"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 16": अवतरणों में अंतर
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जिसमें ’सारा कर्म अपनी पूर्णता प्राप्त करता है; परंतु गीता में वह कर्म लक्ष्य है जो उस ज्ञान को प्राप्त कराता है और जिसमें ज्ञाता भगवान् ही कर्म के कर्ता बनकर सामने आते हैं। यहां अर्जुन और श्रीकृष्ण, अर्थात् मनुष्य और भगवान् ऋषि-मुनियों के समान किसी तापस आश्रम में ध्यान करके नहीं बैठे हैं, बल्कि रणभेरियों के तुमुल निनाद से आकुल समर-भूमि में शस्त्रों की खनखनाहट के बीच युद्ध के रथ पर रथी और सारथी के रूप में विद्यमान हैं। अतएव, गीता के उपदेष्टा गुरु केवल मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर ही नहीं हैं जो केवल ज्ञान के वक्ता के रूप में ही प्रकट होते हों, बल्कि मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर हैं जो सारे कर्म-जगत् के संचालक हैं, जिनसे और जिनके लिये समस्त मानव-जीवन यात्रा कर रहा है। वे सब कर्मों और यज्ञों के छिपे हुए स्वामी हैं और सबके सुहृद् हैं। | जिसमें ’सारा कर्म अपनी पूर्णता प्राप्त करता है; परंतु गीता में वह कर्म लक्ष्य है जो उस ज्ञान को प्राप्त कराता है और जिसमें ज्ञाता भगवान् ही कर्म के कर्ता बनकर सामने आते हैं। यहां अर्जुन और श्रीकृष्ण, अर्थात् मनुष्य और भगवान् ऋषि-मुनियों के समान किसी तापस आश्रम में ध्यान करके नहीं बैठे हैं, बल्कि रणभेरियों के तुमुल निनाद से आकुल समर-भूमि में शस्त्रों की खनखनाहट के बीच युद्ध के रथ पर रथी और सारथी के रूप में विद्यमान हैं। अतएव, गीता के उपदेष्टा गुरु केवल मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर ही नहीं हैं जो केवल ज्ञान के वक्ता के रूप में ही प्रकट होते हों, बल्कि मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर हैं जो सारे कर्म-जगत् के संचालक हैं, जिनसे और जिनके लिये समस्त मानव-जीवन यात्रा कर रहा है। वे सब कर्मों और यज्ञों के छिपे हुए स्वामी हैं और सबके सुहृद् हैं। | ||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
०७:२६, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
अर्जुन और श्रीकृष्ण के अर्थात् मानव-आत्मा और भागवत आत्मा के सख्य का रूपक अन्य भारतीय ग्रंथों में भी आता है, जैसे एक स्थान में यह वर्णन है कि इन्द्र और कुत्स एक ही रथ पा बैठे हुए स्वर्ग की और यात्रा कर रहे हैं, जैसे उपनिषदों में दो पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हुए मिलते हैं, अथवा जैसे यह वर्णन आता है कि नर-नारायण ऋषि ज्ञानार्थ एक तपस्या कर रहे हैं, पर इन तीनों उदाहरणों में, जैसा कि गीता ने कहा है, वह ज्ञान ही लक्ष्य है जिसमें ’सारा कर्म अपनी पूर्णता प्राप्त करता है; परंतु गीता में वह कर्म लक्ष्य है जो उस ज्ञान को प्राप्त कराता है और जिसमें ज्ञाता भगवान् ही कर्म के कर्ता बनकर सामने आते हैं। यहां अर्जुन और श्रीकृष्ण, अर्थात् मनुष्य और भगवान् ऋषि-मुनियों के समान किसी तापस आश्रम में ध्यान करके नहीं बैठे हैं, बल्कि रणभेरियों के तुमुल निनाद से आकुल समर-भूमि में शस्त्रों की खनखनाहट के बीच युद्ध के रथ पर रथी और सारथी के रूप में विद्यमान हैं। अतएव, गीता के उपदेष्टा गुरु केवल मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर ही नहीं हैं जो केवल ज्ञान के वक्ता के रूप में ही प्रकट होते हों, बल्कि मनुष्य के वे अंर्तयामी ईश्वर हैं जो सारे कर्म-जगत् के संचालक हैं, जिनसे और जिनके लिये समस्त मानव-जीवन यात्रा कर रहा है। वे सब कर्मों और यज्ञों के छिपे हुए स्वामी हैं और सबके सुहृद् हैं।
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