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०६:२२, २२ जुलाई २०१५ का अवतरण
तंत्रिका
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5 |
पृष्ठ संख्या | 289 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | मुकुंदस्वरूप वर्मा |
तंत्रिका (Nerve) इनके द्वारा मस्तिष्क से शरीर के भिन्न भिन्न भागों में संवेग या सूचनाएँ पहुँचती हैं तथा त्वचा, अंग और आभ्यंतरोगों से मस्तिष्क में जाती रहती हैं। ये उन तारों के समान है, जिनमें होकर एक तारधर से दूसरे तारधर में समाचार पहुँता है। तंत्रिकाओं का काम तारों की भाँति सूचना को मस्तिष्क से अंगों में और अंगों से मस्तिष्क में पहुँचाना है।
तंत्रिका की रचना
मस्तिष्क के प्रांतस्था (cortex) भाग रंग का पदार्थ है, तंत्रिका कोशिकाएँ सिथत हैं। धूसर पदार्थ के भीतर श्वेत पदार्थ में भी कोशिकाओं के समूह धूसर रंग की द्वीपिकाओं में स्थित हैं, जो केंद्रक कहे जाते हैं इन कोशिकाओं से बहुत से सूक्ष्म तंतु निकले हुए हैं। अन्य तंतु तो पास की कोशिका तंतु के पास ही समाप्त हो जाते हैं, किंतु एक तंतु बहुत ही लंबा होता है और कोशका से निकलकर अन्य कोशिकाओं के समान तंतुओं के साथ मिलकर दूसरे केंद्रकों में पहँचकर समाप्त होता है, या आगे मेरूरज्जु में चला जाता है। यह तंतु कोशिका का अक्षतंतु (Axon) और शेष छोटे तंतु अभिवाही प्रवर्ध (Dendron) कहलाते हैं। अक्षतंतु अभिवाही प्रवर्ध और कोशिका मिलकर न्यूरॉन (Neuron) कहे जाते हैं। यह तंत्रिकातंत्र की इकाई है। कोशिका में संवेग उत्पन्न होता है और अक्षतंतु द्वारा दूसरे केंद्रक में, या और भी आगे जाकर, अंगों में पहुँचता है। अक्षतंतु ही संवेग का संवहन करते हैं। बभिवाही प्रवर्ध द्वारा संवेग कोशिका में आता है। तंत्रिका इन अक्षतंतुओं का पुंज होती है। प्रत्येक तंत्रिका में अनेक अक्षतंतु होते हैं, जो बारीक सूत्र के सद्यस चमकीले श्वेत रंग के दिखाई देते हैं। जब अक्षतंतु कोशिका से लिकलता है तो उसपर कोई आवरणा नहीं होता, किंतु आगे चलकर उसपर माइलिन पिधान (Myelin sheath) चढ़ जाता है। इसके बाहर भी तंत्रिका आवरण, न्यूरिलेमा (Neurilemma), वन जाता है। इस समय अक्षतंतु अक्ष सिलिंडर कहलाता है। इस प्रकार प्रत्येक तंत्रिकातंतु में तंत्रिका आवरण, माइलिन पिधान और अक्ष सिलिंडर होते है। अक्ष सिलिंडर में होकर ही संवेग कोशिका से अपने निर्दिष्ट स्थान में पहुॅचता है। ऐसे तंतुओं के पुंज को, जिसमें अनेक तंतु सौत्रिक आवरण द्वारा ऐसे बॅधे रहते है जैसे बहुत से धागों का गुच्छा बना दिया गया है, तंत्रिका कहते है।
तंत्रिका के प्रकार
तंत्रिका मुख्यतया दो प्रकार की होती है:-
- प्रेरक (motor), जो संवेग या उत्तेजना को मस्तिष्क या तंत्रिकाकोशिका से अंगों और पेशियों में पहॅुचती है, जिससे अंगों की क्रिया होती है और पेशियों के संकोच से गति होती है;
- सांवेदनिक (sensory),जो अंगो तथा त्वचा से उत्त्जोऩा को में विभक्त किया गया है। एक मस्तिष्क से निकलने वाली तंत्रिकॅांएँ, जो कपाली तंत्रिका (spinal nerves), कपालीय तंत्रिकाओं के 12 जोड़े हैं। ये सब मस्तिष्क के तल से निकलती है।
- ध्राणकंद (Olfactory bulb); २. ध्राणपथ ; ३. ब्रोका का (Broca¢ s) क्षेत्र ; ४. ध्राण अमेधिका tubercle); ५. दृष्टि (optic) तंत्रिका ; ६. दृष्टि स्वस्तिक (Chiasma); ७. नेत्रचालनी (Oculomotor) तीसरी तंत्रिका ; ८. चक्रक (Trochlear) चौथी तंत्रिका; ९.त्रिमूलिका (Trigeminal)पॉचवी तंत्रिका; १०.उद्विवर्तनी (Abducent) छठी तंत्रिका; ११आनन (Facial)सातवी तंत्रिका; १२.मध्यक भाग (pars Media); १३.श्रवण (Auditory)आठवीं तंत्रिका; १४.अधोजिह्यिकी (sublingual) बारहवीं तंत्रिका; १५.जिह्यिका ग्रसनी(Glosso Pharyngeal) नवीं तंत्रिका; १६.अधोजिह्यिकी (sublingual) बारहवीं तंत्रिका; १७.वेगस (vagus) दसवीं तंत्रिका; १८. मेरूसहायिका ग्यारहवीं तंत्रिका,सहायिका भाग (Spinal Accessory Part); १९. मेरूसहायिका ग्यारहवीं तंत्रिका, मेरूभाग (Spinal Acc. Nerve, Spinal part); २०. मेरूरज्जु (Spinal cord); २१. पश्च कपाल खंड÷(Occipital lobe), कटा हुआ; २२.अनुमस्तिष्क का वर्मिस (Vermis of cerebellum), कटा हुआ; २३. घ्राणतंत्रिका का अभिमध्यमूल (medial root); २४. दृष्टिस्वस्तिक; २५. पार्श्वमूल (Lateral root); २६. पूर्व सुषिरविदु (Anterior spongy point); २७. शंखखंड (Temporal lobe), कटा हुआ; २८. दृष्टिपथ (Optic tract); २९. चक्रक (Trochlear)तंत्रिका; ३०. वृत्ताकार वेणी, टीनिया (Tinea circularis); ३१. त्रिमूलिका (Trigeminal); ३२. उद्विवर्तनी (Abducent) तंत्रिका ३३. बहि:वक्रपिंड (Exterior geniculate body); ३४ अंत:वक्रपिंड,जेनिकुलेट; (३५) पुल्विनार (Pulvinar); ३६. आननी (Facial) तंत्रिका; ३७. अभिमध्य भाग (Pons medjalis); ३८. श्रवण (Auditory) तंत्रिका; ३९. मध्य अनुमस्तिष्क स्तंभ (Medial Cerebellar Peduncle); ४०. पार्श्व निलय (Lateral Ventricle); ४१. ज्ह्राि ग्रसनी (Glosso-pharyngeal) तंत्रिका; ४२. वेगस (Vagus) तंत्रिका; ४३. मेरूसहायक (Spinal accessory) तंत्रिका तथा४४. मेरूसहायक तंत्रिका (लघु)।
मस्तिष्क में ले जाती है त्वचा पर किसी कीड़े के काटने का ज्ञान मस्तिष्क को कराने वाली ये ही तंत्रिकाएँ होती हैं। इनके अतिरिक्त तंत्रिकातंतु होते हैं, जो एक कोशिका से दूसरी कोशिका तक संवेग को पहुँचाते हैं। ये संयोजक तंतु (Communicating fibres) कहलाते हैं।
शरीर में स्थिति का उद्भव के अनुसार तंत्रिकाओं को दो श्रेणियों में विभक्त किया गया है। एक से निकलनेवाली तंत्रिकाएँ, जो कपाली तंत्रिका (Cranial nerves) कहलाती हैं, और दूसरी मेरूरज्जु से निकलनेवाली मेरूतंत्रिका (Spinal nerves) कपालीय तंत्रिकाओं के (१२) जोड़े हैं। ये सब मस्तिष्क के तल से निकलती हैं और करोटि की अस्थियों में जो छिद्र बन जो हैं उनके द्वारा बाहर आती हैं।
प्रथम तंत्रिका घ्राणतंत्रिका है। कपाल के भीतर स्थित घ्राणकंद (Olfactory bulb) और घ्राणपथ (Olfactory tract) इसी के भाग हैं। मस्तिष्क के ललाटखंड के नीचे स्थित प्राणकंद से 20 या 25. माइलिन-पिघानरहित तंत्रिकातंतु झर्झरास्थि के सुषिरफलक में से निकलकर, नासिका के फलक पर आच्छादित श्लैष्मल कला में फैल जाते हैं। इनके द्वारा गंध का ज्ञान नासिका में होता हुआ घ्राणकंद में पहुँचकर घ्राणपथ द्वारा मस्त्तिष्क के घ्राणकेन्द्र में पहुँच जाता है।
द्वितीय, दृष्टितंत्रिका है, जिसके द्वारा नेत्र के सामने आनेवाली वस्तुओं का ज्ञान मस्तिष्क के कपालखंड में स्थित दृष्टिकेंद्र में पहुँचता है। नेत्र के सबसे भीतर के कृष्णपटल, या रेटिना, के पीछे से इस तंत्रिका के सूत्र प्रारंभ होकर, दृष्टितंत्रिका के रूप में नेत्रगुहा से दृष्टिरध्रं (Optic Foramen) द्वारा निकलते हैं। तंत्रिका आगे चलकर अक्षिस्वस्तिक (Optic Chiasma) में चली जाती है, जिसमें नेत्र से आनेवाली कुछ सूत्र एक ओर से दूसरी ओर को चले जाते हैं। कुछ सीधे उसी ओर आगे को अग्रसर हो जाते हैं। यहाँ अक्षिपथ (Optic Tract) प्रारंभ होता है, जिसमें होते हुए सूत्र मध्यमस्तिष्क (Mesencephalon) के ऊर्ध्व-चतुष्टय-पिंड (Superior quadrigeminal body), अंत: और बहिर्जेनिक्युलेट पिंड तथा पुलविनार (Pulvinar) में स्थित अधोदृष्टिकेंद्र में चे जाते हैं। जो सूत्र स्वस्तिका में दूसरी ओर को गए थे वे भी यहीं पर पहूँचते हैं। यह निम्न या अधोदृष्टिकेंद्र, पश्चकपाल खंड के उच्च दृष्टिकेंद्र से अक्षिविकिरण (Optic radiation) द्वारा संबंधित है। इस प्रकार जिस वस्तु का नेत्र के रेटिना पर बिंब बनता है उसके चिन्ह (impression) रेटिना के पीछे दृष्टितंत्रिका के सूत्रों में होते हुए दृष्टि, अक्षिस्वस्तिक और अक्षिपथ द्वारा मध्यमस्तिष्क में होकर पश्चकपाल खंड के दृष्टिकेंद्र में पहुँच जाते हैं। इस मार्ग का कोई भी स्थान रोग या अर्बुद द्वारा आक्रांत हो जाने से हम सामने की वस्तु नहीं देख पाते।
तृतीय, नेत्रप्रेरक तंत्रिका (Occulomotor nerve) नेत्र की उन पेशियों की प्रेरक है जिनके संकोच से नेत्रगोलक ऊपर, नीचे या बाहर और भीतर की ओर घूमता है।
चतुर्थ, चक्रक (Trochlear) तंत्रिका भी नेत्रगुहा में आकर ऊर्ध्व तिर्यक् (Superior oblique) पेशी में जाती है और उसका संचालन करती है।
पाँचवीं, त्रिधारा (Trigeminal ) तंत्रिका है, जो प्रेरक और सांवेदनिक मूलों से निकलती है। सांवेदनिक मूल पर एक बड़ी त्रिधारा मुच्छिका (ganglion) है, जिससे तीन बड़ी बड़ी शाखाएँ निकलती हैं जो नेत्र संबंधी (Ophthalmic), उर्ध्वहनु (Maxillary) और अधोहनु (Mandibular) विभाग कहलती हैं। प्रेरक तंतु केवल अधोहनु विभाग में आते हैं और चर्वण की पेशियों का संचालन करते हैं। शेष दोनों विभागों की शाखाएँ ललाट, मुख तथा गले के ऊर्ध्व भाग में फैल जाती है।
छठी, उद्विवर्तनी (Abducens) तंत्रिका केवल नेत्र की पश्चऋजु (Exterior rectus) पेशी में जाती है।
सातवीं, आनन (Facial) तंत्रिका मुख की समस्त पेशियों (चर्वणक पेशियों के अतिरिक्त) का संचालन करती है।
आठवीं, श्रवण (Auditory) तंत्रिका के दो विभाग हैं, जो कर्ण में श्रवण संबंधी कर्णावर्त (Cochlea) भाग तथा प्रघाण (vestibular) क्षेत्र में जाते हैं। इसके प्रथम विभाग द्वारा हमको शब्द का ज्ञान होता है तथा दूसरा भाग शरीर का संतुलन करता है।
नवीं, ज्ह्राि कंठिका तंत्रिका ज्ह्राि के पिछले भाग में आकर ज्ह्राि की पेशियों का संचालन करती है। इसके सांवेदनिक सूत्र कंठ में फैले हुए हैं।
दसवीं, वेगस (Vagus) तंत्रिका अत्यंत महत्वशाली और विस्तृत है। इसकी एक सांवेदनिक शाखा कंठ (larynx) में जाती है तथा प्रेरक शाखाएँ कंठग्रसनिका (pharynx), फुफ्फुसजालिका बनाती है। तब ग्रासनली (Oesophagus) पर, फिर ग्रासनली जालिका में विभक्त हो जाती है। मध्यच्छया पेशी के पास पहुँचकर, फिर दोनों स्पष्ट होकर, बाई ओर की तंत्रिका आमाशय के सामने आ जाती है और इसकी शाखाएँ आमाशय के अग्रपृष्ठ में जाती तथा यकृतजालिका से मिल जाती हैं। दाहिनी तंत्रिका आमाशय के पीछे से जाकर कुक्षि (coeliac) तथा प्लीहा (splenic) और वृक्क (renal) जालिकाओं से मिल जाती है।
ग्यारहवीं, मेरू सहायिका तंत्रिका (Spinal Accessory) में केवल प्रेरक सूत्र होते हैं। इसका सहायक भाग वेगस तंत्रिका में चला जाता है। दूसरा मेरूभाग उर:कर्णमूलिका (Sternocleido mastoidus) और पूष्ठच्छदा (Trapezius) पेशियों को शाखा देता है।
बारहवीं, अधोज्ह्रि (Hypoglossal) तंत्रिका ज्ह्राि की पेशियों को, कंठिकास्थि को नमित करनेवाली पेशियों को तथा स्वरयंत्र (larynx) संबंधि पेशियों की शाखाएँ भेजती है।
मेरतंत्रिका
मेरूरज्जु के, जो मस्तिष्क के तल से निकलकर तथा कपाल के महाविवर द्वारा बाहर आकर कशेरूक नलिका में प्रथाम ग्रैवेयक कशेरूक से लेकर त्रिक प्रांत तक फैली हुई है, दोनों ओर से मेरूतंत्रिकाओं के ३१ जोड़े निकलते हैं। प्रत्येक तंत्रिका मेरूरज्जु से दो मूलों (roots) से निकलती है। अग्रमूल (anterior root) में केवल प्रेरक तंतु रहते हैं। पश्चमूल (posterior root) में केवल सांवेदनिक सूत्र होते हैं। इस मूल पर एक सूक्ष्म गाँठ सी होती है, जिसको गुच्छिका (ganglion) कहते हैं। यह कशेरूक नलिका के पार्श्व के छिद्र में रहती है, जहाँ से तंत्रिका निकलती है। आगे चलकर दोनों मूल मिल जाते हैं और एक मिश्रित तंत्रिका तैयार हो जाती है। जिसमें प्रेरक और सांवेदनिक दोनों प्रकार के तंतु रहते हैं। आत्मगतंत्र की संगम प्रशाखाएँ (ramii communicants of autonomous nervous system) यहीं पर आकर तंत्रिका में मिल जाती हैं। वक्ष प्रांत में तंत्रिका वितरण निश्चित प्रकार का है। इस कारण उसको आदर्श स्वरूप मानकर यहाँ उसका विवरण दिया जाता है। अन्य प्रांतों की विशेषताओं का आगे चलकर वर्णन किया जायगा।
दोनों मूलों के मिलने से तंत्रिका बनने पर संगम प्रशाखाओं के संयोग के पश्चात् तंत्रिका बनने पर संगम प्रशाखाओं के संयोग के पश्चात् तंत्रिका दो मुख्य विभागों में विभक्त हा जाती है। अग्र विभाग धड़ के सामने की ओर जाता है। पार्श्व में पहुँचने पर इससे एक पार्श्वकांड (lateral trunk) निकलता है, जिसकी अग्र और पश्च शाखाएँ त्वचा में सामने और पीछे की ओर फैल जाती हैं। स्वयं अग्रविभाग पर्शुकांतरिका पेशियों के बीच में, पर्शुकांतरिका तंत्रिका के रूप में, वहाँ की पेशियों में तुतुओं को वितरित करता हुआ, सामने उरोस्थि तक पहुँच जाता है। पश्चविभाग पीछे की ओर जाकर, अग्र और पश्च शाखाओं में विभक्त हाकर, पीठ की पेशियों में और त्वचा में वितरित हा जाता हैं। वक्ष की १२ तंत्रिकाओं के जोड़ों का इसी प्रकार वितरण है, अर्थात् एक तंत्रिका वक्ष के एक खंड में वितरित है। अन्य प्रांतों में ऐसा निश्चित प्रकार का और विशेष भाग में परिमित वितरण नहीं है।
जालिकाएँ
ग्रीवा प्रांत की प्रथम तंत्रिका में बहुघा पश्चविभाग नहीं होता। इस कारण वह त्वचा में शाखाएँ नहीं भेज सकती। उसका अग्र विभाग दूसरी, तीसरी और चौथी ग्रीवातंत्रिकाओं के अग्र विभागों के साथ मिलकर, ग्रैवेयक जालिका (cervical plexus) बना देत है, जो ग्रीवा की उन पेशिओं अाैर त्वचा आदि में जिनमें कपाली तंत्रिकाओं के तंतु नहीं पहुँचते तंतुओं का वितरण करती है। मध्यच्छदा तंत्रिका (Phrenic nerve) विशेषकर चौथी ग्रीवा तंत्रिका से निकलती है किंतु वह सारे वक्ष को पार करके नीचे जाकर मघ्यच्छदा पेशी (Diaphragm) के अधिक भाग का तंत्रिकासंभरण (nerve supply) करती है। इसका कारण भ्रूण की ग्रीवा में मध्यच्छदा की उत्पत्ति है। चौथी ग्रैवेयक के शेष भाग और पाँचवीं, छठी, सातवीं और आठवीं, ग्रैवेयक तथा प्रथम वक्षीय तंत्रिका के अग्रविभाग मिलकर प्रगंड जालिका (Brachial plexus) बनाते हैं। जालिका में तंत्रिकाआं के तंतुओं का पुनर्विन्यास होता है, जिससे तीन विशिष्ट विभाग बनते हैं। इनको पार्श्विक, प्रांत और माध्यमिक विभाग कहते हैं। इन विभागों से, जिनको रज्जु (cord) भी कहते हैं, ऊर्ध्व शाखा वक्ष, ग्रीवा तथा पीठ की कितनी ही पेशियों को तथा त्वचा को शाखाएँ जाती हैं।
बक्ष प्रांत में इस प्रकार की कोई जालिका नहीं बनती। यहाँ के तंत्रिकावितरण का जो वर्णन किया गया है, उससे स्पष्ट है कि प्रत्येक तंत्रिका वितरण का जो वर्णन किया गया है, उससे स्पष्ट है कि प्रत्येक तंत्रिका यहाँ स्वतंत्रतया वितरित है। उदर की भित्ति में भी पर्शुकांतरिका तंत्रिका फैली हुई है। इसके निचले भाग में प्रथम कटितंत्रिका (Lumbar nerve) भी इसी प्रकार उदरभित्ति तथा वहाँ की पेशियों में फैली हुई है, यद्यपि उसका कुछ अंश कटिजालिका (Lumbar plexus) बनाने में भाग लेता है।
कटिजालिका
दूसरी, तीसरी, चौथी कटितंत्रिकाएँ और प्रथम त्रिक्तंत्रिका के कुछ भाग के संमेलन से यह जालिका बनती है। चौथी तंत्रिका की एक शाखा प्रथम त्रिक्तंत्रिका (sacral nerve) के साथ मिलकर त्रिग्जालिका (Sacral plexus) बनाने में भाग लेती है। कटिजालिका से कई बड़ी बड़ी तंत्रिकाएँ बनती हैं, जिनकी शाखाएँ नितंब, उपस्थ, पेडू तथा ऊरू में सामने तथा भीतर और पीछे की ओर की पशियों एवं त्वचा तथा संधियों में उपशाखाएँ भेजती है।
त्रिग्जालिका
पाँचवीं कटि तथा पहली, दूसरी, तीसरी और चौथी त्रिक्तंत्रिकाओं से यह बनती है। इसकी शाखाएँ नितंब की कुछ पेशियां तथा जानु से नीचे जंघा, गुल्फ तथा पॉव की पेशियां, संधियों तथा त्वचा का तंत्रिकाभरण करती हैं। ग्ध्रृासी (Sciatic) तंत्रिका इसी जालिका से बनती है। यह अधोशाखा की सबसे बड़ी तंत्रिका है।
शरीर में और भी कितनी ही जालिकाएँ हैं। आभ्यंतरांगों- हृदय, फुफ्फुस, आमाशय, आंत्र आदि - आत्मज तंत्रिकातंत्र के सूत्रों की जालिकाएँ फैली हुई हैं, जिनके द्वारा उन अंगों की क्रिया घटती बढ़ती हैं। उनमें भी अपवाही और अभिवाही सूत्र हैं, जो सूचनाआं को केंद्र से अंग में और अंग से केंद्र में ले जाते हैं।
कपाली और मेरूतंत्रिकाओं का काम नासिका, नेत्र, श्रवण, रसना तथा शरीर की समस्त पेशियों का संचालन और प्रत्येक स्थान की त्वचा से संवेग या सूचनाआं को मस्तिष्क में पहुँचाना है। भीतर के अंगों पर आत्मज तंत्र का अधिकार है। वही उनका नियंत्रण करता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ