"महाभारत वन पर्व अध्याय 296 श्लोक 19-33": अवतरणों में अंतर

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१३:४४, १९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

षण्णवत्यधिकद्विशततम (296) अध्याय: वन पर्व (पतिव्रतामाहात्म्यपर्व)

महाभारत: वन पर्व: षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः 19-33 श्लोक का हिन्दी अनुवाद


उस समय सावित्री ने अपने पति से कहा- नाथ ! आप अकेले न जाइये। मैं भी आपके साथ चलूँगी। आज मैं आपको अकेला नहीं छोड़ सकती। सत्यवान् ने कहा- सुन्दरी ! तुम पहले कभी वन में नहीं गयी हो। वन का रास्ता बड़ा दुःखदायक होता है, तुम व्रत और उपवास करने के कारण दुर्बल हो रही हो। ऐसी दशा में पैदल कैसे चल सकोगी ? सावित्री बोली- उपवास के कारण मुझे किसी प्रकार की शिथिलता और थकावट नहीं है। चलने के लिये मेरे मन में पूर्ण उत्साह है, अतः आप मुझे मना न कीजिये। सत्यवान् ने कहा- यदि तुम्हें चलने का उत्साह है तो मैं तुम्हारा प्रिय मनोरथ पूर्ण करूँगा। परंतु तुम मेरे माता-पिता से पूछ लो, जिससे मुझे दोष का भागी न होना पड़े। मार्कण्डेय कहते हैं- तब महान व्रत का पालन करने वाली सावित्री ने अपने सास-ससुर को प्रणाम करके कहा- ‘यं मेरे पतिदेव फल आदि लाने के लिये महान् वन में जाना चाहते हैं। यदि सासजी और ससुरजी मुझे आज्ञा दें, तो मैं भी इनके साथ जाना चाहती हूँ। आज मुझे इनका एक क्षण का भी विरह सहा नहीं जाता है। आपके पुत्र आज गुरुजनों के लिये तथा अग्निहोत्र के उद्देश्य से फल, फूल और समिधा आदि लाने के लिये वन में जा रहे हैं, अतः उनको रोकना उचित नहीं है। हाँ, यदि किसी दूसरे कार्य के लिये वन में जाते होते तो उन्हें रोका भी जा सकता था। एक वर्ष से कुछ ही कम हुआ, मैं बाहर से बाहर नहीं निकली। अतः आज फूलों से भरे हुए वन को देखने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है। द्युमत्सेन बोले- जब से सावित्री के पिता ने इसे मेरी पुत्रवधू बनाकर दिया है, तब से आज तक इसने पहले कभी मुझसे किसी बात के लिये प्रार्थना की हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। अतः आज मेरी पुत्रवधू अपना अभीष्ट मनोरथ प्राप्त करे। बेटी ! जा, सत्यवान् के मार्ग में सावधानी रखना। मार्कण्डेयजी कहते हैं- युधिश्ठिर ! इस प्रकार सा और ससुर दोनों की आज्ञा पाकर यशस्विनी सावित्री अपने पति के साथ चल दी, वह ऊपर से तो हँसती सी जान पड़ती थी, किन्तु उसका हृदय दुःख की ज्वाला से दग्ध हो रहा था। विशाल नेत्रों वाली सावित्री ने सब ओर घूम-घूम कर मयूर समूहों से सेवित रमणीय और विचित्र बन देखे। पवित्र जल बहाने वाली नदियों तथा फूलों से लदे हुए सुन्दर वृक्षों को लक्ष्य करके सत्यवान् सावित्री से मधुर वाणी में कहते- ‘प्रिये ! देखो, कैसा मनोहर दृश्य है’। सती-साध्वी सावित्री अपने पति की सभी अवस्थाओं का निरीक्षण करती थी। नारदजी के वचनों को स्मरण करके उसे निश्चय हो गया था, कि समय पर मेरे पति की मृत्यु अवश्यम्भावी है। मन्द गति से चलने वाली सावित्री मानो अपने हृदय के दो भाग करके एक से अपने पति का अनुसरण करती और दूसरे से प्रतिक्षण उनके मृत्युकाल की प्रतीक्षा कर रही थी।


इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अनतर्गत पतिव्रतामाहात्म्यपर्व में सावित्री उपाख्यान विषयक दो सौ छियानवेवाँ अध्याय पूरा हुआ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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