के बांदा सागर में दो प्रकार की प्रकाशोत्पादक मछलियाँ पाई जाती हैं। इनके शरीर में एक विशेष अवयव होता है, जिसमें प्रकाशोत्पादक जीवाणु रहते हैं। इस अवयव की बनावट प्याले की भाँति होती है और इसमें रहनेवाले जीवाणु एक विशेष जाति के होते हैं। इन्हें साधारणत: प्रयोगशाला में न तो संवर्धित किया जा सकता है और न ये मछली के शरीर के बाहर जीवित ही रह सकते हैं। ये सहजीवी (symbiotic) चमकते हुए जीवाणु हैं। रक्त की नालियों की एक जटिल संहति यहाँ भोजन एवं प्रकाशोत्पादन के लिये आवश्यक ऑक्सीजन पहुँचाती है। ये जीवाणु जब तक जीवित रहते हैं तब तक चमकते रहते हैं। दूसरी मछलियों के प्रकाशोत्पादक अंग उत्तेजित होने पर चमकते हैं। इसलिये ये अपने इच्छानुसार प्रकाश उत्पन्न करती और बुझाती हैं। सहजीवी जीवाणुओं द्वारा प्रकाश उत्पन्न करनेवाले प्राणियों की प्रकाशोत्पादन क्रिया ऐच्छिक नहीं होती। इनके प्रकाशोत्पादक अंगों पर एक आवरण होता है। इस आवरण के कोशों में काले रंग के कण होते हैं, जो आवरण बंद होने पर जीवाणुओं को पूरी तरह ढँक लेते हैं। इससे प्रकाश बाहर नहीं जाता। इस आवरण का खोलना या बंद करना ऐच्छिक होता है। इसलिये इन मछलियों को प्रकाश पलकें (Photo blepharon या Light eyelid) कहते हैं। इन जंतुओं में प्रकाशोत्पादक अंगों का क्या उपयोग है, यह ठीक ठीक ज्ञात नहीं। अनुमान है कि ये अंग इन्हें अपने चारों ओर की वस्तुओं को देखने में सहायता पहुँचाते हैं। सी पेन प्रकाश द्वारा खाद्य जीवों को आकर्षित करते हैं। कुछ ऐसे भी जीव हैं जिनमें प्रकाश नर मादा के आकर्षण के लिये होता है। जुगनू इसका उदाहरण है। | डच ईस्ट इंडीज़ के बांदा सागर में दो प्रकार की प्रकाशोत्पादक मछलियाँ पाई जाती हैं। इनके शरीर में एक विशेष अवयव होता है, जिसमें प्रकाशोत्पादक जीवाणु रहते हैं। इस अवयव की बनावट प्याले की भाँति होती है और इसमें रहनेवाले जीवाणु एक विशेष जाति के होते हैं। इन्हें साधारणत: प्रयोगशाला में न तो संवर्धित किया जा सकता है और न ये मछली के शरीर के बाहर जीवित ही रह सकते हैं। ये सहजीवी (symbiotic) चमकते हुए जीवाणु हैं। रक्त की नालियों की एक जटिल संहति यहाँ भोजन एवं प्रकाशोत्पादन के लिये आवश्यक ऑक्सीजन पहुँचाती है। ये जीवाणु जब तक जीवित रहते हैं तब तक चमकते रहते हैं। दूसरी मछलियों के प्रकाशोत्पादक अंग उत्तेजित होने पर चमकते हैं। इसलिये ये अपने इच्छानुसार प्रकाश उत्पन्न करती और बुझाती हैं। सहजीवी जीवाणुओं द्वारा प्रकाश उत्पन्न करनेवाले प्राणियों की प्रकाशोत्पादन क्रिया ऐच्छिक नहीं होती। इनके प्रकाशोत्पादक अंगों पर एक आवरण होता है। इस आवरण के कोशों में काले रंग के कण होते हैं, जो आवरण बंद होने पर जीवाणुओं को पूरी तरह ढँक लेते हैं। इससे प्रकाश बाहर नहीं जाता। इस आवरण का खोलना या बंद करना ऐच्छिक होता है। इसलिये इन मछलियों को प्रकाश पलकें (Photo blepharon या Light eyelid) कहते हैं। इन जंतुओं में प्रकाशोत्पादक अंगों का क्या उपयोग है, यह ठीक ठीक ज्ञात नहीं। अनुमान है कि ये अंग इन्हें अपने चारों ओर की वस्तुओं को देखने में सहायता पहुँचाते हैं। सी पेन प्रकाश द्वारा खाद्य जीवों को आकर्षित करते हैं। कुछ ऐसे भी जीव हैं जिनमें प्रकाश नर मादा के आकर्षण के लिये होता है। जुगनू इसका उदाहरण है। | ||
जीवों द्वारा उत्पन्न प्रकाश के विषय में पहले लोगों का मत था कि संभवत: यह प्रकाश फॉस्फोरस के कारण होता हैं। किंतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि फॉस्फोरस विषैला होने के कारण जीवित कोशिकाओं में नहीं रह सकता। जंतुप्रकाश वस्तुत: ऑक्सीकरण का फल है। सन् | जीवों द्वारा उत्पन्न प्रकाश के विषय में पहले लोगों का मत था कि संभवत: यह प्रकाश फॉस्फोरस के कारण होता हैं। किंतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि फॉस्फोरस विषैला होने के कारण जीवित कोशिकाओं में नहीं रह सकता। जंतुप्रकाश वस्तुत: ऑक्सीकरण का फल है। सन् 17९4 में इटैलियन वैज्ञानिक स्पेलेंज़ानी (Spallanzani) ने सिद्ध किया कि जंतुप्रकाश के लिये जल की उपस्थिति आवश्यक है। प्रकाशोत्पादक जीव गीली अवस्था में ही प्रकाश देता है, सूखी अवस्था में नहीं। सूखने के बाद यदि जीव को गीला किया जाय तो वह पुन: प्रकाश देने लगता है। अत: स्पष्ट है कि प्रकाशोत्पत्ति साधारण रासायनिक क्रिया है, जीवित पदार्थ की विशेष क्रिया नहीं। | ||
जंतुकोश प्रकाशोत्पादन के लिये जो वस्तु बनाते हैं, उसे फोटोजेन (Photogen) या ल्युसिफेरिन (Luciferin) कहते हैं। फ्रांसीसी वैज्ञानिक डुब्वा (Dubois) को सन् | जंतुकोश प्रकाशोत्पादन के लिये जो वस्तु बनाते हैं, उसे फोटोजेन (Photogen) या ल्युसिफेरिन (Luciferin) कहते हैं। फ्रांसीसी वैज्ञानिक डुब्वा (Dubois) को सन् 1८८7 में रासायनिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि इसमें दो पदार्थ हैं, ल्यूसिफेरिन और ल्युसिफेरेस (Luciferase)। ल्युसिफेरिन ऑक्सीकृत होकर प्रकाश उत्पन्न करता है और ल्यूसिफेरेस उत्प्रेरक या प्रकिण्व (enzyme) का कार्य करता है। ल्युसिफेरिन गरम होकर नष्ट नहीं होता, किंतु ल्युसिफेरेस गरम होने पर नष्ट हो जाता है। कुछ अभिकर्मकों (reagents) की सहायता से इन दोनों को अवक्षिप्त (precipitate) करके तथा उपयुक्त विलायकों में पुन: विलीन कर इन्हें पृथक् किया जा सकता है। यद्यपि इन दानों को पृथक् किया गया है, फिर भी इनकी यथार्थ रासायनिक बनावट का पता अब तक नहीं चला है। इनको प्रोटीन की जाति में रख सकते हैं। | ||
सन् 1९1८ में ई. एन. हार्वी ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया कि ऑक्सीकरण के बाद ल्युसिफेरिन का प्रकाश समाप्त हो जाने पर उसमें यदि अवकारक मिलाए जायँ तो ल्युसिफेरिन पुन: बन जाता है। प्रकाश उत्पन्न करनेवाले जंतुओं में ऑक्सीकरण और अवकरण की क्रिया क्रमश: हुआ करती है और जंतुप्रकाश उत्पन्न करते रहते हैं। | सन् 1९1८ में ई. एन. हार्वी ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया कि ऑक्सीकरण के बाद ल्युसिफेरिन का प्रकाश समाप्त हो जाने पर उसमें यदि अवकारक मिलाए जायँ तो ल्युसिफेरिन पुन: बन जाता है। प्रकाश उत्पन्न करनेवाले जंतुओं में ऑक्सीकरण और अवकरण की क्रिया क्रमश: हुआ करती है और जंतुप्रकाश उत्पन्न करते रहते हैं। |
०८:३१, १८ अगस्त २०११ का अवतरण
जीवदीप्ति
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 1-2 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | फूलदेवसहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सत्य नारायण प्रसाद |
जीवदीप्ति प्रकाश उत्पन्न करने के अनेक साधन हैं। कुछ प्राणी भी प्रकाश उत्पन्न करते हैं। प्राणी से उत्पन्न प्रकाश को जीवदीप्ति, या शीतल प्रकाश, कहते हैं। साधारण प्रकाश में प्रकाश के साथ साथ उष्मा भी रहती है, पर जीवदीप्ति में उष्मा नहीं रहती। समुद्र की सतह पर भी कभी कभी प्रकाश देखा जाता है। इस प्रकाश के संबंध में पहले अनेक मत प्रचलित थे। पर 1९1० ईo में मैक कार्टनीम ने पहले पहल यह पता लगाया कि समुद्री प्रकाश का कारण समुद्र के प्राणी हैं। इन प्राणियों में से कुछ तो बहुत सूक्ष्म होते हैं, पर कुछ इतने बड़े होते हैं कि उन्हें सूक्ष्मदर्शी के बिना भी देखा जा सकता है। ऐसे प्राणियों की कम से कम 4० श्रेणियाँ हैं जिनमें एक या एक से अधिक प्रकाशोत्पादक वंश हैं। कुछ वनस्पतियाँ भी प्रकाश उत्पन्न करती हैं। एक कवक श्रेणी के और दूसरे जीवाणु श्रेणी के मृत पदार्थों से निकला प्रकाश जीवाणुओं के कारण होता है। ऐसे जीवाणु प्रयोगशालाओं में भी संवर्धित किए जा सकते हैं।
जानवरों में स्पंज, जेली फ़िश, कुंब जेली (Comb jellies), हाइड्रॉइड्स (Hydroids), सी पेन (Sea pens), डाइनोफ्लैजेलेट्स (Dinoflagelates), रेडियोलेरिया (Radiolaria), समुद्री कीड़े (Marine worms), केचुआ कनखजूरा (Centipedes), ब्रिटिल, स्टार्स (Brittle stars), बहुत से मोलस्क (Molluscs), समुद्रफेन प्राणी (Cuttle-fish), श्रिंप (Shrimps), बहुत भाँति के केकड़े, स्क्विड (Squid) तथा मछलियाँ आदि प्रकाशोत्पादक होती हैं।
जापान के किनारों पर पाए जानेवाले फायर फ्लाई स्क्विड (Firefly squid) को जापानी भाषा में 'होटारुइका' कहते हैं। इसके संस्पर्शक के सिरे पर प्रकाशोत्पादक अंग होते हैं। इटली में किनारे के समुद्र की तली में पाया जानेवाला हेटेरोट्यूथिस (Heteroteuthis) के किसी अंग विशेष से प्रकाश नहीं उत्पन्न होता, प्रत्युत यह जंतु एक प्रकार का स्राव उत्पन्न करता है, जो जल के संपर्क में आकर चमकने लगता है। यह स्राव एक ग्रंथि में बनता है।
सैकड़ों फैदम की गहराई में पाई जानेवाली मछलियों के शरीर में प्रकाशोत्पादक अंग होते हैं, जो शरीर के दोनों बगल पंक्तियों में सुसज्जित रहते हैं। इनकी आकृति अर्धवृत्ताकार होती है। एइध्रोप्रोरा इफैल्जीन्स (Aedhroprora Effalgens) के सिरे पर रेल के इंजन की कौंधबत्ती (Flashlight) की भाँति एक प्रकाशोत्पादक पिंड होता है। इसके अतिरक्ति इसके शरीर पर अन्य प्रकाशपिंड भी होते हैं।
प्रोफेसर अलिरक डाहल्ग्रैन (सन् 1८९4) ने इन प्रकाशोत्पादक अंगों की बनावट का अध्ययन किया। उन्होंने बताया कि इनमें एक लेंस होता है, जो प्रकाश को बाहर फेंकता है। इन अंगों के अंदर चमकदार सफेद पदार्थ से भरी कोशिकाओं की एक परत होती है, जो परावर्तक (reflector) का कार्य करती है। किसी किसी जानवर में प्रकाशोत्पादक अंग के चारों ओर एक अपारदर्शक आवरण होता है, जो प्रकाशोत्पादक अंग के ऊतक (tissue) को हानि से बचाता है। कुछ जानवरों में यह आवरण रंगीन होता है। फलस्वरूप केवल एक ही रंग की किरणें उससे होकर निकल पाती हैं। इसलिये इन जंतुओं में विशेष रंग का प्रकाश उत्पन्न होता है।
कटलफिश की एक जाति में तीन प्रकार के प्रकाश -- नीला, बैंगनी और लाल -- पैदा करनेवाले अंग होते हैं। दक्षिण अमरीका के ऑटोमोबाइल बग (Automobile bug) नामक कीट के सिर पर सफेद और दुम पर लाल प्रकाश पाया जाता है।
डच ईस्ट इंडीज़ के बांदा सागर में दो प्रकार की प्रकाशोत्पादक मछलियाँ पाई जाती हैं। इनके शरीर में एक विशेष अवयव होता है, जिसमें प्रकाशोत्पादक जीवाणु रहते हैं। इस अवयव की बनावट प्याले की भाँति होती है और इसमें रहनेवाले जीवाणु एक विशेष जाति के होते हैं। इन्हें साधारणत: प्रयोगशाला में न तो संवर्धित किया जा सकता है और न ये मछली के शरीर के बाहर जीवित ही रह सकते हैं। ये सहजीवी (symbiotic) चमकते हुए जीवाणु हैं। रक्त की नालियों की एक जटिल संहति यहाँ भोजन एवं प्रकाशोत्पादन के लिये आवश्यक ऑक्सीजन पहुँचाती है। ये जीवाणु जब तक जीवित रहते हैं तब तक चमकते रहते हैं। दूसरी मछलियों के प्रकाशोत्पादक अंग उत्तेजित होने पर चमकते हैं। इसलिये ये अपने इच्छानुसार प्रकाश उत्पन्न करती और बुझाती हैं। सहजीवी जीवाणुओं द्वारा प्रकाश उत्पन्न करनेवाले प्राणियों की प्रकाशोत्पादन क्रिया ऐच्छिक नहीं होती। इनके प्रकाशोत्पादक अंगों पर एक आवरण होता है। इस आवरण के कोशों में काले रंग के कण होते हैं, जो आवरण बंद होने पर जीवाणुओं को पूरी तरह ढँक लेते हैं। इससे प्रकाश बाहर नहीं जाता। इस आवरण का खोलना या बंद करना ऐच्छिक होता है। इसलिये इन मछलियों को प्रकाश पलकें (Photo blepharon या Light eyelid) कहते हैं। इन जंतुओं में प्रकाशोत्पादक अंगों का क्या उपयोग है, यह ठीक ठीक ज्ञात नहीं। अनुमान है कि ये अंग इन्हें अपने चारों ओर की वस्तुओं को देखने में सहायता पहुँचाते हैं। सी पेन प्रकाश द्वारा खाद्य जीवों को आकर्षित करते हैं। कुछ ऐसे भी जीव हैं जिनमें प्रकाश नर मादा के आकर्षण के लिये होता है। जुगनू इसका उदाहरण है।
जीवों द्वारा उत्पन्न प्रकाश के विषय में पहले लोगों का मत था कि संभवत: यह प्रकाश फॉस्फोरस के कारण होता हैं। किंतु यह ठीक नहीं है, क्योंकि फॉस्फोरस विषैला होने के कारण जीवित कोशिकाओं में नहीं रह सकता। जंतुप्रकाश वस्तुत: ऑक्सीकरण का फल है। सन् 17९4 में इटैलियन वैज्ञानिक स्पेलेंज़ानी (Spallanzani) ने सिद्ध किया कि जंतुप्रकाश के लिये जल की उपस्थिति आवश्यक है। प्रकाशोत्पादक जीव गीली अवस्था में ही प्रकाश देता है, सूखी अवस्था में नहीं। सूखने के बाद यदि जीव को गीला किया जाय तो वह पुन: प्रकाश देने लगता है। अत: स्पष्ट है कि प्रकाशोत्पत्ति साधारण रासायनिक क्रिया है, जीवित पदार्थ की विशेष क्रिया नहीं।
जंतुकोश प्रकाशोत्पादन के लिये जो वस्तु बनाते हैं, उसे फोटोजेन (Photogen) या ल्युसिफेरिन (Luciferin) कहते हैं। फ्रांसीसी वैज्ञानिक डुब्वा (Dubois) को सन् 1८८7 में रासायनिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि इसमें दो पदार्थ हैं, ल्यूसिफेरिन और ल्युसिफेरेस (Luciferase)। ल्युसिफेरिन ऑक्सीकृत होकर प्रकाश उत्पन्न करता है और ल्यूसिफेरेस उत्प्रेरक या प्रकिण्व (enzyme) का कार्य करता है। ल्युसिफेरिन गरम होकर नष्ट नहीं होता, किंतु ल्युसिफेरेस गरम होने पर नष्ट हो जाता है। कुछ अभिकर्मकों (reagents) की सहायता से इन दोनों को अवक्षिप्त (precipitate) करके तथा उपयुक्त विलायकों में पुन: विलीन कर इन्हें पृथक् किया जा सकता है। यद्यपि इन दानों को पृथक् किया गया है, फिर भी इनकी यथार्थ रासायनिक बनावट का पता अब तक नहीं चला है। इनको प्रोटीन की जाति में रख सकते हैं।
सन् 1९1८ में ई. एन. हार्वी ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया कि ऑक्सीकरण के बाद ल्युसिफेरिन का प्रकाश समाप्त हो जाने पर उसमें यदि अवकारक मिलाए जायँ तो ल्युसिफेरिन पुन: बन जाता है। प्रकाश उत्पन्न करनेवाले जंतुओं में ऑक्सीकरण और अवकरण की क्रिया क्रमश: हुआ करती है और जंतुप्रकाश उत्पन्न करते रहते हैं।