"गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 37": अवतरणों में अंतर
[अनिरीक्षित अवतरण] | [अनिरीक्षित अवतरण] |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">गीता-प्रबंध</div> <div style="text-align:center; di...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "गीता प्रबंध -अरविन्द भाग-" to "गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. ") |
||
पंक्ति ५: | पंक्ति ५: | ||
तब फिर कौन-सी चीज है जो उस मनुष्य के लिये कठिनाई उपस्थित करती है जिसे इस संसार को, जैसा यह है, स्वीकार करना है और इसमें कर्म करना है और साथ ही अपने अंदर सत्ता में, आध्यत्मिक जीवन में निवास करना है। संसार का वह कौन-सा पहलू है जो उसके जागृत मन को व्याकुल कर देता है और उसकी ऐसी अवस्था हो जाती है जिसके कारण गीता के प्रथम अध्याय का नाम सार्थक शब्दों में ’अर्जुन-विषादयोगद’ पड़ा- वह विषाद और निरुत्साह जो मानव जीवन को तब अनुभूत होता है जब यह संसार जैसा है ठीक वैसा ही, अपने असली रूप में उसके सामने आता है, और उसे उसका सामना करना पड़ता है, जब न्याय-नीति और नेकी के भ्रम का परदा उसकी आंखों के सामने से, और किसी बड़ी चीज के साथ मेल होने से पहले ही, फट जाता है? यह वही पहलू है जिसने बाह्यतः कुरुक्षेत्र के नर-संहार और रक्तपात के रूप में अकार ग्रहण किया है और अध्यात्मतः समस्त वस्तुओं के स्वामी के काल रूप-दर्शन में जो अपने सृष्ट प्राणियों को निगलने, चबा जाने और नष्ट करने के लिये प्रकट हुए हैं। यह दर्शन अखिल विश्व के उन प्रभु का दर्शन है जो विश्व के स्त्रष्टा हैं, पर साथ ही विश्व के संहारकर्ता भी, जिनका वर्णन प्राचीन शास्त्रकारों ने बड़े ही कठोर रूपक में यूं किया है कि, “ऋषि-मुनि और रथी-महारथी इनके भोज्य हैं और मृत्यु इनके जेवनार का मसाला है।“ दोनों एक ही सत्य के रूप हैं, वही सत्य पहले जीवन के तथ्यों में अप्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से देखा गया जो अपने-आपको जीवन में व्यक्त किया करता है। | तब फिर कौन-सी चीज है जो उस मनुष्य के लिये कठिनाई उपस्थित करती है जिसे इस संसार को, जैसा यह है, स्वीकार करना है और इसमें कर्म करना है और साथ ही अपने अंदर सत्ता में, आध्यत्मिक जीवन में निवास करना है। संसार का वह कौन-सा पहलू है जो उसके जागृत मन को व्याकुल कर देता है और उसकी ऐसी अवस्था हो जाती है जिसके कारण गीता के प्रथम अध्याय का नाम सार्थक शब्दों में ’अर्जुन-विषादयोगद’ पड़ा- वह विषाद और निरुत्साह जो मानव जीवन को तब अनुभूत होता है जब यह संसार जैसा है ठीक वैसा ही, अपने असली रूप में उसके सामने आता है, और उसे उसका सामना करना पड़ता है, जब न्याय-नीति और नेकी के भ्रम का परदा उसकी आंखों के सामने से, और किसी बड़ी चीज के साथ मेल होने से पहले ही, फट जाता है? यह वही पहलू है जिसने बाह्यतः कुरुक्षेत्र के नर-संहार और रक्तपात के रूप में अकार ग्रहण किया है और अध्यात्मतः समस्त वस्तुओं के स्वामी के काल रूप-दर्शन में जो अपने सृष्ट प्राणियों को निगलने, चबा जाने और नष्ट करने के लिये प्रकट हुए हैं। यह दर्शन अखिल विश्व के उन प्रभु का दर्शन है जो विश्व के स्त्रष्टा हैं, पर साथ ही विश्व के संहारकर्ता भी, जिनका वर्णन प्राचीन शास्त्रकारों ने बड़े ही कठोर रूपक में यूं किया है कि, “ऋषि-मुनि और रथी-महारथी इनके भोज्य हैं और मृत्यु इनके जेवनार का मसाला है।“ दोनों एक ही सत्य के रूप हैं, वही सत्य पहले जीवन के तथ्यों में अप्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से देखा गया जो अपने-आपको जीवन में व्यक्त किया करता है। | ||
{{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द | {{लेख क्रम |पिछला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 36|अगला=गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 38}} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> |
०७:५५, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण
अब गीता के उपदेशक गुरु के इस विशाल सोपान-क्रम का अनुसरण करते हुए हम आगे बढ़ें और मनुष्य के इस त्रिविध मार्ग का उन्होंने जिस प्रकार अंकन किया है उसका निरीक्षण करें। यह वही मार्ग है जिस पर चलने वाले मनुष्य के मन में, हृदय और बुद्धि उन्नत होकर उन परम को प्राप्त होते और उनकी सत्ता में निवास करते हैं जो समस्त कर्म, भक्ति और ज्ञान के परम ध्येय हैं। परंतु इसके पूर्व फिर एक बार उस परिस्थिति का विचार करना होगा जिसके कारण गीता प्रादुर्भाव हुआ और इस बार इसे इसके अत्यंत व्यापक रूप में अर्थात् इसे मनुष्य जीवन का और समस्त संसार का भी प्रतीक मानकर होगा। यद्यपि अर्जुन केवल अपनी ही परिस्थिति से, अपने ही आंतरिक संघर्ष और कर्म-विधान से मतलब है, तथापि जैसा कि हम लोग देख चुके है, जो विशेष प्रश्न अर्जुन ने उठाया है और जिस ढंग से उसे उठाया है उससे वास्तव में मनुष्य जीवन और कर्म का सारा ही सवाल उपस्थित होता है यह संसार क्या है और क्यों है और यह जैसा है उसमें इस सांसारिक जीवन का आत्म जीवन के साथ कैसे मेल बैठे? इस गहरे, कठिन विषय को श्रीगुरु हल करना चाहते हैं, क्योंकि उसी की बुनियाद पर वे उस कर्म का आदेश देते हैं जिसे सत्ता की एक नवीन संतुलन अवस्था से मोक्षप्रद ज्ञान के प्रकाश में भरना होगा।
तब फिर कौन-सी चीज है जो उस मनुष्य के लिये कठिनाई उपस्थित करती है जिसे इस संसार को, जैसा यह है, स्वीकार करना है और इसमें कर्म करना है और साथ ही अपने अंदर सत्ता में, आध्यत्मिक जीवन में निवास करना है। संसार का वह कौन-सा पहलू है जो उसके जागृत मन को व्याकुल कर देता है और उसकी ऐसी अवस्था हो जाती है जिसके कारण गीता के प्रथम अध्याय का नाम सार्थक शब्दों में ’अर्जुन-विषादयोगद’ पड़ा- वह विषाद और निरुत्साह जो मानव जीवन को तब अनुभूत होता है जब यह संसार जैसा है ठीक वैसा ही, अपने असली रूप में उसके सामने आता है, और उसे उसका सामना करना पड़ता है, जब न्याय-नीति और नेकी के भ्रम का परदा उसकी आंखों के सामने से, और किसी बड़ी चीज के साथ मेल होने से पहले ही, फट जाता है? यह वही पहलू है जिसने बाह्यतः कुरुक्षेत्र के नर-संहार और रक्तपात के रूप में अकार ग्रहण किया है और अध्यात्मतः समस्त वस्तुओं के स्वामी के काल रूप-दर्शन में जो अपने सृष्ट प्राणियों को निगलने, चबा जाने और नष्ट करने के लिये प्रकट हुए हैं। यह दर्शन अखिल विश्व के उन प्रभु का दर्शन है जो विश्व के स्त्रष्टा हैं, पर साथ ही विश्व के संहारकर्ता भी, जिनका वर्णन प्राचीन शास्त्रकारों ने बड़े ही कठोर रूपक में यूं किया है कि, “ऋषि-मुनि और रथी-महारथी इनके भोज्य हैं और मृत्यु इनके जेवनार का मसाला है।“ दोनों एक ही सत्य के रूप हैं, वही सत्य पहले जीवन के तथ्यों में अप्रत्यक्ष और स्पष्ट रूप से देखा गया जो अपने-आपको जीवन में व्यक्त किया करता है।
« पीछे | आगे » |