"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 10-20": अवतरणों में अंतर
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११:२५, १६ जुलाई २०१५ का अवतरण
एकादश स्कन्ध: प्रथमोऽध्यायः (1)
श्रीशुकदेवजी कहते हैं—भगवान् श्रीकृष्ण ने वह शरीर धारण करके जिसमें सम्पूर्ण सुन्दर पदार्थों का सन्निवेश था (नेत्रों में मृगनयन, कन्धों में सिंहस्कन्ध, करों में करि-कर, चरणों में कमल आदि का विन्यास था।) पृथ्वी में मंगलमय कल्याणकारी कर्मों का आचरण किया। वे पूर्णकाम प्रभु द्वारकाधाम में रहकर क्रीडा करते रहे और उन्होंने अपनी उदार कीर्ति की स्थापना की। (जो कीर्ति स्वयं अपने आश्रयतक का दान कर सके वह उदार है।) अन्त में श्रीहरि ने अपने कुल के संहार—उपसंहार की इच्छा की; क्योंकि अब पृथ्वी का भार उतरने में इतना ही कार्य शेष रह गया था । भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसे परम मंगलमय और पुण्य-प्रापक कर्म किये, जिनका गान करने वाले लोगों के सारे कलिमल नष्ट हो जाते हैं। अब भगवान् श्रीकृष्ण महाराज उग्रसेन की राजधानी द्वारकापुरी में वसुदेवजी के घर यादवों का संहार करने के लिये कालरूप से ही निवास कर रहे थे। उस समय उनके विदा कर देने पर—विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगीरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वसिष्ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि द्वारका के पास ही पिण्डारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे ।
एक दिन यदुवंश के कुछ उद्दण्ड कुमार खेलते-खेलते उनके पास जा निकले। उन्होंने बनावटी नम्रता से उनके चरणों में प्रणाम करके प्रश्न किया । वे जाम्बवतीनन्दन साम्ब को स्त्री के वेष में सजाकर ले गये और कहने लगे, ‘ब्राम्हणों! यह कजरारी आँखों वाली सुन्दरी गर्भवती है। यह आपसे एक बात पूछना चाहती है। परन्तु स्वयं पूछने में सकुचाती है। आप लोगों का ज्ञान अमोघ—अबाध है, आप सर्वज्ञ हैं। इसे पुत्र की बड़ी लालसा है और अब प्रसव का समय निकट आ गया है। आप लोग बतलाइये, यह कन्या जानेगी या पुत्र ?’ परीक्षित्! जब उन कुमारों ने इस प्रकार उन ऋषि-मुनियों को धोखा देना चाहा, तब वे भगवत्प्रेरणा से क्रोधित हो उठे। उन्होंने कहा—‘मूर्खों! यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी, जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा । मुनियों की यह बात सुनकर वे बालक बहुत ही डर गये। उन्होंने तुरंत साम्ब का पेट खोलकर देखा तो सचमुच उसमें एक लोहे का मूसल मिला । अब तो वे पछताने लगे और कहने लगे—‘हम बड़े अभागे हैं। देखो, हम लोगों ने यह क्या अनर्थ कर डाला ? अब लोग हमें क्या कहेंगे ?’ इस प्रकार वे बहुत ही घबरा गये तथा मूसल लेकर अपने निवासस्थान में गये । उस समय उनके चेहरे फीके पड़ गये थे। मुख कुम्हला गये थे। उन्होंने भरी सभा में सब यादवों के समाने ले जाकर वह मूसल रख दिया और राजा उग्रसेन से सारी घटना कह सुनायी । राजन्! जब सब लोगों ने ब्राम्हणों के शाप की बात सुनी और अपनी आँखों से उस मूसल को देखा, तब सब-के-सब द्वारकावासी विस्मित और भयभीत हो गये; क्योंकि वे जानते थे कि ब्राम्हणों का शाप कभी झूठा नहीं होता ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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