"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 187 श्लोक 19-36": अवतरणों में अंतर

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==सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: द्रोणपर्व (घटोत्‍कचवध पर्व )==
==सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )==
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: द्रोणपर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद</div>
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०५:३१, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण

सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: सप्ताशीत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

योद्धाओं की कटी हुई भुजाओं, विचित्र कवचों, मनोहर कुण्डलमण्डित मस्तकों तथा इधर-उधर बिखरी हुई अन्यान्य युद्ध सामग्रियों से रणभूमि के विभिन्न प्रदेश प्रकाशित हो रहे थे। कहीं कच्चा मांस खाने वाले प्राणियों का समुदाय भरा था, कहीं मरे और अधमरे जीव पड़े थे। इन सबके कारण उस सारी युद्धभूमि में कहीं भी रथ जाने के लिये रास्ता नहीं मिलता थ। रथों के पहिये रक्त की कीच में डूब जाते थे, तो भी उन रथों को बाणों से पीडि़त हो काँपते हुए और परिश्रम से थके-माँदे घोड़े किसी प्रकार धैर्य धारण करके ढोते थे। वे सभी घोड़े उत्तम कुल, साहस और बल से सम्पन्न तथा हाथियों के समान विशालकाय थे (इसीलिये ऐसा पराक्रम कर पाते थे)। भारत! उस समय द्रोणाचार्य और अर्जुन- इन दो वीरों को छोड़कर शेष सारी सेना तुरंत विहल, उदभ्रान्त, भयभीत और आतुर हो गयी। वे ही दोनेां अपने-अपने पक्ष के योद्धाओं के लिये छिपने के स्थान थे और वे ही पीडि़तों के आश्राय बने हुए थे। परंतु विपक्षी योद्धा इन्हीं दोनों के समीप जाकर यमलोक पहुँच जाते थे। कौरवों तथा पान्चालों केसारे विशाल सैन्य परस्पर मिलकर व्यग्र हो उठे थे। उस समय उनमें से किसी दल को अलग-अलग पहचाना नहीं जाता था। वह समरागंण यमराज का क्रीडास्थल सा हो रहा था और कायरों का भय बढ़ा रहा था। राजन्! भूमण्डल के राजवंश में उत्पन्न हुए क्षत्रियों का वह महान् संहार उपस्थित होने पर वहाँ युद्ध में तत्पर हुएसब लोग सेना द्वारा उड़ायी हुई धूल से ढक गये थे। इसीलिये हम लोग वहाँ न तो कर्ण को देख पाते थे, न द्रोणाचार्य को। न अर्जुन दिखायी देते थे, न युधिष्ठिर। भीमसेन, नकुल, सहदेव, धृष्टद्युम्न और सात्यकि को भी हम नहीं देख पाते थे। दुःशासन, अश्वत्थामा, दुर्योधन, शकुनि, कृपाचार्य, शल्य, कृतवर्मा तथा अन्य महारथी भी हमारी दृष्टि में नहीं आते थे। औरों की तो बात ही क्या है ? हम अपने शरीर को भी नहीं देख पाते थे, पृथ्विी और दिशाएँ भी नहीं सूझती थीं। वहाँ धूलरूपी मेघ की भयंकर एवं घोर घटा घुमड़-घुमड़कर घिर आयी थी, जिससे सब लोगों को उस समय ऐसा मालूम होता था, मानो दूसरी रात्रि आ पहुँची हो। उस अन्धकार में न तो कौरव पहचाने जाते थे और न पान्चाल तथा पाण्डव ही। दिशा, आकाश, भूमण्डल  और सम-विषय स्थान आदि का भी पता नहीं चलता था। जो हाथ की पकड़ में आ गये या छू गये, वे अपने हों या पराये, विजय की इच्छा रखने वाले मनुष्य उन्हें तत्काल युद्ध में मार गिराते थे। उस समय तेज हवा चलने से कुछ धूल तो ऊपर उड़ गयी और कुछ योद्धाओं के रक्त से सिंचकर नीचे बैठ गयी। इससे भूतल की वह सारी धूलराशि शान्त हो गयी। तदनन्तर वहाँ खून से लथपथ हुए हाथी, घोड़े, रथी और पैदल सैनिक पारिजात के जंगलजों के समान सुशोभित होने लगे। उस समय दुर्योधन, कर्ण, द्रोणाचार्य और दुःशासन ये चार महारथी चार पाण्डवों के साथ युद्ध करने लगे। दुर्योधन अपने भाई दुःशसन को साथ लेकर नकुल और सहदेव से भिड़ गया। राधा पुत्र कर्ण भीमसेन के साथ और अर्जुन आचार्य द्रोण के साथ युद्ध करने लगे। उस उग्र महारथियों कावह घोर, अत्यन्त आश्चर्यजनक और अमानुषिक संग्राम वहाँ सब लोक सब ओर से देखने लगे।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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