"महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-36": अवतरणों में अंतर

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
[अनिरीक्षित अवतरण][अनिरीक्षित अवतरण]
No edit summary
No edit summary
 
पंक्ति १: पंक्ति १:
==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
==पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)==  
<h4 style="text-align:center;">शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण </h4>
 
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-36 का हिन्दी अनुवाद</div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-36 का हिन्दी अनुवाद</div>
'''शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण'''


(अब मदिरा पीने के दोष बताता हूँ) मदिरा पीने वाले उसे पीकर नशे में अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें बकते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं। वे आपस में इच्छानुसार कलह करते और एक दूसरे को मारते-पीटते हैं। कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं। शोभने! वे जहाँ कहीं भी अनुचित बातें बकने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत से हो जाते हैं। इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकार के भाव प्रकट करते हैं। जो महामोहर में डालने वाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं। पी हुई मदिरा मनुष्य के धैर्य, लज्जा और बुद्धि को नष्ट कर देती है। इससे मनुष्य निर्लज्ज और बेहया हो जाते हैं। शराब पीने वाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धि का नाश हो जाने से कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रह जाने से, इच्छानुसार कार्य करने से तथा विद्वानों की आज्ञा के अधीन न रहने से पाप को ही प्राप्त होता है। मदिरा पीने वाला पुरूष जगत् में अपमानित होता है। मित्रों में फूट डालता है, सब कुछ खाता और हर समय अशुद्ध रहता है। वह स्वयं हर प्रकार से नष्ट होकर विद्वान् विवेकी पुरूषों से झगड़ा किया करता है। सर्वथा रूखा, कड़वा और भयंकर वचन बोलता रहता है। वह मतवाला होकर गुरूजनों से बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियों से बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियों के साथ बैठकर सलाह करता है और कभी किसी की कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है। शोभने! इस प्रकार मदिरा पीने वाले में बहुत से दोष हैं। वे केवल नरक में जाते हैं, इस विषय में कोई विचार करने की बात नहीं है। इसलिये अपना हित चाहने वाले सत्पुरूषों ने मदिरा पान का सर्वथा त्याग किया है। यदि सदाचार की रक्षा के लिये सत्पुरूष मदिरा पीना न छोड़े तो यह सारा जगत् मर्यादारहित और अकर्मण्य हो जाय (यह शरीर सम्बन्धी महापाप है)। अतः श्रेष्ठ पुरूषों ने बुद्धि की रक्षा के लिये मद्यपान को त्याग दिया है। शुचिस्मिते! अब पुण्य का भी विधान सुनो। देवि! थोड़े में तीन प्रकार का पुण्य भी बताया गया है। मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों दोषों की निवृत्ति हो जाने पर जो दोष की उपेक्षा करके सम्पूर्ण दुष्कर्मों का त्याग कर देता है, वही समस्त शुभ कर्मों का फल पाता है। पहले सब दोषों को एक साथ या बारी-बारी से त्याग देना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य को धर्माचरण का फल प्राप्त होता है, क्योंकि दोषों का परित्याग करना बहुत ही कठिन है। समस्त दोषों का त्याग कर देने से मनुष्य मुनि हो जाता है। देखो, धर्म करने में कितनी सुविधा या सुगमता है कि कोई कार्य किये बिना ही अपने को प्राप्त हुए दोषों का त्याग कर देने मात्र से मनुष्य परम पुण्य प्राप्त कर लेते हैं। अहो! अल्पबुद्धि मानव कैसे क्रूर हैं कि पाप कर्म करके अपने-आपको नरक की आग में पकाते हैं। वे संतोषपूर्वक यह नहीं समझ पाते कि वैसा पुण्यकर्म सर्वथा अपने अधीन है। दुष्कर्मों का त्याग करने मात्र से ऊर्ध्वपद (स्वर्गलोक) की प्राप्ति होती है। देवि! पाप से डरने, दोषों को त्यागने और निष्कपट धर्म की अपेक्षा रखने से मनुष्य उत्तम परिणाम का भागी होता है।  
(अब मदिरा पीने के दोष बताता हूँ) मदिरा पीने वाले उसे पीकर नशे में अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें बकते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं। वे आपस में इच्छानुसार कलह करते और एक दूसरे को मारते-पीटते हैं। कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं। शोभने! वे जहाँ कहीं भी अनुचित बातें बकने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत से हो जाते हैं। इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकार के भाव प्रकट करते हैं। जो महामोहर में डालने वाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं। पी हुई मदिरा मनुष्य के धैर्य, लज्जा और बुद्धि को नष्ट कर देती है। इससे मनुष्य निर्लज्ज और बेहया हो जाते हैं। शराब पीने वाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धि का नाश हो जाने से कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रह जाने से, इच्छानुसार कार्य करने से तथा विद्वानों की आज्ञा के अधीन न रहने से पाप को ही प्राप्त होता है। मदिरा पीने वाला पुरूष जगत् में अपमानित होता है। मित्रों में फूट डालता है, सब कुछ खाता और हर समय अशुद्ध रहता है। वह स्वयं हर प्रकार से नष्ट होकर विद्वान् विवेकी पुरूषों से झगड़ा किया करता है। सर्वथा रूखा, कड़वा और भयंकर वचन बोलता रहता है। वह मतवाला होकर गुरूजनों से बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियों से बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियों के साथ बैठकर सलाह करता है और कभी किसी की कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है। शोभने! इस प्रकार मदिरा पीने वाले में बहुत से दोष हैं। वे केवल नरक में जाते हैं, इस विषय में कोई विचार करने की बात नहीं है। इसलिये अपना हित चाहने वाले सत्पुरूषों ने मदिरा पान का सर्वथा त्याग किया है। यदि सदाचार की रक्षा के लिये सत्पुरूष मदिरा पीना न छोड़े तो यह सारा जगत् मर्यादारहित और अकर्मण्य हो जाय (यह शरीर सम्बन्धी महापाप है)। अतः श्रेष्ठ पुरूषों ने बुद्धि की रक्षा के लिये मद्यपान को त्याग दिया है। शुचिस्मिते! अब पुण्य का भी विधान सुनो। देवि! थोड़े में तीन प्रकार का पुण्य भी बताया गया है। मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों दोषों की निवृत्ति हो जाने पर जो दोष की उपेक्षा करके सम्पूर्ण दुष्कर्मों का त्याग कर देता है, वही समस्त शुभ कर्मों का फल पाता है। पहले सब दोषों को एक साथ या बारी-बारी से त्याग देना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य को धर्माचरण का फल प्राप्त होता है, क्योंकि दोषों का परित्याग करना बहुत ही कठिन है। समस्त दोषों का त्याग कर देने से मनुष्य मुनि हो जाता है। देखो, धर्म करने में कितनी सुविधा या सुगमता है कि कोई कार्य किये बिना ही अपने को प्राप्त हुए दोषों का त्याग कर देने मात्र से मनुष्य परम पुण्य प्राप्त कर लेते हैं। अहो! अल्पबुद्धि मानव कैसे क्रूर हैं कि पाप कर्म करके अपने-आपको नरक की आग में पकाते हैं। वे संतोषपूर्वक यह नहीं समझ पाते कि वैसा पुण्यकर्म सर्वथा अपने अधीन है। दुष्कर्मों का त्याग करने मात्र से ऊर्ध्वपद (स्वर्गलोक) की प्राप्ति होती है। देवि! पाप से डरने, दोषों को त्यागने और निष्कपट धर्म की अपेक्षा रखने से मनुष्य उत्तम परिणाम का भागी होता है।  

०७:२९, २७ जुलाई २०१५ के समय का अवतरण

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: अनुशासन पर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासन पर्व: पञ्चचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: भाग-36 का हिन्दी अनुवाद

शुभाशुभ मानस आदि तीन प्रकार के कर्मो कास्वरुप और उनके फल का एवं मद्द्सेवन के दोषों कावर्णन,आहार-शुद्धि,मांसभक्षण से दोष,मांस न खानेसे लाभ,जीवदया के महत्व,गुरुपूजा कीविधि,उपवास-विधि,ब्र्हमचर्यपालन,तीर्थचर्चा,सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य,अन्न,सुवर्ण, गौभुमि, कन्या और विद्यादान का माहात्म्य , पुण्यतम देशकाल, दिये हुये दान और धर्म की निष्फलता, विविध प्रकार के दान, लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताऔं की पूजा का निरुपण

(अब मदिरा पीने के दोष बताता हूँ) मदिरा पीने वाले उसे पीकर नशे में अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें बकते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं। वे आपस में इच्छानुसार कलह करते और एक दूसरे को मारते-पीटते हैं। कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं। शोभने! वे जहाँ कहीं भी अनुचित बातें बकने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत से हो जाते हैं। इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकार के भाव प्रकट करते हैं। जो महामोहर में डालने वाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं। पी हुई मदिरा मनुष्य के धैर्य, लज्जा और बुद्धि को नष्ट कर देती है। इससे मनुष्य निर्लज्ज और बेहया हो जाते हैं। शराब पीने वाला मनुष्य उसे पीकर बुद्धि का नाश हो जाने से कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रह जाने से, इच्छानुसार कार्य करने से तथा विद्वानों की आज्ञा के अधीन न रहने से पाप को ही प्राप्त होता है। मदिरा पीने वाला पुरूष जगत् में अपमानित होता है। मित्रों में फूट डालता है, सब कुछ खाता और हर समय अशुद्ध रहता है। वह स्वयं हर प्रकार से नष्ट होकर विद्वान् विवेकी पुरूषों से झगड़ा किया करता है। सर्वथा रूखा, कड़वा और भयंकर वचन बोलता रहता है। वह मतवाला होकर गुरूजनों से बहकी-बहकी बातें करता है, परायी स्त्रियों से बलात्कार करता है, धूर्तों और जुआरियों के साथ बैठकर सलाह करता है और कभी किसी की कही हुई हितकर बात भी नहीं सुनता है। शोभने! इस प्रकार मदिरा पीने वाले में बहुत से दोष हैं। वे केवल नरक में जाते हैं, इस विषय में कोई विचार करने की बात नहीं है। इसलिये अपना हित चाहने वाले सत्पुरूषों ने मदिरा पान का सर्वथा त्याग किया है। यदि सदाचार की रक्षा के लिये सत्पुरूष मदिरा पीना न छोड़े तो यह सारा जगत् मर्यादारहित और अकर्मण्य हो जाय (यह शरीर सम्बन्धी महापाप है)। अतः श्रेष्ठ पुरूषों ने बुद्धि की रक्षा के लिये मद्यपान को त्याग दिया है। शुचिस्मिते! अब पुण्य का भी विधान सुनो। देवि! थोड़े में तीन प्रकार का पुण्य भी बताया गया है। मानसिक, वाचिक और कायिक तीनों दोषों की निवृत्ति हो जाने पर जो दोष की उपेक्षा करके सम्पूर्ण दुष्कर्मों का त्याग कर देता है, वही समस्त शुभ कर्मों का फल पाता है। पहले सब दोषों को एक साथ या बारी-बारी से त्याग देना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य को धर्माचरण का फल प्राप्त होता है, क्योंकि दोषों का परित्याग करना बहुत ही कठिन है। समस्त दोषों का त्याग कर देने से मनुष्य मुनि हो जाता है। देखो, धर्म करने में कितनी सुविधा या सुगमता है कि कोई कार्य किये बिना ही अपने को प्राप्त हुए दोषों का त्याग कर देने मात्र से मनुष्य परम पुण्य प्राप्त कर लेते हैं। अहो! अल्पबुद्धि मानव कैसे क्रूर हैं कि पाप कर्म करके अपने-आपको नरक की आग में पकाते हैं। वे संतोषपूर्वक यह नहीं समझ पाते कि वैसा पुण्यकर्म सर्वथा अपने अधीन है। दुष्कर्मों का त्याग करने मात्र से ऊर्ध्वपद (स्वर्गलोक) की प्राप्ति होती है। देवि! पाप से डरने, दोषों को त्यागने और निष्कपट धर्म की अपेक्षा रखने से मनुष्य उत्तम परिणाम का भागी होता है।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।