"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 188 श्लोक 19-39": अवतरणों में अंतर
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१२:५५, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
अष्टाशीत्यधिकशततम (188) अध्याय: द्रोणपर्व (द्रोणवध पर्व )
तब क्रोध से व्याकुल हुए भीमसेन ने कर्ण को आठ बाण मारे। भारत! शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबली भीमसेन ने हँसते हुए से उन तेज धारवाले तीखे बाणों द्वारा कण्र्का के ध्वज, धनुष और तरकस को काट गिराया। तत्पश्चात् राधा पुत्र कर्ण ने पुनः सोने की पीठवाला दूसरा दुर्जय धनुष्या हाथ में लेकर रथ पर रक्खे हुए बाणों द्वारा भीमसेन के रीछ के समान रंगवाले काले घोड़ों और दोनों पार्श्वरक्षकों को शीघ्र ही मार डाला। इस तरह रथ नष्ट हो जाने से शत्रुदमन भीमसेन जैसे सिंह पर्वत के शिखर पर चढ़ जाता है, उसी प्रकार उछलकर नकुल के रथ पर जा बैठे। राजेन्द्र! इसी प्रकार उस युद्धस्थल में आचार्य और शिष्य महारथी द्रोण तथा अर्जुन परस्पर प्रहार करते हुए विचित्र रीति से युद्ध कर रहे थे। शीघ्रतापूर्वक बाणों के संधान और रथों के योग से अपने संग्राम द्वारा वे दोनों वीर लोगों के नेत्रों और मन को भी मोह लेते थे। भरतश्रेष्ठ! गुरू और शिष्य के उस अपूर्व युद्ध को देखते हुएसब योद्धा संग्राम से विरत हो गये। वे दोनों वीर सेना के बीच में रथ के विचित्र पैंतरे प्रकट करते हुए उस समय एक दूसरे को दायें कर देने की चेष्टा करने लगे। उन द्रोणाचार्य और पाण्डु पुत्र अर्जुन के पराक्रम को वे सब सैनिक अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे। महाराज! जैसे मांस के टुकडे़ के लिये आकाश में दो बाज लड़ रहे हों, उसी प्रकार राज्य के लिये उन दोनों गुरू-शिष्यों में बड़ा भारी युद्ध हो रहा था। द्रोणाचार्य कुन्ती पुत्र अर्जुन को जीतने की इच्छा से जिस-जिस अस्त्र का प्रयोग करते थे, उस-उसको पाण्डु पुत्र अर्जुन हँसते हुए तत्काल काट देते थे। जब द्रोणाचार्य पाण्डु पुत्र अर्जुन की अपेक्षा अपनी विशेषता न सिद्ध कर सके, तब अस्त्रमार्गो के ज्ञाता गुरूदेव ने दिव्यास्त्रों को प्रकट किया। द्रोणाचार्य के धनुष से क्रमशः छूटे हुए ऐन्द्र, पाशुपत, त्वाष्ट्र, वायव्य तथा वारूण नामक अस्त्र को अर्जुन ने तत्काल शान्त कर दिया। जब पाण्डुकुमार अर्जुन आचार्य के सभी अस्त्रों को अपने अस्त्रों द्वारा विधिपूर्वक नष्ट करने लगे, तब द्रोण ने परम दिव्य अस्त्रों द्वारा अर्जुन को ढक दिया। परंतु विजय की इच्छा से वे पार्थ पर जिस-जिस अस्त्र का प्रयोग करते थे, उस-उसके विनाश के लिये अर्जुन वैसे ही अस्त्रों का प्रयोग करते थे। जब अर्जुन के द्वारा उनके विधिपिूर्वक चलाये हुए दिव्यास्त्र भी प्रतिहत होने लगे, तब द्रोण ने अर्जुन की मन-ही-मन सराहना की। भारत! शत्रुओं को संताप देने वाले द्रोणाचार्य उस शिष्य के द्वारा अपने आपको भूमण्डल केसभी शस्त्रवेत्ताओं से श्रेष्ठ मानने लगे। महामनस्वी वीरों के बीच में अर्जुन के द्वारा इस प्रकार रोके जाते हुए द्रोणाचार्य प्रयत्न करके प्रसन्तापूर्वक मुसकराते हुए स्वयं भी अर्जुन को आगे बढ़ने से रोकने लगे। तदनन्तर वह युद्ध देखने की इच्छा से आकाश में बहुत से देवता, सहस्त्रों गन्धर्व, ऋषि और सिद्धसमुदाय खड़े हो गये। अप्सराओं, यक्षों और गन्धवों से भरा हुआ आकाश ऐसी विशिष्ट शोभा पा रहा था, मानो उसमें मेघों की घटा घिर आयी हो। नरेश्वर! वहाँ द्रोणाचार्य और अर्जुन की स्तुति से युक्त अदृश्य व्यक्तियों के मुखों से निकली हुई बातें बारंबार सुनायी देने लगीं।
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