"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-11": अवतरणों में अंतर

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==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
==पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==
<h4 style="text-align:center;">त्रिवर्ग का निरुपण तथा कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन</h4>
<h4 style="text-align:center;">त्रिवर्ग का निरुपण तथा कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन</h4>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-10 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-11 का हिन्दी अनुवाद</div>


प्रतिदिन अपने हित के लिये और ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से वृद्ध पुरुषों का सेवन करे। दूसरे के द्रव्य को उससे पूछे बिना कदापि न ले।। धीर पुरुष दूसरे से याचना न करे। अपने बाहुबल का भरोसा रखे। आहार और आचार-व्यवहार में भी सदा अपने शरीर की रक्षा करे। जो भोजन हितकर एवं लाभदायक हो तथा अच्छी तरह पक गया हो, उसी को नियत मात्रा में ग्रहण करे। देवताओं और अतिथियों को पूर्णरूप से विधिपूर्वक सत्कार करके शेष अन्न का पवित्र होकर भोजन करे और कभी किसी से अप्रिय वचन न बोले। गृहस्थ पुरुष धर्मपालन का व्रत लेकर अतिथि के लिये ठहरने का स्थान, जल, उपहार और भिक्षा दे तथा गौओं का पालन-पोषण करे।। वह किसी विशेष कारण से बाहर की यात्रा भी कर सकता है, परंतु दोपहर या आधी रात के समय उसे प्रस्थान करने का विचार नहीं करना चाहिये।। विषयों में डूबा न रहे। अपनी शक्ति के अनुसार धर्माचरण करे। गृहस्थ पुरुष की जैसी आय हो, उसके अनुसार ही यदि उसका व्यय हो तो लोक में उसकी प्रशंसा की जाती है।। भय अथवा लोभवश कभी ऐसा कर्म न करे जो यश और अर्थ का नाशक तथा दूसरों को पीड़ा देने वाला हो। किसी कर्म के गुण और दोष को दूर से ही बुद्धिपूर्वक देखकर तदनन्तर उस शुभ कर्म को लाभदायक समझे तो आरम्भ करे या अशुभ का त्याग करे।। अपने शुभ और अशुभ कर्म में सदा अपने-आपको ही साक्षी माने और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा कभी पाप करने की इच्छा न करे। ।  
प्रतिदिन अपने हित के लिये और ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से वृद्ध पुरुषों का सेवन करे। दूसरे के द्रव्य को उससे पूछे बिना कदापि न ले।। धीर पुरुष दूसरे से याचना न करे। अपने बाहुबल का भरोसा रखे। आहार और आचार-व्यवहार में भी सदा अपने शरीर की रक्षा करे। जो भोजन हितकर एवं लाभदायक हो तथा अच्छी तरह पक गया हो, उसी को नियत मात्रा में ग्रहण करे। देवताओं और अतिथियों को पूर्णरूप से विधिपूर्वक सत्कार करके शेष अन्न का पवित्र होकर भोजन करे और कभी किसी से अप्रिय वचन न बोले। गृहस्थ पुरुष धर्मपालन का व्रत लेकर अतिथि के लिये ठहरने का स्थान, जल, उपहार और भिक्षा दे तथा गौओं का पालन-पोषण करे।। वह किसी विशेष कारण से बाहर की यात्रा भी कर सकता है, परंतु दोपहर या आधी रात के समय उसे प्रस्थान करने का विचार नहीं करना चाहिये।। विषयों में डूबा न रहे। अपनी शक्ति के अनुसार धर्माचरण करे। गृहस्थ पुरुष की जैसी आय हो, उसके अनुसार ही यदि उसका व्यय हो तो लोक में उसकी प्रशंसा की जाती है।। भय अथवा लोभवश कभी ऐसा कर्म न करे जो यश और अर्थ का नाशक तथा दूसरों को पीड़ा देने वाला हो। किसी कर्म के गुण और दोष को दूर से ही बुद्धिपूर्वक देखकर तदनन्तर उस शुभ कर्म को लाभदायक समझे तो आरम्भ करे या अशुभ का त्याग करे।। अपने शुभ और अशुभ कर्म में सदा अपने-आपको ही साक्षी माने और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा कभी पाप करने की इच्छा न करे। ।  

०५:२३, २७ जुलाई २०१५ का अवतरण

पन्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

त्रिवर्ग का निरुपण तथा कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन

महाभारत: अनुशासन पर्व: पन्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-11 का हिन्दी अनुवाद

प्रतिदिन अपने हित के लिये और ज्ञान-प्राप्ति की इच्छा से वृद्ध पुरुषों का सेवन करे। दूसरे के द्रव्य को उससे पूछे बिना कदापि न ले।। धीर पुरुष दूसरे से याचना न करे। अपने बाहुबल का भरोसा रखे। आहार और आचार-व्यवहार में भी सदा अपने शरीर की रक्षा करे। जो भोजन हितकर एवं लाभदायक हो तथा अच्छी तरह पक गया हो, उसी को नियत मात्रा में ग्रहण करे। देवताओं और अतिथियों को पूर्णरूप से विधिपूर्वक सत्कार करके शेष अन्न का पवित्र होकर भोजन करे और कभी किसी से अप्रिय वचन न बोले। गृहस्थ पुरुष धर्मपालन का व्रत लेकर अतिथि के लिये ठहरने का स्थान, जल, उपहार और भिक्षा दे तथा गौओं का पालन-पोषण करे।। वह किसी विशेष कारण से बाहर की यात्रा भी कर सकता है, परंतु दोपहर या आधी रात के समय उसे प्रस्थान करने का विचार नहीं करना चाहिये।। विषयों में डूबा न रहे। अपनी शक्ति के अनुसार धर्माचरण करे। गृहस्थ पुरुष की जैसी आय हो, उसके अनुसार ही यदि उसका व्यय हो तो लोक में उसकी प्रशंसा की जाती है।। भय अथवा लोभवश कभी ऐसा कर्म न करे जो यश और अर्थ का नाशक तथा दूसरों को पीड़ा देने वाला हो। किसी कर्म के गुण और दोष को दूर से ही बुद्धिपूर्वक देखकर तदनन्तर उस शुभ कर्म को लाभदायक समझे तो आरम्भ करे या अशुभ का त्याग करे।। अपने शुभ और अशुभ कर्म में सदा अपने-आपको ही साक्षी माने और मन, वाणी तथा क्रिया द्वारा कभी पाप करने की इच्छा न करे। ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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