"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 15": अवतरणों में अंतर
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अर्जुन को उनके ज्ञान से बराबर मंत्रणा मिलती रही, उनकी शक्ति से सहायता भी मिलती रही, अर्जुन उन्हें प्यार करता रहा और उनसे प्यार पाता भी रहा, अवतार के भगवत्स्वरूप को जाने बिना अर्जुन उन्हें पूजता भी रहा। और, सब लोगों की तरह अर्जुन को भी अहंकार के द्वारा ही पथ-प्रदर्शन मिलता रहा और उसे जो मंत्रणा, सहायता और आदेश दिया गया वह अज्ञान की भाषा में ही दिया गया और अर्जुन ने भी उसे अज्ञान के विचारों द्वारा ही ग्रहण किया। और, यह उस समय तक चलता रहा जब तक कि कुरुक्षेत्र के मैदान में इस संर्घष की भीषण अवस्था सामने नहीं आयी, और तब अवतार योद्धा बनकर नहीं, बल्कि युद्ध की भवितव्यता को वहन करने वाले रथ के ऊपर विराजमान सारथी बनकर सामने आये, उन्होंने अपने स्वरूप को अपने चुने हुए यंत्रों के आगे भी प्रकट नहीं किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण यहां मानों मनुष्यों के साथ भगवान् के व्यवहारों के प्रतीक बन जाते हैं। इस जगत् में हम लोगों के द्वारा जो सब कर्म कराया जा है वह हम लोगों के अहंकार और अज्ञान के रास्ते से ही कराया जाता है और हम लोग यह समझते हैं कि हम ही अपने सब कर्मों के कर्ता हैं, और इनका जो कुछ फल होता है उसके हम ही असली कारण हैं। ऐसा समझकर हम अपने-आप पर गर्व करते हैं, पर यथार्थ में जो चीज हमसे यह सब कराती हैं वह कुछ और ही है और उसे हम लोग यदा-कदा प्रसंगवश ही ज्ञान, अभीप्सा और शक्ति के किसी अस्पष्ट स्त्रोत के रूप में देख पाते हैं या किसी सिद्धांत या प्रकाश या सामर्थ्य के रूप में भी जानते और मानते हैं और उसके वास्तविक रूप को जाने बिना ही उसे पूजते भी हैं; वह चीज वास्वत में क्या है यह मुझे अब तक नहीं मालूम होता जब तक वह प्रसंग नहीं उपस्थित होता जो हमें बलात् रहस्य के सामने लाकर खड़ा कर दे। भगवान् श्रीकृष्ण मानव-जीवन के विशाल कर्म के अंदर क्रियाशील हैं, केवल उसके अभ्यान्तर जीवन में ही नहीं, बल्कि जगत् के सारे अज्ञान-अंधकारमय क्रम के अंदर भी, जिसका अनुमान हम अपनी बुद्धि के टिमटिमाते हुए प्रकाश से करते हैं जब वह हमारी अनिश्चित अग्रगति के आगे एक छोटे दायरे को अस्पष्ट रूप से दिखाता है। गीता की यही विशेषता है कि वास्तव में एक ऐसे कर्म की पराकाष्ठा से गीता के उपदेश का प्रादुर्भाव हुआ है और उसी से गीता के कर्म-सिद्धांत को इतना महत्व प्राप्त हुआ और उसका इतना सुस्पष्ट और जोरदार प्रतिपादन हुआ है जितना अन्य किसी भारतीय धर्मग्रंथ का नहीं दीख पड़ता। केवल गीता में ही नहीं, महाभारत के अन्य स्थानों में भी श्रीकृष्ण ने कर्म की आवश्यकता की बड़े जोर के घोषणा की है, पर उसका रहस्य और हमारे कर्मों के पीछे हुई दिव्य सत्ता को गीता में ही प्रकट की गयी है। | अर्जुन को उनके ज्ञान से बराबर मंत्रणा मिलती रही, उनकी शक्ति से सहायता भी मिलती रही, अर्जुन उन्हें प्यार करता रहा और उनसे प्यार पाता भी रहा, अवतार के भगवत्स्वरूप को जाने बिना अर्जुन उन्हें पूजता भी रहा। और, सब लोगों की तरह अर्जुन को भी अहंकार के द्वारा ही पथ-प्रदर्शन मिलता रहा और उसे जो मंत्रणा, सहायता और आदेश दिया गया वह अज्ञान की भाषा में ही दिया गया और अर्जुन ने भी उसे अज्ञान के विचारों द्वारा ही ग्रहण किया। और, यह उस समय तक चलता रहा जब तक कि कुरुक्षेत्र के मैदान में इस संर्घष की भीषण अवस्था सामने नहीं आयी, और तब अवतार योद्धा बनकर नहीं, बल्कि युद्ध की भवितव्यता को वहन करने वाले रथ के ऊपर विराजमान सारथी बनकर सामने आये, उन्होंने अपने स्वरूप को अपने चुने हुए यंत्रों के आगे भी प्रकट नहीं किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण यहां मानों मनुष्यों के साथ भगवान् के व्यवहारों के प्रतीक बन जाते हैं। इस जगत् में हम लोगों के द्वारा जो सब कर्म कराया जा है वह हम लोगों के अहंकार और अज्ञान के रास्ते से ही कराया जाता है और हम लोग यह समझते हैं कि हम ही अपने सब कर्मों के कर्ता हैं, और इनका जो कुछ फल होता है उसके हम ही असली कारण हैं। ऐसा समझकर हम अपने-आप पर गर्व करते हैं, पर यथार्थ में जो चीज हमसे यह सब कराती हैं वह कुछ और ही है और उसे हम लोग यदा-कदा प्रसंगवश ही ज्ञान, अभीप्सा और शक्ति के किसी अस्पष्ट स्त्रोत के रूप में देख पाते हैं या किसी सिद्धांत या प्रकाश या सामर्थ्य के रूप में भी जानते और मानते हैं और उसके वास्तविक रूप को जाने बिना ही उसे पूजते भी हैं; वह चीज वास्वत में क्या है यह मुझे अब तक नहीं मालूम होता जब तक वह प्रसंग नहीं उपस्थित होता जो हमें बलात् रहस्य के सामने लाकर खड़ा कर दे। भगवान् श्रीकृष्ण मानव-जीवन के विशाल कर्म के अंदर क्रियाशील हैं, केवल उसके अभ्यान्तर जीवन में ही नहीं, बल्कि जगत् के सारे अज्ञान-अंधकारमय क्रम के अंदर भी, जिसका अनुमान हम अपनी बुद्धि के टिमटिमाते हुए प्रकाश से करते हैं जब वह हमारी अनिश्चित अग्रगति के आगे एक छोटे दायरे को अस्पष्ट रूप से दिखाता है। गीता की यही विशेषता है कि वास्तव में एक ऐसे कर्म की पराकाष्ठा से गीता के उपदेश का प्रादुर्भाव हुआ है और उसी से गीता के कर्म-सिद्धांत को इतना महत्व प्राप्त हुआ और उसका इतना सुस्पष्ट और जोरदार प्रतिपादन हुआ है जितना अन्य किसी भारतीय धर्मग्रंथ का नहीं दीख पड़ता। केवल गीता में ही नहीं, महाभारत के अन्य स्थानों में भी श्रीकृष्ण ने कर्म की आवश्यकता की बड़े जोर के घोषणा की है, पर उसका रहस्य और हमारे कर्मों के पीछे हुई दिव्य सत्ता को गीता में ही प्रकट की गयी है। | ||
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०७:२५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
अर्जुन को उनके ज्ञान से बराबर मंत्रणा मिलती रही, उनकी शक्ति से सहायता भी मिलती रही, अर्जुन उन्हें प्यार करता रहा और उनसे प्यार पाता भी रहा, अवतार के भगवत्स्वरूप को जाने बिना अर्जुन उन्हें पूजता भी रहा। और, सब लोगों की तरह अर्जुन को भी अहंकार के द्वारा ही पथ-प्रदर्शन मिलता रहा और उसे जो मंत्रणा, सहायता और आदेश दिया गया वह अज्ञान की भाषा में ही दिया गया और अर्जुन ने भी उसे अज्ञान के विचारों द्वारा ही ग्रहण किया। और, यह उस समय तक चलता रहा जब तक कि कुरुक्षेत्र के मैदान में इस संर्घष की भीषण अवस्था सामने नहीं आयी, और तब अवतार योद्धा बनकर नहीं, बल्कि युद्ध की भवितव्यता को वहन करने वाले रथ के ऊपर विराजमान सारथी बनकर सामने आये, उन्होंने अपने स्वरूप को अपने चुने हुए यंत्रों के आगे भी प्रकट नहीं किया। इस प्रकार श्रीकृष्ण यहां मानों मनुष्यों के साथ भगवान् के व्यवहारों के प्रतीक बन जाते हैं। इस जगत् में हम लोगों के द्वारा जो सब कर्म कराया जा है वह हम लोगों के अहंकार और अज्ञान के रास्ते से ही कराया जाता है और हम लोग यह समझते हैं कि हम ही अपने सब कर्मों के कर्ता हैं, और इनका जो कुछ फल होता है उसके हम ही असली कारण हैं। ऐसा समझकर हम अपने-आप पर गर्व करते हैं, पर यथार्थ में जो चीज हमसे यह सब कराती हैं वह कुछ और ही है और उसे हम लोग यदा-कदा प्रसंगवश ही ज्ञान, अभीप्सा और शक्ति के किसी अस्पष्ट स्त्रोत के रूप में देख पाते हैं या किसी सिद्धांत या प्रकाश या सामर्थ्य के रूप में भी जानते और मानते हैं और उसके वास्तविक रूप को जाने बिना ही उसे पूजते भी हैं; वह चीज वास्वत में क्या है यह मुझे अब तक नहीं मालूम होता जब तक वह प्रसंग नहीं उपस्थित होता जो हमें बलात् रहस्य के सामने लाकर खड़ा कर दे। भगवान् श्रीकृष्ण मानव-जीवन के विशाल कर्म के अंदर क्रियाशील हैं, केवल उसके अभ्यान्तर जीवन में ही नहीं, बल्कि जगत् के सारे अज्ञान-अंधकारमय क्रम के अंदर भी, जिसका अनुमान हम अपनी बुद्धि के टिमटिमाते हुए प्रकाश से करते हैं जब वह हमारी अनिश्चित अग्रगति के आगे एक छोटे दायरे को अस्पष्ट रूप से दिखाता है। गीता की यही विशेषता है कि वास्तव में एक ऐसे कर्म की पराकाष्ठा से गीता के उपदेश का प्रादुर्भाव हुआ है और उसी से गीता के कर्म-सिद्धांत को इतना महत्व प्राप्त हुआ और उसका इतना सुस्पष्ट और जोरदार प्रतिपादन हुआ है जितना अन्य किसी भारतीय धर्मग्रंथ का नहीं दीख पड़ता। केवल गीता में ही नहीं, महाभारत के अन्य स्थानों में भी श्रीकृष्ण ने कर्म की आवश्यकता की बड़े जोर के घोषणा की है, पर उसका रहस्य और हमारे कर्मों के पीछे हुई दिव्य सत्ता को गीता में ही प्रकट की गयी है।
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