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विश्वरूपों में दिखायी देती है, अथवा हो सकता है कि एक ही परम पुरूष की विभूति के ये विविध आत्म - आविर्भाव हो।  
 
विश्वरूपों में दिखायी देती है, अथवा हो सकता है कि एक ही परम पुरूष की विभूति के ये विविध आत्म - आविर्भाव हो।  
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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०७:२३, २२ सितम्बर २०१५ का अवतरण

गीता-प्रबंध
13.यज्ञ के अधीश्वर

आगे बढ़ने से पहले, जो कुछ कहा जा चुका है, मूल सिद्धांतों का हम लोग सिंहावलोकन करते चलें। गीता का संपूर्ण कर्म - सिद्धांत उसकी यज्ञसंबंधी भावना पर अवलंबित है और ईश्वर , जगत् और कर्म के बीच सनातन संयोजक सत्य इसमें समाया हुआ है। मानव - मन साधारणतया जीवन के बहुमुखी सनातन सत्य की केवल आंशिक धारणाओं और दृष्टिकोणों को पकड़ पाता है और उन्हीं के आधार पर जीवन, सदाचार और धर्मसंबंधी नाना प्रकार के सिद्धांतों को गढ़ डालता है, तथा उनके इस या उस प्रकार या रूप पर जोर देने लगता है। लेकिन मन जब महान् प्रकाश के युग में अपने जगत् - ज्ञान के साथ भागवत ज्ञान और आत्मज्ञान के पूर्ण और समन्वयात्मक संबंध की और लौटता है तो उसे हमेशा किसी पूणता की और पुनर्जागृत होना चाहिये। गीता की शिक्षा वेदान्त के इस मूल सत्य पर आश्रित है कि सारी आत्मसत्ता एक ब्रह्मसत्ता ही है और सारी भूतसत्ता उसी ब्रह्म का चक्र है; एक ऐसी दिव्य संसृति है जिसकी प्रवृति भगवान् से होती और भगवान् में ही जिसकी निवृत्ति होती है। सब प्रकृति का ही प्राकट्य - कर्म है और प्रकृति भगवान् की वह शक्ति है जो अपने कर्मो के स्वामी और अपने रूपों के अंतर्यामी भागवत पुरूष की चेतना और इच्छा को ही कार्य में परिणत किया करती है।
उसी अतंर्यामी की प्रशन्नता के लिये वह नामरूप की लीला में और प्राण तथा मन के कर्मो मे अवतीर्ण होती है और फिर मन - बुद्धि और आत्म - ज्ञान के द्वारा वह उस आत्मा को सचेतन रूप से पुनः कर प्राप्त लेती है जो उसके अंदर निवास करती है । पहले आत्मा, जो कुछ भी वह है तथा नामरूपात्मक विकास से उसका जो कुछ भी अभिप्राय है वह सब, प्रकृति में समा जाता है ; इसके बाद आत्मा का विकास होता है , अर्थात् वह जो कुछ है, उसका जो अभिप्राय है, और जो छिपा हुआ है, पर नामरूपात्मक सृष्टि जिसकी सूचना करती है, वह सब प्रकट होता है । प्रकृति का यह चक्र कभी संभव न होता यदि पुरूष अपनी तीन शाश्वत अवस्थाओं को एक साथ धारण करके बनाये न रखता, क्योंकि प्रत्येक अवस्था इस कर्म की समग्रता के लिये आवश्यक है। पुरूष का क्षररूप में अपने - आपको प्रकट करना अपरिहार्य है, और हम दीखते हैं कि क्षर- रूप में पुरूष परिच्छिन्न है, अनेक है, सर्वभूतानि है। अब हम उसे अनंत वैचिय और नानाविध संबंधों से युक्त असंख्य प्राणियों के परिच्छिन्न व्यक्तित्व के रूप में देखते हैं, फिर हमे वह इन सब प्रणियों के पीछे होने वाले देवताओं की क्रियाओं के मूलतत्व और उनकी शक्ति के रूप में दिखायी देता है - अर्थात् भगवान् की उन विश्वशक्तियों और गुणों के रूप में जिनके द्वारा जगत् - जीवन संचालित होता है और जहां हमें वह एक सत्ता अपने विविध विश्वरूपों में दिखायी देती है, अथवा हो सकता है कि एक ही परम पुरूष की विभूति के ये विविध आत्म - आविर्भाव हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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