"श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 46-49": अवतरणों में अंतर
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः श्लोक 46-49 का हिन्दी अनुवाद </div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः श्लोक 46-49 का हिन्दी अनुवाद </div> | ||
भगवन्! इसलिये | भगवन्! इसलिये बुद्धिमान पुरुष आपकी और आपके भक्तों की परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर-नारायण की ही उपासना करते हैं। पांचरात्र-सिद्धान्त के अनुयायी विशुद्ध सत्व को ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसी की उपासना से आपके नित्यधाम वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। उस धाम की यह विलक्षणता है कि वह लोक होने पर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होने पर भी आत्मानन्द से परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुण को आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते । भगवन्! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरुप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरुप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्ग के प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरुप को नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायण को नमस्कार करता हूँ । आप यद्यपि प्रत्येक जीव की इन्द्रियों तथा उनके विषयों में, प्राणों में तथा ह्रदय में भी विद्यमान हैं तो भी आपकी माया से जीव की बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियों के जाल में फँसकर आपकी झाँकी से वंचित हो जाता है। किन्तु सारे जगत् के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होने पर भी जब आपकी कृपा से उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदों की प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है । प्रभो! वेद में आपका साक्षात्कार कराने वाला वह ज्ञान पूर्णरूप से विद्यमान है, जो आपके स्वरुप का रहस्य प्रकट करता है। ब्रम्हा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करने का यत्न करते रहने पर भी मोह में पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्ध में जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव में अप देह आदि समस्त उपाधियों में छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ । | ||
१२:०६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
द्वादश स्कन्ध: अष्टमोऽध्यायः (8)
भगवन्! इसलिये बुद्धिमान पुरुष आपकी और आपके भक्तों की परम प्रिय एवं शुद्ध मूर्ति नर-नारायण की ही उपासना करते हैं। पांचरात्र-सिद्धान्त के अनुयायी विशुद्ध सत्व को ही आपका श्रीविग्रह मानते हैं। उसी की उपासना से आपके नित्यधाम वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है। उस धाम की यह विलक्षणता है कि वह लोक होने पर भी सर्वथा भयरहित और भोगयुक्त होने पर भी आत्मानन्द से परिपूर्ण है। वे रजोगुण और तमोगुण को आपकी मूर्ति स्वीकार नहीं करते । भगवन्! आप अन्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वस्वरुप, जगद्गुरु परमाराध्य और शुद्धस्वरुप हैं। समस्त लौकिक और वैदिक वाणी आपके अधीन है। आप ही वेदमार्ग के प्रवर्तक हैं। मैं आपके इस युगल स्वरुप को नरोत्तम नर और ऋषिवर नारायण को नमस्कार करता हूँ । आप यद्यपि प्रत्येक जीव की इन्द्रियों तथा उनके विषयों में, प्राणों में तथा ह्रदय में भी विद्यमान हैं तो भी आपकी माया से जीव की बुद्धि इतनी मोहित हो जाती है—ढक जाती है कि वह निष्फल और झूठी इन्द्रियों के जाल में फँसकर आपकी झाँकी से वंचित हो जाता है। किन्तु सारे जगत् के गुरु तो आप ही हैं। इसलिये पहले अज्ञानी होने पर भी जब आपकी कृपा से उसे आपके ज्ञान-भण्डार वेदों की प्राप्ति होती है, तब वह आपके साक्षात् दर्शन कर लेता है । प्रभो! वेद में आपका साक्षात्कार कराने वाला वह ज्ञान पूर्णरूप से विद्यमान है, जो आपके स्वरुप का रहस्य प्रकट करता है। ब्रम्हा आदि बड़े-बड़े प्रतिभाशाली मनीषी उसे प्राप्त करने का यत्न करते रहने पर भी मोह में पड़ जाते हैं। आप भी ऐसे लीलाविहारी हैं कि विभिन्न मतवाले आपके सम्बन्ध में जैसा सोचते-विचारते हैं, वैसा ही शील-स्वभाव और रूप ग्रहण करके आप उनके सामने प्रकट हो जाते हैं। वास्तव में अप देह आदि समस्त उपाधियों में छिपे हुए विशुद्ध विज्ञानघन ही हैं। हे पुरुषोत्तम! मैं आपकी वन्दना करता हूँ ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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