"महाभारत वन पर्व अध्याय 206 श्लोक 33-48": अवतरणों में अंतर
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०८:१३, २५ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण
षडधिकद्विशततम (206) अध्याय: वन पर्व (समस्या पर्व )
जो क्रोध और मोह को त्याग देता है, उसी को देवता गण ब्राह्मण मानते हैं। जो यहां सत्य बोले, गुरु को संतुष्ट रखे, किसी के द्वारा मार खाकर भी बदले में उसे न मारे, उसको देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं । जो जितेन्द्रिय, धर्मपरायण, स्वाध्याय तत्पर और पवित्र है तथा काम और क्रोध जिसके वश में है, उस देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं । जिस धर्मज्ञ एवं मनस्वी पुरुष का सम्पूर्ण जगत् के प्रति आत्म भाव है तथा धर्मो पर जिसका समान अनुराग है, उसे देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं । जो पढ़े और पढ़ाये, यज्ञ करे और कराये तथा यथा शक्ति दान दे, उसे देवता ब्राह्मण कहते हैं । जो द्विज श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य का पालन करे, उदार बने, वेदों का अध्ययन करे और सतत सावधान रहकर स्वाध्याय में ही लगा रहे, उसे देवता लोग ब्राह्मण मानते हैं । ब्राह्मण के लिये जो हितकर कर्म हो, उसी का उनके सामने वर्णन करना चाहिये । सत्य बोलने वाले लोगों का मान कभी असत्य में नहीं लगता । द्विज श्रेष्ठ । स्वाध्याय, मनोनिग्रह, सरलता और इन्द्रिय निग्रह-ये ब्राह्मण के लिये सनातन धर्म कहे गये हैं । धर्मज्ञ पुरुष सत्य और सरलता को सर्वोत्तम धर्म बताते हैं। सनातन धर्म के स्वरुप को जानना तो अत्यन्त कठिन है, परंतु वह सत्य में प्रतिष्ठित है। जो वेदों के द्वारा प्रमाणित हो, वही धर्म है-यह वृद्ध पुरुषों का उपदेश है । द्विज श्रेष्ठ । बहुधा धर्म का स्वरुप सूक्ष्म ही देखा जाता है। तुम भी धर्मज्ञ, स्वाध्याय परायण और पवित्र हो । भगवनत्र । तो भी मेरा विचार यह है कि तुम्हे धर्म का यथार्थ ज्ञान नहीं है। विप्रवर । यदि तुम परम धर्म क्या है, यह नहीं जानते तो मिथिलापुरी में धर्मव्याघ के पास जाकर पूछो । मिथिला में व्याघ रहता है, जो माता-पिता का सेवक, सत्यवादी और जितेन्द्रिय है, वह तुम्हें धर्म का उपदेश करेगा । द्विजश्रेष्ठ । तुम अपनी रुचि के अनुसार वहीं जाओ, तुम्हारा मगड़ल हो । अनिन्दनीय ब्राह्मण। यदि मेरे मुख से कोई अनुचित बातें निकल गयी हों तो उन सबके लिये मुझे क्षमा करें; क्योंकि जो धर्मज्ञ पुरुष हैं, उन सबकी दृष्टि में स्त्रियां अदण्डनीय हैं । ब्राह्मण बोला-शुभे । तुम्हारा भला हो । मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं। मेरा सारा क्रोध दूर हो गया। तुमने जो उलाहना दिया है, वह अनुचित वचन नहीं, मेरे लिये परम कल्याणकारी है। शोभ ने । तुम्हारा कल्याण हो । अब मैं जाऊंगा और अपना कार्यसाधना करुंगा। कल्याणि। तुम धन्य हो, जिसका सदाचार इतनी उच्चकोटि का है । मार्कण्डेयजी कहते हैं-युधिष्ठिर। उस साध्वी स्त्रीं से विदा लेकर वह द्विज श्रेष्ठ कौशिक अपने आत्मा की निन्दा करता हुआ अपने घर को लौट गया ।
इस प्रकार श्री महाभारत वन पर्व के अन्तर्गत मार्कण्डेय समास्या पर्व में पतिव्रतो पाख्यान विषयक दो सौ छवां अध्याय पूरा हुआ ।
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