"महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 94 श्लोक 44-54": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "{{महाभारत}}" to "{{सम्पूर्ण महाभारत}}") |
||
पंक्ति १२: | पंक्ति १२: | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{महाभारत}} | {{सम्पूर्ण महाभारत}} | ||
[[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासनपर्व]] | [[Category:कृष्ण कोश]] [[Category:महाभारत]][[Category:महाभारत अनुशासनपर्व]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
११:४६, १९ जुलाई २०१५ का अवतरण
चतुर्नवतितमो (94) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)
इन्द्र बोले- ब्रह्मण जो आपका कमल ले गया हो, वह ब्रह्मचर्य व्रत को पूर्ण करके आये हुए यजुर्वेदी अथवा सामवेदी विद्वान को कन्या दान दे अथवा वह ब्राम्हण अथर्ववेद का अध्ययन पूरा करके शीघ्र ही स्नातक बन जाये। जिसने आपके कमलों का अपहरण किया हो, वह संपूर्ण वेदों का अध्ययन करे। पुण्य आत्मा और धार्मिक हो तथा मृत्यु के पश्चात वह ब्रह्माजी के लोक में जाये। अगस्त्य ने कहा- बलसूदन ! आपने जो शपथ की है वह तो आशीर्वाद स्वरूप है। अतः आपने ही मेरे कमल लिये हैं, कृपया उन्हें मुझे दे दीजिये। यही सनातन धर्म है। इन्द्र बोले- भगवन ! मैंने लोभवश कमलों को नहीं लिया था। आप लोगों के मुख से धर्म की बातें सुनना चाहता था, इसलिये इन कमलों का अपहरण कर लिया था। अतः मुझ पर क्रोध न कीजियेगा। आज मैंने आप लोगों के मुख से उस आर्ष सनातन धर्म का श्रवण किया है जो नित अविकारी, अनामय और संसार सागर से पार उतारने के लिये पुल के समान है। इससे धार्मिक श्रुतियों का उत्कर्ष सिद्ध होता है। द्विजश्रेष्ठ ! विद्वान ! अब आप अपने ये कमल लीजिये। भगवन ! अनिन्दनीय महर्षे ! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। महेन्द्र के ऐसा कहने पर वे क्रोधी तपस्वी बुद्विमान अगस्त्य मुनि बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्द्र के हाथ से अपने कमल ले लिये। तदनन्तर उन सब लोगों ने वन के मार्गों से होते हुए पुनः तीर्थ यात्रा आरंभ की और पुण्य तीर्थों में जा-जाकर गोते लगाकर स्नान किया। जो प्रत्येक पर्व के अवसर पर एकाग्रचित्त हो इस पवित्र आख्यान का पाठ करता है, वह कभी मूर्ख पुत्र को जन्म नहीं देता है, तथा स्वयं भी किसी अंग से हीन या असफल मनोरथ नहीं होता है । उसके ऊपर कोई आपत्ति नहीं आती। वह चिन्ता रहित होता है। उसके ऊपर जरावस्था का आक्रमण नहीं होता। वह रागशून्य होकर कल्याण का भागी होता है तथा मृत्यु के पश्चात स्वर्गलोक में जाता है । नरश्रेष्ठ ! जो ऋषियों द्वारा सुरक्षित इस शास्त्र का अध्ययन करता है, वह अविनाशी ब्रह्मधाम को प्राप्त होता है।
« पीछे | आगे » |