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==चयापचयन==
==चयापचयन==
जीवकोशिकाओं में अनेक प्रकार के जटिल रसायनिक परिवर्तन, जैसे कोशिका की वृद्धि, उसकी गति या उसकी क्षति आदि, निरंतर होते रहते हैं। कोशिकाओं की क्षति की पूर्ति करने के लिये आवश्यक ऊर्जा खाद्य पदार्थों के अणुओं के विभंजन से प्राप्त होती है। यह विभंजन वातजीवी (aerobic), वातनिरपेक्षी (anaerobic) या प्रकाश संश्लेषी जीवाणुओं द्वारा होता है। रसायनिक परिर्वतन की यह विधि चयापचन कहलाती है। इस क्रिया में उष्मा का निस्सरण होता है और यह उष्मा ठीक उतनी ही होती है जितनी उस रसायनिक परिवर्तन को जीव-प्रणाली के बाहर संपन्न करने के लिये आवश्यक होती है। इससे स्पष्ट है कि उष्मागतिकी (thermodynamics) के नियम जीवप्रणाली के अंदर या बाहर एक ही प्रकार से लागू हैं, केवल उनका प्रकार भिन्न है। अत: शरीर एक यंत्र के समान है, जो बाहर से प्राप्त ईधंन के ज्वलन से चालित होता है और यह ईधंन वह भोजन है जिसे जीव खाता है। चयापचयन का आधुनिक अध्ययन साधारण, स्थायी तथा रेडियोसक्रिय (radioactive) समस्थानिकों (isotepes) की सहायता से किया जाता है, जिनमें का14 (C14) , ना1५ (N1५), फा32 (P32) तथा डि (D) अर्थात्‌ भारी हाइड्रोजन (डिउटेरियम) विशेष महत्व रखते हैं। इनकी सहायता से चयापचयन में होने वाले परिवर्तनों का पता सरलता से लग जाता है।
जीवकोशिकाओं में अनेक प्रकार के जटिल रसायनिक परिवर्तन, जैसे कोशिका की वृद्धि, उसकी गति या उसकी क्षति आदि, निरंतर होते रहते हैं। कोशिकाओं की क्षति की पूर्ति करने के लिये आवश्यक ऊर्जा खाद्य पदार्थों के अणुओं के विभंजन से प्राप्त होती है। यह विभंजन वातजीवी (aerobic), वातनिरपेक्षी (anaerobic) या प्रकाश संश्लेषी जीवाणुओं द्वारा होता है। रसायनिक परिर्वतन की यह विधि चयापचन कहलाती है। इस क्रिया में उष्मा का निस्सरण होता है और यह उष्मा ठीक उतनी ही होती है जितनी उस रसायनिक परिवर्तन को जीव-प्रणाली के बाहर संपन्न करने के लिये आवश्यक होती है। इससे स्पष्ट है कि उष्मागतिकी (thermodynamics) के नियम जीवप्रणाली के अंदर या बाहर एक ही प्रकार से लागू हैं, केवल उनका प्रकार भिन्न है। अत: शरीर एक यंत्र के समान है, जो बाहर से प्राप्त ईधंन के ज्वलन से चालित होता है और यह ईधंन वह भोजन है जिसे जीव खाता है। चयापचयन का आधुनिक अध्ययन साधारण, स्थायी तथा रेडियोसक्रिय (radioactive) समस्थानिकों (isotepes) की सहायता से किया जाता है, जिनमें का14 (C14) , ना15 (N15), फा32 (P32) तथा डि (D) अर्थात्‌ भारी हाइड्रोजन (डिउटेरियम) विशेष महत्व रखते हैं। इनकी सहायता से चयापचयन में होने वाले परिवर्तनों का पता सरलता से लग जाता है।


==शर्करावर्ग का चयापचयन==
==शर्करावर्ग का चयापचयन==

०७:३६, १८ अगस्त २०११ का अवतरण

लेख सूचना
जीवरसायन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 7-9
भाषा हिन्दी देवनागरी
लेखक ई. बाल्डविन, बोनर, जे., हरिशरणनंद
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
स्रोत ई. बाल्डविन: ऐन इंट्रोडक्शन टु कंपैरैटिव बायोकेमिस्ट्री; बोनर, जे. : प्लांट बायोकेमिस्ट्री; हरिशरणनंद : व्याधिमूल विज्ञान।
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक राम दास तिवारी

जीवरसायन जीव-जंतुओं से संबंधित रसायनिक विधियों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन है। कभी कभी जीव-रसायन, शारीरिक-क्रिया (Physiological) रसायन तथा जैविक (Biological) रसायन का प्रयोग एक दूसरे के स्थान पर किया जाता है और वास्तव में इनमें बहुत ही कम अंतर है। भौतिक (physical) विज्ञानों तथा जैविक (biological) विज्ञानों का समन्वय जीवरसायन द्वारा होता है।

इतिहास

सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य का ध्यान भोजन की प्राप्ति तथा स्वस्थ रहने की प्रबल इच्छा की ओर रहा है। कीमियागरों की इच्छा सोना बनाने के साथ साथ अमृत प्राप्ति की भी थी। औषधि रसायनज्ञों की भी यही धारणा थी कि रसायन के अध्ययन का मुख्य लक्ष्य दवाओं का निर्माण और डाक्टरों की सहायता करना है। जॉन मेयो (John Mayo) ने जीवधारियों के श्वसन तथा कार्बनिक पदार्थों के दहन या ऑक्सीकरण विधियों की मौलिक समताओं को प्रदर्शित किया। बाद में लावाज़िए ने बतलाया कि यह समता मात्रात्मक भी है। प्रकाश संश्लेषण के अध्ययन से पता लगा कि यह विधि श्वसन की ठीक उल्टी है। जीवरसायन के इतिहास में यह बात बड़े महत्व की सिद्ध हुई। जीव-कोशिकाओं में पाए जाने वाले यौगिकों के रूपांतरों के अध्ययन के पहले उनकी रसायनिक रचना जान लेना आवश्यक है। यही कारण है कि जीवरसायन की प्रगति कार्बनिक रसायन की प्रगति पर निर्भर होने के कारण रुकी रही। लीविख (Liebig) तथा पैस्टर (Pasteur) ने जीवविज्ञान के अध्ययन में रसायन के महत्व को प्रदर्शित किया और लीबिख ने यह भी बतलाया कि जीवधारियों को अपने लिये उन जटिल यौगिकों की आवश्यकता होती हे जिनका संश्लेषण पेड़ पौधे करते हैं। अत: यदि पेड़-पौधे प्रकाश संश्लेषण न करें तो जीवधारियों का जीवित रहना ही असंभव हो जाय। किण्वन, पूयन तथा संक्रामक रोगों के अध्ययन के फलस्वरुप पैस्टर ने जीवाणु विज्ञान (Bacteriology) की नींव डाली। बेरनार (Bernard) ने ग्लाइकोजन (glycogen) तथा प्राणिस्टार्च का पता लगाया और यह ज्ञातकिया कि यकृत शर्करा वर्गीय पदार्थों का संग्रहागार है।

क्षेत्र

जीव-रसायन का क्षेत्र पर्याप्त विकसित हो चुका है। जीव विज्ञान के अंतर्गत तो केवल जीवों, पौधों, फफूँदी आदि का वर्णन ही मिलता है, परंतु इसका वास्तविक ध्येय अणुओं के परिर्वतनों के आधार पर कोशिकाओं के रसायनिक परिर्वतनों का अध्ययन करना तथा उनका पारस्परिक संबंध ज्ञात करना है। इस दृष्टिकोण से जीव रसायन में इस प्रकार के अध्ययन की विशेष क्षमता है और जीव संबंधी रसायनिक अध्ययनों में अनुसंधान का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है।

जीव कोशिकाओं का रसायनिक संगठन

विभिन्न प्रकार के जीवों के रसायनिक संगठन में काफी अंतर है। प्रत्येक जीवकोशिका में जल तथा लवणों के अतिरिक्त नाइट्रोजन, फॉस्फोरस या गंधकवाले कुछ यौगिक तथा अन्य साधारण रसायनिक पदार्थ, जैसे शर्करा वर्ग, चर्बी या तेल, लाइपिड (Lipid) तथा न्यूक्लिइक (nucleic) अम्ल पाए जाते हैं। इन सब की मात्राएँ तथा उनके प्रकार भिन्न होते हैं।

प्रोटीन और न्यूक्लिइक अम्ल

प्रोटीन अनेक ऐमिनों अम्लों के पारस्परिक संयोजन से बने होते हैं। अत: इनमें अनेक पेप्टाइड बंध -- का औ ना हा -- (-- CONH --) होते हैं। यह बात इससे स्पष्ट होती है कि प्रोटीन के जल विश्लेषण से अनेक ऐमिनों अम्लों के मिश्रण प्राप्त होते हैं। प्रोटीन के अणुओं में कई हजार ऐमिनो अम्लों के अणुमूलक हो सकते हैं, जिनका परीक्षण जल विश्लेषण के पश्चात्‌ उन अम्लों की पहचान करके, उनका मात्रात्मक परिमापन करके तथा प्रोटीन अणु में उनके क्रम ज्ञात करके किया जाता है। वैसे तो लगभग 24 विभिन्न ऐमिनो अम्ल ऐसे हैं जो प्रोटीन में पाए जाते हैं, परंतु उनके परस्पर विभिन्न क्रमों में बद्ध होने के कारण उनके अणुओं की संख्या हजारों में आती है। इस विचारधारा की काफी पुष्टि हो चुकी है कि जीवन की प्रगति तथा जीवन का विकास विभिन्न प्रोटीनों तथा ऐमिनों अम्लों पर निर्भर है। इस दृष्टिकोण से भी इस अध्ययन का महत्व बहुत बढ़ गया है। प्रोटीन तथा ऐमिनो अम्लों के अध्ययन में क्रोमेटोग्राफी (Chromatography), इलेक्ट्रोफोरेसिस (Electrophoresis), एक्सरे विश्लेषण (X-ray analysis) आदि आधुनिक विधियों से काफी सहायता मिली है और इनके आधार पर प्रोटीन का आकार, रूप, उसका वैद्युत्‌ आवेश, उसके अणु में विभिन्न परमाणुओं के स्थान तथा बनावट पूर्णत: ज्ञात किए गए हैं। जीवकोशिकाओं में होनेवाले रसायनिक परिवर्तनों का उत्प्रेरण प्रकिण्वों (ऐंज़ाइमों) द्वारा होता है और रसायनिक दृष्टिकोण से ये ऐंज़ाइम भी प्रोटीन ही होते हैं। जीवद्रव्यीय (protoplasmic) प्रोटीन तो किसी न किसी ऐंज़ाइम का ही कार्य करते हैं।

न्यूक्लिइक अम्ल भी अधिक अणुभार वाले पदार्थ हैं, जो जीवकोशिकाओं में अपना विशेष महत्व रखते हैं। ये शर्करा वर्ग तथा फॉस्फेटों की एकांतर श्रृंखलाओं द्वारा बने होते हैं और प्रत्येक शर्करावर्ग का भाग एक क्षारीय नाइट्रोजन वाले यौगिक से संयुक्त रहता है और यह यौगिक प्यूरिन या पिरिमिडिन होता है। ये न्यूक्लिइक अम्ल कोशिकाओं में प्रोटीन के साथ संयुक्त न्यूक्लिओप्रोटीन के रूप में पाए जाते हैं। केंद्रक कोशिका का क्रोमैटिन (chromatin) एक न्यूक्लीिओप्रोटीन होता है और यह संभव है कि जीन (gene), जो आनुवंशिक (hereditary) विशेषताओं के वाहक होते हैं, न्यूक्लीय या न्यूक्लिइक अम्ल होते हैं।

पोषाहार

जीवधारियों के पोषाहार तथा उसके रसायनिक संघटन के अध्ययन में भी जीव रसायन का महत्व है। स्वस्थ रहने के लिये भोजन के आवश्यक अवयवों का ज्ञान दैनिक जीवन में तो उपयोगी है ही, साथ ही यह जीवन प्रक्रियाओं को समझने में भी काफी सहायक है। जल तथा कुछ धात्वीय लवणों के अतिरिक्त हमारे भोजन में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा काफी होनी चाहिए, जिससे हमारे शरीर को समुचित मान में कैलॉरी तथा ऊर्जा प्राप्त हो सके और यह कार्य भोजन से प्राप्त वसा, प्रोटीन तथा शर्करावर्गीय पदार्थों द्वारा होता है। जीवन क्रिया को समुचित रूप से चलाने के लिये कुछ वसीय अम्ल, लगभग 1० ऐमिनो अम्ल तथा सूक्ष्म मात्रा में विटामिन वर्ग प्रत्येक जीवधारी के लिये अनिवार्य होते हैं। विभिन्न वर्ग के जीवधारियों के पोषाहार में कुछ सादृश्य तो होता है, परंतु वह एक समान नहीं होता। मनुष्य तथा गिनीपिग इन दोनों के लिये विटामिन सी आवश्यक होता है, परंतु चूहों के लिये यह आवश्यक नहीं है। पोषाहार में किसी पदार्थ का आवश्यक होना यह प्रदर्शित करता है कि जीवकोशिका की प्रक्रिया में उस पदार्थ की आवश्यकता होती है, परंतु वह प्राप्त पदार्थों से उनका संश्लेषण करने में असमर्थ है। किसी विशेष विटामिन या ऐमिनो अम्ल की अनुपस्थिति में जीवकोशिका कुछ आवश्यक रसायनिक क्रियाएँ करने में असमर्थ होती है। कुछ विटामिनों के रसायनिक कार्य विशेष प्रकार के होते हैं, जैसे विटामिन ए धुंधले प्रकाश में देखने में सहायक होता है और इसकी कमी से रतौंधी का रोग होता है।

प्रकाश संश्लेषण करनेवाले पेड़ पौधे जीवधारियों से इस बात में भिन्न हैं कि वे अपनी जीवकोशिकाओं की आवश्यक क्रियाओं के लिये वांछित पदार्थ कार्बन डाइऑक्साइड, जल, लवण, ऐमोनिया, नाइट्रेट आदि साधारण पदार्थों से सूर्य की ऊर्जा द्वारा संश्लेषित कर लेते हैं। अत: जीवधारियों की तरह इनको आहार से पोषण प्राप्त करना आवश्यक नहीं होता।

पाचन

मनुष्यों और पशुओं की पाचन क्रिया के फलस्वरुप जलविश्लेषण द्वारा बड़े बड़े अणु पाचकक्षों में छोटे छोटे अणुओं में परिवर्तित हो जाते हैं, जैसे प्रोटीन ऐमिनो अम्ल में, पोलीसैकराइड मॉनोसैकराइड में, आदि। यह क्रिया अविलेय पदार्थों की विलेय पदार्थों में परिवर्तित करने के लिये आवश्यक है, क्योंकि शोषित होने के लिये उनको विलेय रूप में होना चाहिए। पाचन क्रिया को उत्प्रेरित करने वाले विभिन्न ऐंज़ाइम होते हैं, जिनका विस्तृत अध्ययन हुआ है।

रक्त

रक्त का महत्व अधिक है और इसका रसायनिक संगठन भी पूरी तरह से ज्ञात है। रक्त के लाल रंग को रुधिरवर्णिका (haemeglobin) कहते हैं और इसका काम फेफड़ों से शरीर के ऊतकों (tissues) में ऑक्सीजन पहुंचाना है। रक्त प्लाज़मा (plasma) के प्रोटीन का अध्ययन किया गया है और इसे अधिक मात्रा में शुद्ध करने की विधियों का विकास किया गया है। गामाग्लोबिन में एक प्रतिपिंड (antibody) होता है, जिसका प्रतिरक्षक (immunising agent) के रूप में प्रयोग होता है। शरीर में प्रतिपिंडों को पैदा करके प्रतिरक्षण किया जाता है। रसायनिक दृष्टिकोण से प्रतिपिंड प्रोटीन होते हैं, जिनमें प्रतिजन (antigen) से संयोग कर सकने की क्षमता होती है। यदि प्रतिजन किसी रोगजनक जीवाणु (pathogenic bacteria) का भाग होता है, तो प्रतिपिंड शरीर के भागों को जीवाणु द्वारा संक्रमण से बचाता है। प्रतिजन तथा प्रतिपिंड का रसायनिक अध्ययन तथा उनका पारस्परिक संबंध प्रतिरक्षक रसायन (Immunochemistry) कहलाता है।

चयापचयन

जीवकोशिकाओं में अनेक प्रकार के जटिल रसायनिक परिवर्तन, जैसे कोशिका की वृद्धि, उसकी गति या उसकी क्षति आदि, निरंतर होते रहते हैं। कोशिकाओं की क्षति की पूर्ति करने के लिये आवश्यक ऊर्जा खाद्य पदार्थों के अणुओं के विभंजन से प्राप्त होती है। यह विभंजन वातजीवी (aerobic), वातनिरपेक्षी (anaerobic) या प्रकाश संश्लेषी जीवाणुओं द्वारा होता है। रसायनिक परिर्वतन की यह विधि चयापचन कहलाती है। इस क्रिया में उष्मा का निस्सरण होता है और यह उष्मा ठीक उतनी ही होती है जितनी उस रसायनिक परिवर्तन को जीव-प्रणाली के बाहर संपन्न करने के लिये आवश्यक होती है। इससे स्पष्ट है कि उष्मागतिकी (thermodynamics) के नियम जीवप्रणाली के अंदर या बाहर एक ही प्रकार से लागू हैं, केवल उनका प्रकार भिन्न है। अत: शरीर एक यंत्र के समान है, जो बाहर से प्राप्त ईधंन के ज्वलन से चालित होता है और यह ईधंन वह भोजन है जिसे जीव खाता है। चयापचयन का आधुनिक अध्ययन साधारण, स्थायी तथा रेडियोसक्रिय (radioactive) समस्थानिकों (isotepes) की सहायता से किया जाता है, जिनमें का14 (C14) , ना15 (N15), फा32 (P32) तथा डि (D) अर्थात्‌ भारी हाइड्रोजन (डिउटेरियम) विशेष महत्व रखते हैं। इनकी सहायता से चयापचयन में होने वाले परिवर्तनों का पता सरलता से लग जाता है।

शर्करावर्ग का चयापचयन

इस वर्ग के चयापचयन के फलस्वरुप जो शर्कराएँ बनती हैं वे यकृत में जाकर ग्लाइकोजन में और फिर प्राणिस्टार्च में परिवर्तित होकर यकृत में जम जाती हैं। रक्तसंचार में ग्लूकोज़ की मात्रा का नियंत्रण यकृत द्वारा होता है। साधारण परिस्थितियों में रक्त शर्करा की सांद्रता लगभग ८० मिलिग्राम प्रति 1०० मिलिलिटर रक्त पर स्थिर रहती है। जब यह मात्रा इससे कम होती है तब यकृत रक्त को और शर्करा दे देता है, जो वहाँ एकत्रित ग्लाइकोजन के विभंजन से प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त पेशियों में भी शर्करावर्गीय पदार्थ जमा रहते हैं और इनके विभंजन से काम करने के लिये ऊर्जा प्राप्त होती है। इन्सुलिन नाम हॉरमोन की न्यूनता के कारण मधुमेह होता है। इन्सुलिन रक्त में शर्करा की सांद्रता स्थायी रखने में सहायक होता है। इसकी मात्रा की कमी या अनुपस्थिति में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती है तथा शर्करा की कुछ मात्रा गुर्दें से होकर मूत्र में पहुँच जाती है।

हॉरमोन

हॉरमोन चयापचन को नियंत्रित करते हैं। इनमें थाइरॉक्सिन, ऐड्रिनैलिन, इंसुलिन तथा सेक्स हॉरमोन प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त पौधों की वृद्धि में सहायक हॉरमोन ऑक्सिन-ए तथा ऑक्सिन बी (Auxin-A and B) हैं। ट्रॉमैटिक (Traumatic) अम्ल एक हॉरमोन होता है, जो पौधों के कोशों को होनेवाली क्षति की पूर्ति करता है।

विषाणु

विषाणु अनेक प्रकार के रोग पैदा कर देते हैं। जीवों, पौधों तथा जीवाणुओं, इन तीनों से विषाणु निकालकर शुद्ध किए जा सकते हैं। विषाणु वैसे तो अक्रिय होते हैं और अपनी वृद्धि नहीं करते, परंतु पोषक कोशिकाओं (host cells) के कुछ ऐज़ाइमों को नष्ट करके वे अपनी वृद्धि करते हैं। इस प्रकार पोषक को यह यथेष्ट हानि पहुँचा सकते हैं।

संस्थाएँ तथा पत्रिकाएँ

विभिन्न देशों में जीवरसायन से संबंधित अनेक संस्थाएँ है और कई एक शोध पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होती हैं, जिनमें कुछ ये हैं - यू. एस. जनरल ऑव बायोलॉजिकल केमिस्ट्री, ब्रिटिश बायोकेमिकल जनरल, बायोजोजिक जाइश्रिफ्ट, बुलेटिन डी ला सोसाइटे केमिसे बायोजोजिक, जरनल ऑव बायोकेमिस्ट्री ऑव जापान, बायोकेमिका एक्टा आदि।