"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-1": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासनपर्व (दा...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 145 (1/1) का नाम बदलकर महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 145 भाग (1/1) कर दिया गया...) |
(कोई अंतर नहीं)
|
०६:५३, १४ जुलाई २०१५ का अवतरण
पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व) राजधर्म का वर्णन
उमा ने कहा- देवदेव! त्रिलोचन! वृषभध्वज! भगवन्! महेश्वर! आपकी कृपा से मैंने पूर्वोक्त सब विषयों को सुना है। सुनकर आपके उस परम उत्तम उपदेश को मैंने बुद्धि के द्वारा ग्रहण किया है। इस समय मनुष्यों के विषय में एक संदेह ऐसा रह गया है, जिसका समाधान आवश्यक है।। मनुष्यों में यह जो राजा दिखायी देता है, उसके भी प्राण, सिर और धड़ दूसरे मनुष्यों के समान ही हैं, फिर किस कर्म के फल से यह सब में प्रधान पद पाने का अधिकारी हुआ है? यह राजा नाना प्रकार के मनुष्यों को दण्ड देता और उन्हें डाँटता-फटकारता है। यह मृत्यु के पश्चात् कैसे पुण्यात्माओं के लोक पाता है? मानद! अतः मैं राजा के आचार-व्यवहार का वर्णन सुनना चाहती हूँ।। श्री महेश्वर ने कहा- शुभानने! अब मैं तुम्हें राजधर्म की बात बताऊँगा,क्योंकि जगत् का सारा शुभाशुभ आचार-व्यवहारराजा के ही अधीन है। देवि! राज्य को बहुत बड़ी तपस्या का फल माना गया है। प्राचीन काल की बात है, सर्वत्र अराजकता फैली हुई थी। प्रजा पर महान् संकट आ गया। प्रजा की यह संकटापन्न अवस्था देख ब्रह्माजी ने मनु को
राजसिंहासन पर बिठाया।। तभी से राजाओं का शुभाशुभ बर्ताव देखने में आया है। वरारोहे! राजा का जो आचरण जगत् के लिये हितकर और लाभदायक है, वह मुझसे सुनो।। जिस बर्ताव के कारण वह मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग का भागी हो सकता है, वही बता रहा हूँ। उसमें जैसा पराक्रम और जैसा यश होना चाहिये, वह भी सुनो। पिता की ओर से प्राप्त हुए अथवा और पहले से चले आते हुए अथवा स्वयं ही पराक्रम द्वारा प्राप्त करके वश में किये हुए राज्य को राजा धर्म का आश्रय ले विधिपूर्वक उपभोग में लाये। पहले अपने आपको ही विनय से सम्पन्न करे। तत्पश्चात् सेवकों और प्रजाओं को विनय की शिक्षा दे। यही विनय का क्रम है।। शुभेक्षणे! राजा को ही आदर्श मानकर उसके आचरण सीखने की इच्छा से प्रजावर्ग के लोग स्वयं भी विनय से सम्पन्न होते हैं।। जो राजा स्वयं विनय सीखने के पहले प्रजा को ही विनय सिखाता है, वह अपने दोषों पर दृष्टि न डालने के कारण उपहास का पात्र होता है।। विद्या के अभ्यास और वृद्ध पुरूषों के संग से अपने आपको विनयशील बनाये। विद्या धर्म ओर अर्थरूप फल देने वाली है। जो उस विद्या के ज्ञाता हैं, उन्हीं को वृद्ध कहते हैं।। देवि! इसके बाद राजा को अपनी इन्द्रियों पर विजय पाना चाहिये- यह बात बतायी गयी। इन्द्रियों को काबू में रखने से जो महान् दोष प्राप्त होता है, वह राजा को नीचे गिरा देता है।। पाँचों इन्द्रियों को अपने अधीन करके उनके पाँचों विषयों को सुखा डाले। ज्ञान और विनय के द्वारा आवश्यक प्रयत्न करके काम-क्रोध आदि छः दोषों को त्याग दे तथा शास्त्रीय दृष्टि का सहारा लेकर न्यायपरायण हो सेवकों का संग्रह करे। जो सदाचार, शास्त्रज्ञान और उत्तम कुल से सम्पन्न हों, जिनकी सचाई और ईमानदारी की परीक्षा ले ली गयी हो, जो उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए हों, जिनके साथ बहुत से जासूस हों और जो जितेन्द्रिय हों- ऐसे अमात्यों को यथायोग्य अपने कर्मों में उनकी योग्यता के अनुसार नियुक्त करे।।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
|