"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 209 भाग 2": अवतरणों में अंतर
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०६:०९, २३ जुलाई २०१५ का अवतरण
नवाधिकद्विशततम (209) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
इससे उन दानवेन्द्रों को बड़ा विस्मय और भय प्राप्त हुआ । वे सहस्त्रों दैत्य अपने आपको जीवन के संशय में पड़ा हुआ मानने लगे। भरतश्रेष्ठ ! इसके बाद योगस्वरूप योग के नियन्ता देवाधिदेव भगवान् वाराह दैत्यों और दानवों को क्षोभ में डालने के लिये योग का आश्रय ले बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे । उस भीषण गर्जना से तीनों लोक और ये सारी दसों दिशाऍ गॅूज उठी। उस भीषण गर्जना से समस्त लोकों में हलचल मच गयी । स्वर्गलोक में इन्द्र आदि देवता भी अत्यन्त भयभीत हो उठे। उस सिंहनाद से मोहित होकर समस्त चराचर जगत् अत्यन्त चेष्टारहित हो गया। तदनन्तर वे सब दानव भगवान् की उस गर्जना से भयभीत हो प्राणशून्य होकर पृथ्वीपर गिर पड़े । वे सब के सब भगवान् विष्णु के तेज से मोहित हो अपनी सुध-बुध खो बैठे थे। रसातल में जाकर भी भगवान् वाराह ने देवद्रोही असुरों को अपने खुरों से विदीर्ण कर दिया । उनके मांस, मेदा और हडिडयों के ढेर लग गये थे। सम्पूर्ण प्राणियों के आचार्य और स्वामी महायोगी वे भगवान पह्रानाभ अपने महान् सिंहनाद के कारण –‘सनातन[१]’ माने गये हैं। उनके उस सिंहनाद को सुनकर सब देवता जगदीश्वर भगवान् ब्रह्राजी के पास गये । वहाँ पहॅुचकर वे इस प्रकार बोले- ‘देव ! प्रभो ! यह कैसा सिंहनाद है ? इसे हमलोग नही जानते । वह कौन वीर है ? अथवा किसकी गर्जना हैं ? जिसने इस जगत् को व्याकुल कर दिया है । देवता और दानव सभी उसके तेज से मोहित हो रहे हैं। महाबाहो ! इसी बीच में वाराहरूपधारी भगवान् विष्णु जल से ऊपर उठे । उस समय महर्षिगण उनकी स्तुति कर रहे थे। ब्रह्राजी बोले – देवताओं ! ये महाकाय महाबली महायोगी भूतभावन भूतात्मा भगवान् विष्णु हैं, जो दानवराजों का वध करके आ रहे हैं। ये सम्पूर्ण भूतों के ईश्वर, योगी, मुनि तथा आत्मा के भी आत्मा हैं, ये ही समस्त विघ्नों का विनाश करने वाले श्रीकृष्ण हैं; अत: तुमलोग धैर्य धारण करो। अनन्त प्रभा से परिपूर्ण, महातेजस्वी एवं महान् सौभाग्य के आश्रयभूत ये भगवान् अत्यन्त उत्तम और दूसरों के लिये असम्भव कार्य करके आ रहे हैं। सुरश्रेष्ठगण ! ये महायोगी भूतभावन महात्मा पह्रानाथ हैं; अत: तुम्हें अपने मन से संताप, भय एवं शोक को दूर कर देना चाहिये। ये ही विधि हैं, ये ही प्रभाव हैं और ये ही संहारकारी काल हैं, इन्ही परमात्मा ने सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करते हुए यह भीषण सिंहनाद किया हैं। ये सम्पूर्ण भूतों के आदि कारण, सर्वलोकवन्दित ईश्वर महाबाहु कमलनयन अच्युत हैं। युधिष्ठिर ने पूछा – सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञान में निपुण महाप्राज्ञ पितामह ! मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले तत्व–चिन्तकों को मृत्युकाल में किस मन्त्र का जप करना चाहिये। कुरूश्रेष्ठ ! मृत्यु का समय उपस्थित होनेपर किसका चिन्तन करनेवाला पुरूष परम सिद्धि को प्राप्त हो सकता है ? यह मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इस श्लोकमें वर्णित भाव के अनुसार सनातन शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार समझनी चाहिये – नादनेन सहित: सनादन : । दकारस्थाने तकारो छान्दस: । जो नाद के साथ हो, वह ‘सनातन’ कहलाता है । सनादन के दकार के स्थान में तकार हो जाने से ‘सनातन’ बनता है।