"महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-1" के अवतरणों में अंतर

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द्रुपद के यज्ञ से धृष्‍टद्युम्‍न और द्रौपदी की उत्‍पत्ति
 
द्रुपद के यज्ञ से धृष्‍टद्युम्‍न और द्रौपदी की उत्‍पत्ति
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०७:५८, १० अगस्त २०१५ का अवतरण

षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

द्रुपद के यज्ञ से धृष्‍टद्युम्‍न और द्रौपदी की उत्‍पत्ति

आगन्‍तुक ब्राह्मण कहता है- राजा द्रुपद अमर्ष में भर गये थे, अत: उन्‍होंने कर्मसिद्ध श्रेष्‍ठ ब्राह्मणों को ढूढ़ने के लिये बहुत-से ब्रह्मर्षियों के आश्रमों में भ्रमण किया। वे अपने लिये एक श्रेष्‍ठ पुत्र चाहते थे। उनका चित्‍त शोक से व्‍याकुल रहता था। वे रात-दिन चिन्‍ता में पड़े रहते थे कि मेरे कोई श्रेष्‍ठ संतान नहीं है। जो पुत्र या भाई-बन्‍धु उत्‍पन्‍न हो चुके थे, उन्‍हें वे खेदवश धिक्‍कारते रहते थे। द्रोण से बदला लेने की इच्‍छा रखकर राजा द्रुपद सदा लंबी सांसें खींचा करते थे। जनमेजय ! नृपश्रेष्‍ठ द्रुपद द्रोणाचार्य से बदला लेने के लिये यत्‍न करने पर भी उनके प्रभाव, विनय, शिक्षा एवं चरित्र का चिन्‍तन करके क्षात्रबल के द्वारा उन्‍हें परास्‍त करने का कोई उपाय न जान सके। वे कृष्‍णवर्णा यमुना तथा गंगा दोनों के तटों पर घूमते हुए ब्राह्मणों की एक पवित्र बस्‍ती में जा पहुंचे। वहां उन महाभाग नरेश ने एक भी ऐसा ब्राह्मण नहीं देखा, जिसने विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करके वेद-वेदांग की शिक्षा प्राप्‍त न की हो। इस प्रकार उन महाभाग ने वहां कठोर व्रत का पालन करने वाले दो ब्रह्मर्षियों को देखा, जिनके नाम ये याज और उपयाज ।वे दोनों ही परम शान्‍त और परमेष्‍ठी ब्रह्मा के तुल्‍य प्रभावशाली थे। वे वैदिक संहिता के अध्‍ययन में सदा संलग्‍न रहते थे। उनका गोत्र काश्‍यप था। वे दोनों ब्राह्मण सूर्यदेव के भक्‍त, बड़े ही योग्‍य तथा श्रेष्‍ठ ॠषि थे। उन दोनों की शक्ति को समझकर आलस्‍य रहित राजा द्रुपद ने उन्‍हें सम्‍पूर्ण मनोवांछित भोग पदार्थ अर्पण करने का संकल्‍प लेकर निमन्त्रित किया। उन दोनों में से जो छोटे उपयाज थे, वे अत्‍यन्‍त उत्‍तम व्रत का पालन करनेवाले थे। द्रुपद एकान्‍त में उनसे मिले और इच्‍छानुसार भोग्‍य वस्‍तुएं अर्पण करके उन्‍हें अपने अनुकूल बनाने की चेष्‍टा करने लगे। सम्‍पूर्ण मनोभिलषित पदार्थों को देने की प्रतिज्ञा करके प्रिय वचन बोलते हुए द्रुपद मुनि के चरणों की सेवा में लग गये और यथायोग्‍य पूजन करके उपयाज से बोले- ‘विप्रवर उपयाज ! जिस कर्म से मुझे ऐसा पुत्र प्राप्‍त हो, जो द्रोणाचार्य को मार सके। उस कर्म के पूरा होने पर मैं आपको एक अर्बुद (दस करोड़) गायें दूंगा। द्विजश्रेष्‍ठ ! इसके सिवा और भी जो आपके मन को अत्‍यन्‍त प्रिय लगनेवाली वस्‍तु होगी, वह सब आपको अर्पित करुंगा, इसमें कोई संशय नहीं है’। द्रुपद के यों कहने पर ॠषि उपयाज ने उन्‍हें जवाब दे दिया, ‘मैं ऐसा कार्य नही करुंगा।‘ परंतु द्रुपद उन्‍हें प्रसन्‍न करने का निश्‍चय करके पुन: उनकी सेवा में लगे रहे। तदनन्‍तर एक वर्ष बीतने पर द्विजश्रेष्‍ठ उपयाज ने उपयुक्‍त अवसर पर मधुर वाणी में द्रुपद से कहा-‘राजन् ! मेरे बड़े भाई याज एक समय घने वन में विचर रहे थे। उन्‍होंने एक ऐसी जमीन पर गिरे हुए फल को उठा लिया, जिसकी शुद्धि के सम्‍बन्‍ध में कुछ भी पता नहीं था। ‘मैं भी भाई के पीछे-पीछे जा रहा था; अत: मैंने उनके इस अयोग्‍य कार्य को देख लिया और सोचा कि ये अपवित्र वस्‍तु को ग्रहण करने में कभी कोई विचार नहीं करते।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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