"महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 342 श्लोक 50-56": अवतरणों में अंतर

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द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम (342) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: द्विचत्वारिंशदधिकत्रिशततम अध्याय: श्लोक 50-56 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्राणी को आई हुई देख्र नहुष ने उससे कहा - ‘देवि ! तुमने जो समय दिया था, वह पूरा हो गया है।’ तब शची ने इन्द्र के बताये अनुसार सारी बातें कह सुनायीं। नहुष महर्षियों से जुते हुए वाहन पर आरूढ़ हो शची के समीप चले। इसी समय मित्रावरुण के पुत्र कुम्भज मुनिवर अगस्त्य ने देखा कि नहुष महर्षियों को तीव्र गति से चलने के लिये धिक्कार रहा है। उसने अगस्त्य के शरीर में भी दोनों पैरों से धक्के दिये। तब अगस्त्य ने नहुष से कहा- ‘न करने योग्य नीच कर्म में प्रवृत्त हुए पापी नहुष ! तू अभी पृथ्वी पर गिर जा तथा जब तक पृथ्वी और पर्वत स्थिर रहें, तब तक के लिये सर्प हो जा’ महर्षि के इतना कहते ही नहुष उस चाहन से नीचे गिर पड़ा। नहुष कर पतन हो जने पर त्रिलोकी का राज्य पुनः बिना इन्द्र के हो गया, तब देवता और ऋषि इन्द्र के लिये भगवान विष्णु की शरण मे गये और उनसे बोले- ‘भगवन् ! ब्रह्महत्या से पीडि़त हुए इनद्र की रक्षा कीजिये’ तब वरदायक भगवान विष्णु ने उन देवताओं से कहा- ‘देवगण ! इन्द्र विष्णु के उद्देश्य से अश्वमेघ या करें। तब वे फिर अपना स्थान प्रापत करेंगे।’ यह सुनकर देवता और महर्षि इन्द्र को ढूंढने लगे। जब वे कहीं उनका पता न पा सके, तब वे शची से बोले- ‘सुभगे ! तुम्हीं जाओ और इन्द्र को यहाँ ले आओ।’ तब शची पुनः मानसरोवर पर गयीं। शची के कहने से इन्द्र उस सरोवर से निकलकर बृहस्पति के पास आये। बृहस्पतिजी ने इन्द्र के लिये अयवमेघ नामक यज्ञ का अनुष्ठान किया। उस यज्ञ में उन्होंने कृष्णसारंग नामक यज्ञिक अश्व को छोड़ा था। उसी को वाहन बनाकर बृहस्पति ने पुनः देवराज इन्द्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। तदनन्तर देवताओं और ऋषियों से अपनी स्तुति सुनते हुए देवराज इन्द्र निष्पाप हो स्वर्गलोक में रहने लगे। अपनी ब्रह्महत्या को उन्होंने स्त्री, अग्नि, वृक्ष और गौ- इन चार स्थानों में विभक्त कर दिया। ब्रह्मतेज के प्रभाव से वृद्धि को प्राप्त हुए इन्द्र ने शत्रुओं का वध करके पुनः अपना स्थान प्राप्त कर लिया। धर नहुष को शाप सं छुटकारा दिलाने के लिये देवताओं और ऋषियों के प्रार्थना करने पर अगस्त्य न कहा- ‘ जब नहुष के कुल में उत्पन्न हुए श्रीमान् धर्मराज युधिष्ठिर उनके प्रश्नों का उत्तर देकर भीमसेन को उनके बन्धन से छुड़ा देंगे, तब नहुष को भी वे शाप मुक्त कर देंगे’।। प्राचीन काल में महर्षि भरद्वाज आकाश-गंगा के जल में खड़े हो आचमन कर रहे थे। उस समय तीन पग से त्रिलोकी नापते हुए भगवान विष्णु उनके पास तक आ पहुँचे। तब भरद्वाज ने जल सहित हाथ से उनकी छाती में प्रहार किया। इससे उनकी छाती में एक चिनह बन गया। महर्षि भृगु के शाप से अग्निदेव सर्वभक्षी हो गये। अदिति ने देवताओं के लिये इस उद्देश्य से रसोई तैयार की कि वे इसे खाकर असुरों का वध कर सकेंगे। इसी समय बुध अपनी व्रतचर्या समाप्त करके अदिति के पास गये और बोले- ‘मुझे भिक्षा दीजिये।’ अदिति ने सोचा यह अन्न पहले देवताओं को ही खाना चाहिये, दूसरे किसी को नहीं; इसलिये उन्होंने बुध को भिक्षा नहीं दी। भिक्षा न मिलने से रोष में भरे हुए ब्राह्मण बुध ने अदिति को शाप दिया कि ‘अण्ड नामधारी विवस्वान् के दूसरे जन्म के समय अदिति के उदर में पीड़ा होगी।’ माता अदिति के पेट का वह अण्ड उस पीड़ा द्वारा मारा गया। मृत अण्ड से प्रकट होने के कारण श्राद्धदेवसंज्ञक विवस्वान् मर्तण्ड नाम से प्रसिद्ध हुए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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