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११:०५, ७ अगस्त २०१५ का अवतरण
भागवत धर्मसार -विनोबा
भागवत ने जिसके मन को पकड़ न लिया हो, जिसके चित्त को रिझाया न हो, रमाया न हो और शांत न किया हो, ऐसा कौन भक्त इस जाग्रत भारत में हुआ होगा? भट्टाद्रि, पोतना, शंकरदेव, चैतन्य, वल्लभ, जगन्नाथदास, सूरदास, एकनाथ- ये तो भागवत के प्रत्यक्ष सेवक हो हैं, किंतु अन्य भी जो असंख्य संत-महंत भारत में हुए, सभी भागवत की मोहिनी से मुग्ध हो गये, फिर वे अशिक्षित या गंवार ही क्यों न हों। केरल, कश्मीर और कामरूप- इस त्रिकोण की पकड़ में जो भी आया, वह भागवत से छूटकर भाग नहीं सका। तुकाराम ने तो भक्त का लक्षण ही यह बताया है :
गीता भागवत करिती पठण।
अखंड चिंतन विठोबाचें।।
अर्थात् भक्त वहीं, जो गीता और भागवत का पाठ और विठोबा का अखंड चिंतन करता है।) जहाँ से कोई न छूट पाया, वहाँ से मैं भी कैसे छूट पाऊँ? गीता के तुलनात्मक अध्ययन); निमित्त ही क्यों न हो, भागवत मुझे देखनी ही पड़ी। और “वाचा एकोबाचा भागवत-अध्या रे बापानो” (अर्थात् भाइयों! एकनाथ की भागवत पढ़ो)। इस अमृतोपदेश के अनुसार भागवत के एकादश स्कंध का अध्ययन एकनाथ ने मुझे अनेक बार कराया। वह कहानी ‘एकनाथांची भजनें’ पुस्तक में मैंने लिख दी है। मुझे मानना पड़ा कि गीतारूपी दूध में भागवत ने मधु की मिठास डाल दी। भूदान-यात्रा में जो थोड़ा-बहुत मेरा अध्ययन चला, उसका स्वरूप संग्रह का नहीं, दान का है। लोक-हृदय में प्रवेश के निमित्त तत्-तत् प्रांत की तत्-तत् भाषा के साहित्य का अध्ययन मुझ पर लादा जाता है, मतलब यह कि प्रेम से ही मैं उसे अपने ऊपर लाद लेता हूँ। उड़ीसा की भूदान-यात्रा में उड़िया भाषा सीखने के निमित्त उड़ीसा के भक्त शिरोमणि जगन्नाथद स द्वारा रचित भागवत का अध्ययन करने का अवसर मिला। अध्ययन के लिए उनका एकादश स्कंध हम लोगों ने चुना। यात्रा के बीच ही घंटा-आध घंटा रुककर किसी खेत में एकांत में बैठकर हम सब यात्री मिलकर सह-अध्ययन किया करते। तुलना के लिए मूल संस्कृत और एकनाथ का हरिरंग में रंगा विवरण, श्रीधरी टीका सहित, मैं बीच-बीच में देख लेता। उस अध्ययन में से यह ‘भागवत्-धर्म-सार’ हाथ लगा, जो अब वर्धा के ग्राम-सेवा-मंडल को कृपा से अर्थसहित पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है। इसके लिए पाठक ग्राम-सेवा-मंडल का आभार मानें। इसमें जोड़ा हुआ अर्थ महाराष्ट्र के परिचित भागवत-धर्मी और सर्वोदय-प्रेमी श्री कुंटेजी ने किया है और श्री दादासाहब पंडित ने कृपापूर्वक उसे जाँच लिया है। कुछ कठिन स्थल जो मेरे सामने लाये गए, मैंने भी देख लिए। भागवत के विशेष कठिन स्थल विद्वानों को भी स्पष्ट नहीं होते, यह प्रसिद्ध ही है। इस विषय में ‘विद्यावतां भागवते परीक्षा’ यह कहावत भी है। किंतु ‘अति कठिन स्थल अधिक महत्व के नहीं होते’ ऐसा हम लोगों ने सुविधा का शास्त्रार्थ मान लिया है। इस कारण इस संकलन में मुझे विशेष अड़चन नहीं पड़ी, फिर भले ही वह समझ में न आये। इसके अतिरिक्त जैसे वेद शब्द-प्रधान है, वैसे भागवत भाव-प्रधान मानी गयी है। इसलिए दोनों के बारे में अर्थ एक हद तक गौण बन ही जाता है, यह भी एक सुविधा है। अनुरूप यथास्थित शब्दार्थ समझ में न आये और कुल मिलाकर भावार्थ समझ में आ जाए, तो भी भावुकों का काम चल जाता है। इसलिए अब किसी तरह का संकोच न करते हुए, पिबत् भागवतं रसमालयम् इन शब्दों में सबको रसपान के लिए आमंत्रण देने में कोई हर्ज नहीं है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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