"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 73 श्लोक 25-35": अवतरणों में अंतर

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परीक्षित्! जरासन्ध के पुत्र सहदेव से उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया ।जब वे स्नान करके वस्त्राभूषण से सुसज्जित हो चुके, तब भगवान् ने उन्हें उत्तम-उत्तम पदार्थों का भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकार के राजोचित भोग दिलवाये । भगवान् श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उन बंदी राजाओं को सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशों से छुटकारा पाकर तथा कानों में झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतु का अन्त हो जाने पर तारे । फिर भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें सुवर्ण और मणियों से भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ों से युक्त रथों पर चढ़ाया, मधुर वाणी से तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशों को भेज दिया । इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण ने उन राजाओं को महान् कष्ट से मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान् श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीलाओं का चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानी को चले गये ।वहाँ जाकर उन लोगों ने अपनी-अपनी प्रजा से परमपुरुष भगवान् श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानी से भगवान् के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ।  
परीक्षित्! जरासन्ध के पुत्र सहदेव से उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया ।जब वे स्नान करके वस्त्राभूषण से सुसज्जित हो चुके, तब भगवान  ने उन्हें उत्तम-उत्तम पदार्थों का भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकार के राजोचित भोग दिलवाये । भगवान  श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उन बंदी राजाओं को सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशों से छुटकारा पाकर तथा कानों में झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतु का अन्त हो जाने पर तारे । फिर भगवान  श्रीकृष्ण ने उन्हें सुवर्ण और मणियों से भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ों से युक्त रथों पर चढ़ाया, मधुर वाणी से तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशों को भेज दिया । इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान  श्रीकृष्ण ने उन राजाओं को महान् कष्ट से मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान  श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीलाओं का चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानी को चले गये ।वहाँ जाकर उन लोगों ने अपनी-अपनी प्रजा से परमपुरुष भगवान  श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानी से भगवान  के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ।  


परीक्षित्! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासन्धनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले। उन विजयी वीरों ने इन्द्रप्रस्थ के पास पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जिससे उनके इष्टिमित्रों को सुख और शत्रुओं को बड़ा दुःख हुआ । इन्द्रप्रस्थनिवासियों का मन उस शंखध्वनि को सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युद्धिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ करने का संकल्प एक प्रकार से पूरा हो गया । भीमसेन, अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्ध के वध के लिये करना पड़ा था ।  
परीक्षित्! इस प्रकार भगवान  श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासन्धनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले। उन विजयी वीरों ने इन्द्रप्रस्थ के पास पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जिससे उनके इष्टिमित्रों को सुख और शत्रुओं को बड़ा दुःख हुआ । इन्द्रप्रस्थनिवासियों का मन उस शंखध्वनि को सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युद्धिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ करने का संकल्प एक प्रकार से पूरा हो गया । भीमसेन, अर्जुन और भगवान  श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्ध के वध के लिये करना पड़ा था ।  


धर्मराज युधिष्ठिर भगवान् श्रीकृष्ण के इस परम अनुग्रह की बात सुनकर प्रेम से भर गये, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ।
धर्मराज युधिष्ठिर भगवान  श्रीकृष्ण के इस परम अनुग्रह की बात सुनकर प्रेम से भर गये, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ।





१२:४१, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितमोऽध्यायः(73) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: त्रिसप्ततितमोऽध्यायः श्लोक 25-35 का हिन्दी अनुवाद


परीक्षित्! जरासन्ध के पुत्र सहदेव से उनको राजोचित वस्त्र-आभूषण, माला-चन्दन आदि दिलवाकर उनका खूब सम्मान करवाया ।जब वे स्नान करके वस्त्राभूषण से सुसज्जित हो चुके, तब भगवान ने उन्हें उत्तम-उत्तम पदार्थों का भोजन करवाया और पान आदि विविध प्रकार के राजोचित भोग दिलवाये । भगवान श्रीकृष्ण ने इस प्रकार उन बंदी राजाओं को सम्मानित किया। अब वे समस्त क्लेशों से छुटकारा पाकर तथा कानों में झिलमिलाते हुए सुन्दर-सुन्दर कुण्डल पहनकर ऐसे शोभायमान हुए, जैसे वर्षाऋतु का अन्त हो जाने पर तारे । फिर भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें सुवर्ण और मणियों से भूषित एवं श्रेष्ठ घोड़ों से युक्त रथों पर चढ़ाया, मधुर वाणी से तृप्त किया और फिर उन्हें उनके देशों को भेज दिया । इस प्रकार उदारशिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण ने उन राजाओं को महान् कष्ट से मुक्त किया। अब वे जगत्पति भगवान श्रीकृष्ण के रूप, गुण और लीलाओं का चिन्तन करते हुए अपनी-अपनी राजधानी को चले गये ।वहाँ जाकर उन लोगों ने अपनी-अपनी प्रजा से परमपुरुष भगवान श्रीकृष्ण की अद्भुत कृपा और लीला कह सुनायी और फिर बड़ी सावधानी से भगवान के आज्ञानुसार वे अपना जीवन व्यतीत करने लगे ।

परीक्षित्! इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासन्धनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले। उन विजयी वीरों ने इन्द्रप्रस्थ के पास पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये, जिससे उनके इष्टिमित्रों को सुख और शत्रुओं को बड़ा दुःख हुआ । इन्द्रप्रस्थनिवासियों का मन उस शंखध्वनि को सुनकर खिल उठा। उन्होंने समझ लिया कि जरासन्ध मर गया और अब राजा युद्धिष्ठिर का राजसूय-यज्ञ करने का संकल्प एक प्रकार से पूरा हो गया । भीमसेन, अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण ने राजा युधिष्ठिर की वन्दना की और वह सब कृत्य कह सुनाया, जो उन्हें जरासन्ध के वध के लिये करना पड़ा था ।

धर्मराज युधिष्ठिर भगवान श्रीकृष्ण के इस परम अनुग्रह की बात सुनकर प्रेम से भर गये, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसुओं की बूँदें टपकने लगीं और वे उनसे कुछ भी कह न सके ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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