"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 179 श्लोक 36-49": अवतरणों में अंतर

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१२:५२, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

एकोनाशीत्यधिकशततम (179) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: एकोनाशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 36-48 का हिन्दी अनुवाद

उन निशाचरों के बरसाये हुए बाण, शक्ति, शूल, गदा, उग्र प्रज्वलित परिघ, वज्र, पिनाक, बिजली, शतध्नी और चक्र आदि अस्त्र-शस्त्रों के प्रहारों से रौंदे गये कौरव योद्धा मर-मरकर पृथ्वी पर गिरने लगे। राजन्! वे राक्षस आपके पुत्र की सेना पर लगातार शूल, भुशुण्डी, पत्थरों के गोले, शतध्नी और लोहे के पत्रों से मढ़े गये स्थूणाकार शस्त्र बरसने लगे। इससे आपके सैनिकों पर भयंकर मोह छा गया। उस समय पत्थरों की मार से आपके शूरवीरों के मस्तक कुचल गये थे, अंग-भंग हो गये थे, उनकी आँतें बाहर निकलकर बिखर गयी थीं और इस अवस्था में वे वहाँ पृथ्वी पर पड़े हुए थे। घोड़ों के टुकड़े-टुकड़़े हो गये थे, हाथियों के सारे अंग कुचल गये थे और रथ चूर-चूर हो गये। इस प्रकार बड़ी भारी शस्त्रवर्षा करते हुए वे निशाचर इस भूतल पर भयंकर रूप धारण करके प्रकट हुए थे। घटोत्कच की माया से उनकी सृष्टि हुई थी। वे डरे हुए तथा प्राणों की भिक्षा माँगते हुए को भी नहीं छोड़ते थे। कौरव-वीरों का विनाश करने वाला वह घोर संग्राम मानो क्षत्रियेां का अन्त करने के लिये साक्षत् काल द्वारा उपस्थित किया गया था। उसमें विद्यमान सभी कौरव योद्धा हतोत्साह हो निम्नांकित रूपसे चीखते-चिल्लाते हुए सहसा भाग चले। ‘कौरवो! भागो, भागो, अब किसी तरह यह सेना बच नहीं सकती। पाण्डवों के लिये इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता हमें आकर मार रहे हैं।’ इस प्रकार उस समर-सागर में डूबते हुए कौरव सैनिकों के लिये सूत पुत्र कर्ण द्वीप के समान आश्रयदाता बन गया। उस घमासान युद्ध के आरम्भ होने पर जब कौरव सेना भागर छिप गयी और सैनिकों के विभाग लुप्त हो गये, उस समय कौरव अथवा पाण्डव योद्धा पहचाने नहीं जाते थे। उस मर्यादारहित और भयंकर युद्ध में जब भगदड़ पड़ गयी, उस समय भागे हुए सैनिक सारी दिशाओं को सूनी देखते थे। राजन्! वहाँ लोगों को एकमात्र कर्ण ही उस शस्त्रवर्षा को छाती पर झेलता हुआ दिखायी दिया। तदनन्तर राक्षस की दिव्य माया के साथ युद्ध करते हुए लज्जाशील सूत पुत्र कर्ण ने आकाश को अपने बाणों से ढक दिया और युद्ध में वह श्रेष्ठ वीरोचित दुष्कर कर्म करता हुआअ भी मोह के वशीभूत नहीं हुआ। राजन्! तब सिन्ध और बाल्हीकदेश के योद्धा युद्धस्थल में राक्षस की विजय देखकर भी कर्ण के मोहित न होने की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसकी ओर भयभीत होकर देखने लगे। इसी समय घटोत्कच ने एक शतध्नी छोड़ी, जिसमें पहिये लगे हुए थे। उस शतध्नी ने कर्ण के चारों घोड़ों को एक साथ ही मार डाला। उन घोड़ों ने प्राणशून्य होकर धरती पर घुटने टेक दिये। उनके दाँत, नेत्र और जीभें बाहर निकल आयी थीं। तब कर्ण उस अश्वहीन रथ से उतरकर मन को एकाग्र करके कुछ सोचने लगा। उस समय सारे कौरव सैनिक भाग रहे थे। उसे दिव्यास्त्र भी घटोत्कच की माया से नष्ट होते जा रहे थे, तो भी वह समयोचित कर्तव्य का चिन्तन करता हुआ मोह में नहीं पड़ा। तत्पश्चात् राक्षस की उस भयंकर माया को देखकर सभी कौरव कर्ण से इस प्रकार बोले- ‘कर्ण! तुम आज (इन्द्र की दी हुई ) शक्ति से तुरंत इस राक्षस को मार डालो, नहीं तो ये धृतराष्ट्र के पुत्र और कौरव नष्ट होते जा रहे हैं। ‘भीमसेन और अर्जुन हमारा क्या कर लेंगे। आधी रात के समय संताप देने वाले इस पापी राक्षस को मार डालो। हममें से जो भी इस भयानक संग्राम से छुटकारा पायेगा वही सेनासहित पाण्डवों के साथ युद्ध करेगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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