"महाभारत वन पर्व अध्याय 203 श्लोक 1-22": अवतरणों में अंतर
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मार्कण्डेयजी कहते हैं- कौरव श्रेष्ठ । उत्तड़क के इस प्रकार आग्रह करने पर अपराजित वीर राजर्षि बृहदश्रव ने उनसे हाथ जोड़कर कहा । ‘ब्रह्मान् । आपका यह आगमन निष्फल नहीं होगा । भगवन् । मेरा यह पुत्र कुवलाश्रव भूमण्डल में अनुपम वीर है। यह धैर्यवान् और फुर्तीला है । परिघ-जैसी मोटी भुजाओं वाले अपने समस्त शूरवीर पुत्रों के साथ जाकर यह आपका सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करेगा, इसमें संशय नहीं है । ब्रह्मान् । आप मुझे छोड़ दीजिये । मैंने तब अस्त्र -शस्त्रों को त्याग दिया है । तब अमित तेजस्वी उत्तड़क मुनि ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा को वन में जाने की आज्ञा दे दी । तत्पचात् राजर्षि बृहदश्रव ने महात्मा उत्तड़को अपना वह पुत्र सौंप दिया और धुन्धुका वध करने की आज्ञा दे उत्तम तपोवन की ओर प्रस्थान किया । युधिष्ठिर ने पूछा-तपोधन । भगवन् । यह पराक्रमी दैत्य कौन था किसका पुत्र और नाती थी मैं यह सब जानना चाहता हूं । तपस्या के धनी मुनीश्रवर । ऐसा महाबली दैत्य तो मैंने कभी नहीं सुना था, अत: भगवन् । मैं इसके विषय में यथार्थ बातें जानना चाहता हूं । महामते । आप यह सारी कथा विस्तारपूर्वक बताइये । मार्कण्डेयजी वृत्तान्त मैं यथार्थरुप से विस्तार पूर्वक कह रहा हूं, ध्यान देकर सुनो । भरत श्रेष्ठ । बात उस समय की है, जब सम्पूर्ण चराचर जगत् एकार्णव के जल में डूबकर नष्ट हो चुका था । समस्त प्राणी काल के गाल में चले गये थे । | मार्कण्डेयजी कहते हैं- कौरव श्रेष्ठ । उत्तड़क के इस प्रकार आग्रह करने पर अपराजित वीर राजर्षि बृहदश्रव ने उनसे हाथ जोड़कर कहा । ‘ब्रह्मान् । आपका यह आगमन निष्फल नहीं होगा । भगवन् । मेरा यह पुत्र कुवलाश्रव भूमण्डल में अनुपम वीर है। यह धैर्यवान् और फुर्तीला है । परिघ-जैसी मोटी भुजाओं वाले अपने समस्त शूरवीर पुत्रों के साथ जाकर यह आपका सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करेगा, इसमें संशय नहीं है । ब्रह्मान् । आप मुझे छोड़ दीजिये । मैंने तब अस्त्र -शस्त्रों को त्याग दिया है । तब अमित तेजस्वी उत्तड़क मुनि ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा को वन में जाने की आज्ञा दे दी । तत्पचात् राजर्षि बृहदश्रव ने महात्मा उत्तड़को अपना वह पुत्र सौंप दिया और धुन्धुका वध करने की आज्ञा दे उत्तम तपोवन की ओर प्रस्थान किया । युधिष्ठिर ने पूछा-तपोधन । भगवन् । यह पराक्रमी दैत्य कौन था किसका पुत्र और नाती थी मैं यह सब जानना चाहता हूं । तपस्या के धनी मुनीश्रवर । ऐसा महाबली दैत्य तो मैंने कभी नहीं सुना था, अत: भगवन् । मैं इसके विषय में यथार्थ बातें जानना चाहता हूं । महामते । आप यह सारी कथा विस्तारपूर्वक बताइये । मार्कण्डेयजी वृत्तान्त मैं यथार्थरुप से विस्तार पूर्वक कह रहा हूं, ध्यान देकर सुनो । भरत श्रेष्ठ । बात उस समय की है, जब सम्पूर्ण चराचर जगत् एकार्णव के जल में डूबकर नष्ट हो चुका था । समस्त प्राणी काल के गाल में चले गये थे । | ||
उस समय वे भगवान् विष्णु एकार्णव जल में अमित तेजस्वी शेषनाग के विशाल शरीर की शययापर आश्रय लेकर शयन करते थे। उन्हीं | उस समय वे भगवान् विष्णु एकार्णव जल में अमित तेजस्वी शेषनाग के विशाल शरीर की शययापर आश्रय लेकर शयन करते थे। उन्हीं भगवान सिद्ध, मुनिगण सबकी उत्पति का कारण, लोकस्त्रष्टा, सर्वव्यापी, सनातन, अविनाशी तथा सर्वलोकमहेश्रवर कहते हैं । महाभाग। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले लोक कर्ता भगवान श्री हरि नाग के विशाल फण के द्वारा धारण की हुई इस पृथ्वी का सहारा लेकर (शेषनाग पर) सो रहे थे, उस समय उन दिव्यस्वरुप नारायण की नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, जो सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। उसी में सम्पूर्ण लोकों के गुरु साक्षात् पितामह ब्रह्मजी प्रकट हुए, जो सूर्य के समान तेजस्वी थे । वे चारों विद्वान् हैं। जरायुज आदि चतुर्विध जीव उन्हीं के स्वरुप हैं। उनके चार मुख हैं। उनके बल और पराक्रम महान् है। वे अपने प्रभाव से दुर्घर्ष हैं । ब्रह्मजी के प्रकट होने के कुछ शाल बाद मधु और कैटभ नामक दो पराक्रमी दानवों ने सर्वसामर्थ्यवान् भगवान श्री हरि को देखा । वे शेषनाग के शरीर की दिव्यशययापर शयन करते हैं, उसकी लंबाई-चौड़ाई कई योजनों की है। भगवान के मस्तक पर किरीट और कण्ठ में कौस्तुभमणि की शोभा हो रही थी उन्होंने रेशमी पीताम्बर धारण कर रखा था । राजन् । वे अपनी कान्ति और तेज से उद्वीप्त हो रहे थे। शरीर वे सहस्त्रों सुर्यों के समान प्रकाशित होते थे । उनकी झांकी अभ्दुत और अनुपम थी । भगवान को देखकर मधु और कैटभ दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। तत्पचात् उनकी दृष्टी कमल में बैठे हुए कमलनयन पितामह ब्रह्माजी पर पड़ी उन्हें देखकर वे दोनों दैत्य उन अमित तेजस्वी ब्रह्मजी को डराने लगे । उन दोनों के द्वारा बार-बार डराये जाने पर महायशस्वी ब्रह्मजी ने उस कमल की नाल को हिलाया। इससे भगवान गोविन्द जाग उठे। जागने पर उन्होंने उन दोनों महापराक्रमी दानवों को देखा । | ||
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१२:१६, २९ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
त्रयधिकद्विशततम (203) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व )
ब्रह्माजी की उत्पति और भगवान विष्णु के द्वारा मधु – कैटभ का वध
मार्कण्डेयजी कहते हैं- कौरव श्रेष्ठ । उत्तड़क के इस प्रकार आग्रह करने पर अपराजित वीर राजर्षि बृहदश्रव ने उनसे हाथ जोड़कर कहा । ‘ब्रह्मान् । आपका यह आगमन निष्फल नहीं होगा । भगवन् । मेरा यह पुत्र कुवलाश्रव भूमण्डल में अनुपम वीर है। यह धैर्यवान् और फुर्तीला है । परिघ-जैसी मोटी भुजाओं वाले अपने समस्त शूरवीर पुत्रों के साथ जाकर यह आपका सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करेगा, इसमें संशय नहीं है । ब्रह्मान् । आप मुझे छोड़ दीजिये । मैंने तब अस्त्र -शस्त्रों को त्याग दिया है । तब अमित तेजस्वी उत्तड़क मुनि ने ‘तथास्तु’ कहकर राजा को वन में जाने की आज्ञा दे दी । तत्पचात् राजर्षि बृहदश्रव ने महात्मा उत्तड़को अपना वह पुत्र सौंप दिया और धुन्धुका वध करने की आज्ञा दे उत्तम तपोवन की ओर प्रस्थान किया । युधिष्ठिर ने पूछा-तपोधन । भगवन् । यह पराक्रमी दैत्य कौन था किसका पुत्र और नाती थी मैं यह सब जानना चाहता हूं । तपस्या के धनी मुनीश्रवर । ऐसा महाबली दैत्य तो मैंने कभी नहीं सुना था, अत: भगवन् । मैं इसके विषय में यथार्थ बातें जानना चाहता हूं । महामते । आप यह सारी कथा विस्तारपूर्वक बताइये । मार्कण्डेयजी वृत्तान्त मैं यथार्थरुप से विस्तार पूर्वक कह रहा हूं, ध्यान देकर सुनो । भरत श्रेष्ठ । बात उस समय की है, जब सम्पूर्ण चराचर जगत् एकार्णव के जल में डूबकर नष्ट हो चुका था । समस्त प्राणी काल के गाल में चले गये थे ।
उस समय वे भगवान् विष्णु एकार्णव जल में अमित तेजस्वी शेषनाग के विशाल शरीर की शययापर आश्रय लेकर शयन करते थे। उन्हीं भगवान सिद्ध, मुनिगण सबकी उत्पति का कारण, लोकस्त्रष्टा, सर्वव्यापी, सनातन, अविनाशी तथा सर्वलोकमहेश्रवर कहते हैं । महाभाग। अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाले लोक कर्ता भगवान श्री हरि नाग के विशाल फण के द्वारा धारण की हुई इस पृथ्वी का सहारा लेकर (शेषनाग पर) सो रहे थे, उस समय उन दिव्यस्वरुप नारायण की नाभि से एक दिव्य कमल प्रकट हुआ, जो सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। उसी में सम्पूर्ण लोकों के गुरु साक्षात् पितामह ब्रह्मजी प्रकट हुए, जो सूर्य के समान तेजस्वी थे । वे चारों विद्वान् हैं। जरायुज आदि चतुर्विध जीव उन्हीं के स्वरुप हैं। उनके चार मुख हैं। उनके बल और पराक्रम महान् है। वे अपने प्रभाव से दुर्घर्ष हैं । ब्रह्मजी के प्रकट होने के कुछ शाल बाद मधु और कैटभ नामक दो पराक्रमी दानवों ने सर्वसामर्थ्यवान् भगवान श्री हरि को देखा । वे शेषनाग के शरीर की दिव्यशययापर शयन करते हैं, उसकी लंबाई-चौड़ाई कई योजनों की है। भगवान के मस्तक पर किरीट और कण्ठ में कौस्तुभमणि की शोभा हो रही थी उन्होंने रेशमी पीताम्बर धारण कर रखा था । राजन् । वे अपनी कान्ति और तेज से उद्वीप्त हो रहे थे। शरीर वे सहस्त्रों सुर्यों के समान प्रकाशित होते थे । उनकी झांकी अभ्दुत और अनुपम थी । भगवान को देखकर मधु और कैटभ दोनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। तत्पचात् उनकी दृष्टी कमल में बैठे हुए कमलनयन पितामह ब्रह्माजी पर पड़ी उन्हें देखकर वे दोनों दैत्य उन अमित तेजस्वी ब्रह्मजी को डराने लगे । उन दोनों के द्वारा बार-बार डराये जाने पर महायशस्वी ब्रह्मजी ने उस कमल की नाल को हिलाया। इससे भगवान गोविन्द जाग उठे। जागने पर उन्होंने उन दोनों महापराक्रमी दानवों को देखा ।
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