"महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 81 श्लोक 1-22": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: भीष्म पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद </div>


;सातवें दिन के युद्ध में कौरव-पाण्डव-सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
सातवें दिन के युद्ध में कौरव-पाण्डव-सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष
 
संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर आपके पुत्र को चिन्ता में निमग्न देख भरतश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म ने उससे पुनः हर्ष बढ़ाने वाली बात कही- ‘राजन्। मैं, द्रोणाचार्य, शल्य, यदुवंशी कृतवर्मा, अश्वत्थामा, विकर्ण, भगदत्त, सुबल पुत्र शकुनि, अवन्ति देश के राजकुमार विन्द औरअनुविन्द, बाहिकदेशीय वीरों के साथ राजा बाहीक, बलवान् त्रिगर्तराज, अत्यन्त दुर्जय मगध-राज, कोसलनरेश बृहद्वल, चित्रसेन, विविंशति तथा विशाल ध्वजाओं वाले परम सुन्दर कई हजार रथ, घुड़सवारों से युक्त देशीय घोड़े, गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले मदोन्मत्त गजराज और भाँति-भाँति के आयुध एवं ध्वज धारण करने वाले विभिन्न देशों के शूरवीर पैदल सैनिक तुम्हारे लिये युद्ध करने को उद्यत है। ‘ये तथा और भी बहुत से ऐसे सैनिक हैं, जिन्होंने तुम्हारे लिये अपना जीवन निछावर कर दिया है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि ये सब मिलकर युद्धस्थल में देवताओं को भी जीतने में समर्थ हैं। ‘राजन! मुझे सदा तुम्हारे हित की बात अवश्य कहनी चाहिये, इसीलिये कहता हूँ- पाण्डवों को इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी जीत नहीं सकते। ‘राजेन्द्र!एक तो वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी हैं, दूसरे साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं, (अतः उन्हें जीतना असम्भव है तथापि) मैं सर्वथा तुम्हारे वचन का पालन करूँगा। ‘पाण्डवों को मैं युद्ध में जीतूँगा अथवा पाण्डव ही मुझे परास्त कर देंगे।’ ऐसा कहकर भीष्मजी ने दुर्योधन को विशल्यकरणी नामक शुभ एवं शक्तिशालिनी ओषधि प्रदान की। उस समय उसके प्रभाव से दुर्योधन के शरीर में धँसे हुए बाण आसानी से निकल गये और वह आघातजनित घाव तथा उसकी पीड़ा से मुक्त हो गया। तदनन्तर निर्मल प्रभात की बेला में व्यूनविशारद नरश्रेष्ठ बलवान् भीष्म ने अपनी सेना के द्वारा स्वयं ही मण्डल नामक व्यूह का निर्माण किया, जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न था। वह व्यूह हाथी और पैदल आदि मुख्य-मुख्य योद्धाओं से भरा हुआ था। कई सहस्त्र रथों ने उसे सब ओर से घेर रक्खा था। वह व्यूह ऋष्टि और तोमर धारण करने वाले अश्वारोहियों के महान् समुदायों से भरा था। एक-एक हाथी के पीछे सात-सात रथ, एक-एक रथ के साथ सात-सात घुड़सवार, प्रत्येक घुड़सवार के पीछे दस-दस धनुर्धर और प्रत्येक धनुर्धर के साथ दस-दस ढाल-तलवार लिये रहने वाले वीर खड़े थे। महाराज! इस प्रकार महारथियों के द्वारा व्यूहबद्ध होकर आपकी सेना महायुद्ध के लिये खड़ी थी और भीष्म युद्धस्थल में उसकी रक्षाकरते थे। उसमें दस हजार घोड़े, उतने ही हाथी और दस हजार रथ तथा आपके चित्रसेन आदि शूरवीर पुत्र कवच धारण करके पितामह भीष्म की रक्षा कर रहे थे। उन वीरों से भीष्म सुरक्षित थे और भीष्म से उन शूरवीरों की रक्षा हो रही थी। वहाँ बहुत से महाबली नरेश कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार दिखायी देते थे। शोभासम्पन्न राजा दुर्योधन भी युद्धस्थल में कवच बाँधकर रथ पर आरूढ़ हो ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो देवराज इन्द्र स्वर्ग में अपनी दिव्य प्रभा से प्रकाशित हो रहे हों। भारत! तदनन्तर आपके पुत्रों का महान् सिंहनाद सुनायी देने लगा, साथ ही रथों और वाद्यों का गम्भीर घोष गूँज उठा।
संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर आपके पुत्र को चिन्ता में निमग्न देख भरतश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म ने उससे पुनः हर्ष बढ़ाने वाली बात कही- ‘राजन्। मैं, द्रोणाचार्य, शल्य, यदुवंशी कृतवर्मा, अश्वत्थामा, विकर्ण, भगदत्त, सुबल पुत्र शकुनि, अवन्ति देश के राजकुमार विन्द औरअनुविन्द, बाहिकदेशीय वीरों के साथ राजा बाहीक, बलवान् त्रिगर्तराज, अत्यन्त दुर्जय मगध-राज, कोसलनरेश बृहद्वल, चित्रसेन, विविंशति तथा विशाल ध्वजाओं वाले परम सुन्दर कई हजार रथ, घुड़सवारों से युक्त देशीय घोड़े, गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले मदोन्मत्त गजराज और भाँति-भाँति के आयुध एवं ध्वज धारण करने वाले विभिन्न देशों के शूरवीर पैदल सैनिक तुम्हारे लिये युद्ध करने को उद्यत है। ‘ये तथा और भी बहुत से ऐसे सैनिक हैं, जिन्होंने तुम्हारे लिये अपना जीवन निछावर कर दिया है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि ये सब मिलकर युद्धस्थल में देवताओं को भी जीतने में समर्थ हैं। ‘राजन! मुझे सदा तुम्हारे हित की बात अवश्य कहनी चाहिये, इसीलिये कहता हूँ- पाण्डवों को इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी जीत नहीं सकते। ‘राजेन्द्र!एक तो वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी हैं, दूसरे साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं, (अतः उन्हें जीतना असम्भव है तथापि) मैं सर्वथा तुम्हारे वचन का पालन करूँगा। ‘पाण्डवों को मैं युद्ध में जीतूँगा अथवा पाण्डव ही मुझे परास्त कर देंगे।’ ऐसा कहकर भीष्मजी ने दुर्योधन को विशल्यकरणी नामक शुभ एवं शक्तिशालिनी ओषधि प्रदान की। उस समय उसके प्रभाव से दुर्योधन के शरीर में धँसे हुए बाण आसानी से निकल गये और वह आघातजनित घाव तथा उसकी पीड़ा से मुक्त हो गया। तदनन्तर निर्मल प्रभात की बेला में व्यूनविशारद नरश्रेष्ठ बलवान् भीष्म ने अपनी सेना के द्वारा स्वयं ही मण्डल नामक व्यूह का निर्माण किया, जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न था। वह व्यूह हाथी और पैदल आदि मुख्य-मुख्य योद्धाओं से भरा हुआ था। कई सहस्त्र रथों ने उसे सब ओर से घेर रक्खा था। वह व्यूह ऋष्टि और तोमर धारण करने वाले अश्वारोहियों के महान् समुदायों से भरा था। एक-एक हाथी के पीछे सात-सात रथ, एक-एक रथ के साथ सात-सात घुड़सवार, प्रत्येक घुड़सवार के पीछे दस-दस धनुर्धर और प्रत्येक धनुर्धर के साथ दस-दस ढाल-तलवार लिये रहने वाले वीर खड़े थे। महाराज! इस प्रकार महारथियों के द्वारा व्यूहबद्ध होकर आपकी सेना महायुद्ध के लिये खड़ी थी और भीष्म युद्धस्थल में उसकी रक्षाकरते थे। उसमें दस हजार घोड़े, उतने ही हाथी और दस हजार रथ तथा आपके चित्रसेन आदि शूरवीर पुत्र कवच धारण करके पितामह भीष्म की रक्षा कर रहे थे। उन वीरों से भीष्म सुरक्षित थे और भीष्म से उन शूरवीरों की रक्षा हो रही थी। वहाँ बहुत से महाबली नरेश कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार दिखायी देते थे। शोभासम्पन्न राजा दुर्योधन भी युद्धस्थल में कवच बाँधकर रथ पर आरूढ़ हो ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो देवराज इन्द्र स्वर्ग में अपनी दिव्य प्रभा से प्रकाशित हो रहे हों। भारत! तदनन्तर आपके पुत्रों का महान् सिंहनाद सुनायी देने लगा, साथ ही रथों और वाद्यों का गम्भीर घोष गूँज उठा।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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१०:३२, १७ जुलाई २०१५ का अवतरण

एकाशीतितम (81) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: एकाशीतितम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

सातवें दिन के युद्ध में कौरव-पाण्डव-सेनाओं का मण्डल और वज्रव्यूह बनाकर भीषण संघर्ष

संजय कहते हैं- महाराज! तदनन्तर आपके पुत्र को चिन्ता में निमग्न देख भरतश्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म ने उससे पुनः हर्ष बढ़ाने वाली बात कही- ‘राजन्। मैं, द्रोणाचार्य, शल्य, यदुवंशी कृतवर्मा, अश्वत्थामा, विकर्ण, भगदत्त, सुबल पुत्र शकुनि, अवन्ति देश के राजकुमार विन्द औरअनुविन्द, बाहिकदेशीय वीरों के साथ राजा बाहीक, बलवान् त्रिगर्तराज, अत्यन्त दुर्जय मगध-राज, कोसलनरेश बृहद्वल, चित्रसेन, विविंशति तथा विशाल ध्वजाओं वाले परम सुन्दर कई हजार रथ, घुड़सवारों से युक्त देशीय घोड़े, गण्डस्थल से मद की धारा बहाने वाले मदोन्मत्त गजराज और भाँति-भाँति के आयुध एवं ध्वज धारण करने वाले विभिन्न देशों के शूरवीर पैदल सैनिक तुम्हारे लिये युद्ध करने को उद्यत है। ‘ये तथा और भी बहुत से ऐसे सैनिक हैं, जिन्होंने तुम्हारे लिये अपना जीवन निछावर कर दिया है। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि ये सब मिलकर युद्धस्थल में देवताओं को भी जीतने में समर्थ हैं। ‘राजन! मुझे सदा तुम्हारे हित की बात अवश्य कहनी चाहिये, इसीलिये कहता हूँ- पाण्डवों को इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता भी जीत नहीं सकते। ‘राजेन्द्र!एक तो वे देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी हैं, दूसरे साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण उनके सहायक हैं, (अतः उन्हें जीतना असम्भव है तथापि) मैं सर्वथा तुम्हारे वचन का पालन करूँगा। ‘पाण्डवों को मैं युद्ध में जीतूँगा अथवा पाण्डव ही मुझे परास्त कर देंगे।’ ऐसा कहकर भीष्मजी ने दुर्योधन को विशल्यकरणी नामक शुभ एवं शक्तिशालिनी ओषधि प्रदान की। उस समय उसके प्रभाव से दुर्योधन के शरीर में धँसे हुए बाण आसानी से निकल गये और वह आघातजनित घाव तथा उसकी पीड़ा से मुक्त हो गया। तदनन्तर निर्मल प्रभात की बेला में व्यूनविशारद नरश्रेष्ठ बलवान् भीष्म ने अपनी सेना के द्वारा स्वयं ही मण्डल नामक व्यूह का निर्माण किया, जो नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्पन्न था। वह व्यूह हाथी और पैदल आदि मुख्य-मुख्य योद्धाओं से भरा हुआ था। कई सहस्त्र रथों ने उसे सब ओर से घेर रक्खा था। वह व्यूह ऋष्टि और तोमर धारण करने वाले अश्वारोहियों के महान् समुदायों से भरा था। एक-एक हाथी के पीछे सात-सात रथ, एक-एक रथ के साथ सात-सात घुड़सवार, प्रत्येक घुड़सवार के पीछे दस-दस धनुर्धर और प्रत्येक धनुर्धर के साथ दस-दस ढाल-तलवार लिये रहने वाले वीर खड़े थे। महाराज! इस प्रकार महारथियों के द्वारा व्यूहबद्ध होकर आपकी सेना महायुद्ध के लिये खड़ी थी और भीष्म युद्धस्थल में उसकी रक्षाकरते थे। उसमें दस हजार घोड़े, उतने ही हाथी और दस हजार रथ तथा आपके चित्रसेन आदि शूरवीर पुत्र कवच धारण करके पितामह भीष्म की रक्षा कर रहे थे। उन वीरों से भीष्म सुरक्षित थे और भीष्म से उन शूरवीरों की रक्षा हो रही थी। वहाँ बहुत से महाबली नरेश कवच बाँधकर युद्ध के लिये तैयार दिखायी देते थे। शोभासम्पन्न राजा दुर्योधन भी युद्धस्थल में कवच बाँधकर रथ पर आरूढ़ हो ऐसा सुशोभित हो रहा था, मानो देवराज इन्द्र स्वर्ग में अपनी दिव्य प्रभा से प्रकाशित हो रहे हों। भारत! तदनन्तर आपके पुत्रों का महान् सिंहनाद सुनायी देने लगा, साथ ही रथों और वाद्यों का गम्भीर घोष गूँज उठा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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