"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 30": अवतरणों में अंतर

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अखबार-नवीसी का धंधा अपनाओ। गीता निःस्वार्थ कर्तव्य-पालन की शिक्षा नहीं देती, बल्कि दिव्य जीवन बिताने की शिक्षा देती है, सब धर्मों का परित्याग सीखाती है, सर्वधर्मान् परित्यज्य, एक परमात्मा का ही आश्रय ग्रहण करने को ही कहती है; और बुद्ध, रामकृष्ण या विवेकानंद का भागवत कर्म गीता की इस शिक्षा के सर्वथा अनुकूल था। इतना ही नहीं, गीता कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ बतलाते हुए भी कर्म-संन्यास का निषेद नहीं करती, बल्कि इसे भी भगवत्प्राप्ति के साधनों में से एक ही साधन स्वीकार करती है। यदि कर्म और जीवन और सब कर्तव्यों का त्याग करने से ही उसकी प्राप्ति होती हो और इस त्याग के लिये प्रबल आंतरिक पुकार हो तो सब कर्मों का स्वाहा करना ही होगा, इसमें किसी का कोई वश नहीं चल सकता। भगवान् की पुकार अलंघ्य है, दूसरे कोई भी विचार उसके सामने नहीं ठहर सकते। परंतु यहां एक और कठिनाई यह है कि जो कर्म अर्जुन को करना है वह ऐसा कर्म है जिससे उसकी नैतिक बुद्धि पीछे हटती है। आप कहते हैं कि युद्ध करना उसका धर्म है, पर वह धर्म ही तो इस समय उसकी बुद्धि में भयंकर पाप हो गया है। तुम्हें निःस्वार्थ भाव से और विकार-रहित होकर कर्तव्य-पालन करना चाहिये, ऐसा कहने से उसकी क्या सहायता हो सकती है या उसकी कठिनाई कैसे हल हो सकती है?  
अखबार-नवीसी का धंधा अपनाओ। गीता निःस्वार्थ कर्तव्य-पालन की शिक्षा नहीं देती, बल्कि दिव्य जीवन बिताने की शिक्षा देती है, सब धर्मों का परित्याग सीखाती है, सर्वधर्मान् परित्यज्य, एक परमात्मा का ही आश्रय ग्रहण करने को ही कहती है; और बुद्ध, रामकृष्ण या विवेकानंद का भागवत कर्म गीता की इस शिक्षा के सर्वथा अनुकूल था। इतना ही नहीं, गीता कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ बतलाते हुए भी कर्म-संन्यास का निषेद नहीं करती, बल्कि इसे भी भगवत्प्राप्ति के साधनों में से एक ही साधन स्वीकार करती है। यदि कर्म और जीवन और सब कर्तव्यों का त्याग करने से ही उसकी प्राप्ति होती हो और इस त्याग के लिये प्रबल आंतरिक पुकार हो तो सब कर्मों का स्वाहा करना ही होगा, इसमें किसी का कोई वश नहीं चल सकता। भगवान् की पुकार अलंघ्य है, दूसरे कोई भी विचार उसके सामने नहीं ठहर सकते। परंतु यहां एक और कठिनाई यह है कि जो कर्म अर्जुन को करना है वह ऐसा कर्म है जिससे उसकी नैतिक बुद्धि पीछे हटती है। आप कहते हैं कि युद्ध करना उसका धर्म है, पर वह धर्म ही तो इस समय उसकी बुद्धि में भयंकर पाप हो गया है। तुम्हें निःस्वार्थ भाव से और विकार-रहित होकर कर्तव्य-पालन करना चाहिये, ऐसा कहने से उसकी क्या सहायता हो सकती है या उसकी कठिनाई कैसे हल हो सकती है?  


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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०७:५२, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
4.-उपदेश का कर्म

जिस प्रसंग से गीतोपदेश हुआ है उसका किंचिन्‍मात्र विचार करने से ही यह स्पष्ट हो जायेगा कि गीता का यह अभिप्राय हो ही नहीं सकता। कारण, जिस प्रसंग से गीता का आविर्भाव हुआ है और जिस कारण से शिष्य का गुरु शरण लेनी पड़ी उसका सारा मर्म तो कर्तव्य की परस्पर-संबद्ध विविध भावनाओं का बेतरह उलझा हुआ वह संघर्ष है जो मानव-बुद्धि के द्वारा खड़ी की गयी सारी उपयोगी, बौद्धिक और नैतिक इमारत को ढा देता है। मनुष्य-जीवन में किसी-न-किसी प्रकार का संघर्ष तो प्रायः उत्पन्न हुआ ही करता है, जैसे कभी गार्हस्थ्य-धर्म के साथ देश-धर्म या देश की पुकार का, कभी देश के दावे के साथ मानव-जाति की भलाई का या किसी बृहत्तर धार्मिक या नैतिक सिद्धांत का। एक आतंरिक परिस्थिति भी खड़ी हो सकती है, जैसी कि गौतम बुद्ध के जीवन में हुई थी; इस परिस्थिति के आने पर अंतःस्थित भगवान् के आदेश का पालन करने के लिये सभी कर्तव्यों को त्याग देना, कुचल डालना और एक ओर फेंक देना पड़ता है। मैं नहीं समझता कि इस प्रकार की आंतरिक परिस्थिति का समाधान गीता कभी यों कर सकती है कि वह बुद्ध को फिर से अपनी पत्नी और पिता के पास भेज दे और उन्हें शाक्य राज्य की बागडोर हाथ में लेने के लिये कहे। न यह परमहंस रामकृष्ण से ही कह सकती है कि तुम किसी पाठशाला में जाकर पंडित होकर रहो, और छोटे-छोटे बच्चों को निष्काम होकर पाठ पढ़ाया करो, न विवेकानंद को ही मजबूर कर सकती है कि तुम जाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करो और इसके लिये वीतराग होकर वकालत या डाक्टरी या अखबार-नवीसी का धंधा अपनाओ। गीता निःस्वार्थ कर्तव्य-पालन की शिक्षा नहीं देती, बल्कि दिव्य जीवन बिताने की शिक्षा देती है, सब धर्मों का परित्याग सीखाती है, सर्वधर्मान् परित्यज्य, एक परमात्मा का ही आश्रय ग्रहण करने को ही कहती है; और बुद्ध, रामकृष्ण या विवेकानंद का भागवत कर्म गीता की इस शिक्षा के सर्वथा अनुकूल था। इतना ही नहीं, गीता कर्म को अकर्म से श्रेष्ठ बतलाते हुए भी कर्म-संन्यास का निषेद नहीं करती, बल्कि इसे भी भगवत्प्राप्ति के साधनों में से एक ही साधन स्वीकार करती है। यदि कर्म और जीवन और सब कर्तव्यों का त्याग करने से ही उसकी प्राप्ति होती हो और इस त्याग के लिये प्रबल आंतरिक पुकार हो तो सब कर्मों का स्वाहा करना ही होगा, इसमें किसी का कोई वश नहीं चल सकता। भगवान् की पुकार अलंघ्य है, दूसरे कोई भी विचार उसके सामने नहीं ठहर सकते। परंतु यहां एक और कठिनाई यह है कि जो कर्म अर्जुन को करना है वह ऐसा कर्म है जिससे उसकी नैतिक बुद्धि पीछे हटती है। आप कहते हैं कि युद्ध करना उसका धर्म है, पर वह धर्म ही तो इस समय उसकी बुद्धि में भयंकर पाप हो गया है। तुम्हें निःस्वार्थ भाव से और विकार-रहित होकर कर्तव्य-पालन करना चाहिये, ऐसा कहने से उसकी क्या सहायता हो सकती है या उसकी कठिनाई कैसे हल हो सकती है?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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