"महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 193 श्लोक 36-56": अवतरणों में अंतर
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०६:००, ८ जुलाई २०१५ का अवतरण
त्रिनवत्यधिकशततम (193) अध्याय: द्रोणपर्व (नारायणास्त्रमोक्ष पर्व )
राजन ! उस समय शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य बारंबार पीड़ा का अनुभव करते हुए जिस प्रकार द्रोणाचार्य मारे गये थे, वह समाचार उनके पुत्र को सुनाने लगे।
कृपाचार्य बोले - वत्स ! हम लोगो ने भूमण्डल के श्रेष्ठ महारथी आचार्य द्रोण को आगे करके केवल पांचालों के साथ युद्ध आरम्भ किया था। युद्ध आरम्भ हो जाने पर कौरव तथा सोमक योद्धा परस्पर मिश्रित हो गये और एक-दूसरे के निकट गर्जना करते हुए शस्त्रों द्वारा अपने-अपने शत्रुओं के शरीर को धराशायी करने लगे। इस प्रकार युद्ध चालू होने पर जब कौरव योद्धा क्षीण होने लगे, तब तुम्हारे पिता ने अत्यंत कुरित होकर ब्रहास्त्र प्रकट किया। ब्रहास्त्र प्रकट करते हुए नर श्रेष्ठ द्रोण ने सैकड़ों और हजारों भल्लों द्वारा शत्रु-सैनिकों का संहार कर डाला। पाण्डव केकय, मत्स्य तथा विशेषत: पांचाल योद्धा काल से प्रेरित हो युद्ध में द्रोणाचार्य के रथ के पास आकर नष्ट हो गये। द्रोणाचार्य ने ब्रह्मास्त्र के प्रयोग द्वारा मनुष्यों में सिंह के समान पराक्रमी एक हजार श्रेष्ठ योद्धाओं तथा दो हजार हाथियों को मौत के हवाले कर दिया। जिनकी अंग-कान्ति श्याम थी, जिनके कानों तक के बाल पक गये थे तथा जो चार सौ वर्ष की अवस्था पूरे कर चुक थे, वे बूढ़े द्रोणाचार्य रणभूमि में सोलह वर्ष के तरूण की भांति सब ओर विचरते रहे। जब इस प्रकार सेनाएं कष्ट पाने लगीं तथा बहुत-से नरेश काल के गाल में जाने लगे, तब अमर्ष में भरे हुए पांचाल युद्ध से विमुख हो गये। वे कुछ हतोत्साह होकर जब युद्ध से विमुख हो गये, तब दिव्य अस्त्र प्रकट करने वाले शत्रु विजयी द्रोणाचार्य उदित हुए सूर्य के समान प्रकाशित होने लगे। पाण्डव सेना के बीच में आकर बाणमयी रश्मियों से सुशोभित तुम्हारे प्रतापी पिता द्रोण दोपहर के सूर्य की भांति तपने लगे। उस समय उनकी ओर देखना कठिन हो रहा था। प्रकाशमान सूर्य के समान तेजस्वी द्रोणाचार्य द्वारा दग्ध किये जाते हुए पांचालों के बल और पराक्रम भी दग्ध हो गये थे। वे उत्साह शून्य तथा अचेत हो गये थे। उन सबको द्रोणाचार्य के बाणों द्वारा पीड़ित देख पाण्डवों की विजय चाहने वाले मधुसूदन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार कहा -। ये द्रोणाचार्य शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ एवं रथयूथ पतियों के भी यूथपति है। इन्हें युद्ध में मनुष्य कदापित नहीं जीत सकते। देवराज इन्द्र के लिये भी इन पर विजय पाना असम्भव है ।। अत: पाण्डव ! तुम लोग धर्म का विचार छोड़कर विजय की रक्षा का प्रत्यत्न करो, जिससे सुवर्ण मय रथवाले द्रोणार्चाय युद्ध स्थल में तुम सब लोगो का संहार न कर सके। मेरा ऐसा विश्वास है कि अश्वत्थामा के मारे जाने पर ये युद्ध नहीं कर सकते, अत: कोई मनुष्य इनसे झूठे ही कह दे कि युद्ध में अश्वत्थामा मारा गया। कुन्ती कुमार अर्जुन को यह बात अच्छी नहीं लगी। परंतु और सब लोगों को जंच गयी। युधिष्ठिर बड़ी कठिनाई से इसके लिये तैयार हुए। तब भीमसेन ने लजाते-लजाते तुम्हारे पिता से कहा- अश्वत्थामा मारा गया। परन्तु उनकी इस बात पर तुम्हारे पिता को विश्वास नहीं हुआ। उनके मन में यह संदेह हुआ कि यह समाचार झूठा है, अत: तुम्हारे पुत्रवत्सल पिता ने युद्ध भूमि में धर्मराज युधिष्ठिर से पूछा कि अश्वत्थामा मारा गया या न। युधिष्ठिर असत्य के भय में डूबे होने पर भी विजय में आसक्त थे, अत: मालवनरेश इन्द्र वर्मा के पर्वताकार महान गजराज अश्वत्थामा को भीम सेन के द्वारा युद्ध स्थल में मारा गया देख द्रोणाचार्य के पास जाकर वे उच्च स्वर से इस प्रकार बोले-।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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